Sunday, March 9, 2014

संस्कृति-रत्न नहीं हैं देशरत्न!

बिहार ने सन् 2012 में बंगाल से अपने पृथक्करण के 100 साल पूरे किये। शताब्दी वर्ष में सरकार ने बिहार के इस अलगाव को ‘बिहारी अस्मिता’ एवं ‘बिहारी नवजागरण’ का फल बताया जबकि हकीकत में यह बिहार में बसे बंगालियों के विरुद्ध बिहारी मुसलमान एवं कायस्थों के उभार का नतीजा था। आधुनिक शिक्षा ने बिहार के उच्चवर्गीय मुसलमानों एवं कायस्थों को बंगालियों के विरुद्ध खड़ा कर दिया था। शताब्दी-वर्ष में कथित बिहारी नवजागरण एवं अस्मिता को ध्यान में रखकर सरकारी प्रयास से कई पुस्तकें प्रकाशित की गईं। ‘बिहार के 100 रत्न’ इसी श्रृंखला की एक कड़ी है। विनोद अनुपम के संपादन में कला, संस्कृति एवं युवा विभाग (बिहार सरकार) से प्रकाशित उक्त पुस्तक संपादक के बड़े-बड़े दावों के बावजूद ‘धरोहर’ की बजाय कूड़ेदान में तब्दील हो गई है।

पुस्तक में विचार/विचारधारा की दृष्टिहीनता का नमूना देखिए-‘जयप्रकाश नारायण मरते दम तक तमाम समस्याओं का विश्लेषण अपने माक्र्सवादी ढंग से ही करते रहे।’ आगे है-‘जयप्रकाश के राजनीतिक जीवन से गुजरते हुए यह तय करना कठिन होता है कि आखिर उनकी विचारधारा क्या थी ? ...कभी वे समाजवाद के प्रति समर्पित दिखाई देते हैं, तो कभी लोकतंत्र के सिपाही बनकर जान की बाजी लगा देते हैं। वास्तव में जे. पी. के लिए रास्ते महत्त्वपूर्ण नहीं थे, वरन् लक्ष्य महत्त्वपूर्ण थे।’ (पृष्ठ 66) पुस्तक में कई स्थलों पर ऐसे ‘उन्मुक्त विचार’ के दर्शन होंगे।

पुस्तक का शीर्षक रखने में भी किंचित असावधानी बरती गई है। शीर्षक है ‘बिहार के 100 रत्न’ जबकि 1912 से 2012 के बीच के केवल ‘संस्कृति रत्नों’ को ही इसमें शामिल किया गया है। पुस्तक की इसी सीमा की वजह से ‘देशरत्न’ डा. राजेन्द्र प्रसाद तक को इसमें शामिल किया जाना संभव नहीं हो सका। संपादक का तर्क है कि राजेन्द्र बाबू का संबंध सक्रिय राजनीति से था, इसलिए उनका नाम छोड़ दिया गया। हम सब जानते हैं कि इतिहास में कुछ नाम ऐसे भी होते हैं जो राजनीति, साहित्य, पत्रकारिता जैसे तंग खानों में अंट नहीं पाते हैं। भारतीय इतिहास में गांधी, नेहरु एवं राजेन्द्र प्रसाद निश्चित रूप से ऐसे ही नाम हैं । एक क्षण के लिए पाठक अगर ‘राजनीति से संपर्क’ के ‘संपादकीय’ तर्क को मान भी ले तो शायद इस तर्क से उसे तसल्ली न मिले क्योंकि सक्रिय राजनीति से संपर्क तो जे. पी. का भी था फिर उन्हें क्यों शामिल किया गया ? अगर उन्हें शामिल किया गया तो संपादक को चाहिए था कि वे पाठकों को उनके सांस्कृतिक अवदानों की जानकारी दें। बेहतर होता अगर जे.पी. की कहानी-कविता की पुस्तक में चर्चा होती और खुद जे.पी. के जीवन में उनके महत्त्व को रेखांकित किया जाता। लेकिन अफसोस कि विनोद अनुपम, जे.पी. की राजनीतिक सक्रियता से इतर कुछ कह पाने में असमर्थ रहे।

कला-संस्कृति के क्षेत्र से भी कई ऐसे बड़े नाम हैं जो या तो छुट गये हैं या छोड़ दिये गये हैं। सच्चिदानंद सिन्हा का नाम शामिल करते वक्त लोगों ने तनिक नहीं सोचा कि ‘बिहारी अस्मिता’ अथवा ‘बिहारी नवजागरण’ की बात महेश नारायण के बगैर संभव है क्या ? ‘बिहार में जनमत निर्माण के पिता’ कहे जानेवाले महेश नारायण का नामोल्लेख न होना क्या अनायास है ? ध्यान रहे कि महेश बाबू ‘कायस्थ समाचार’ के संपादक के रूप में बिहार में अंग्रेजी पत्रकारिता के सूत्रधार रहे हैं। उनके इस ऐतिहासिक महत्त्व की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए थी।

‘बिहारी अस्मिता’ को ध्यान में रखकर लिखी गई इस किताब से इतिहासकार विजय चन्द्र प्रसाद चैधरी गायब हैं जबकि उनकी लिखी किताब ‘द क्रिएशन आॅफ माॅडर्न बिहार’ (यह पुरस्कृत पुस्तक है) इस दिशा में पहला प्रामाणिक प्रयास थी । आज भी उस किताब से आगे की बात नहीं हो रही है। समीक्ष्य पुस्तक में इतिहासकार रामशरण शर्मा तो हैं लेकिन बिहार में मार्क्सवादी इतिहास लेखन की परंपरा की शुरुआत करनेवाले राधाकृष्ण चौधरी का नाम गायब है। खासकर जब राधाकृष्ण चौधरी के ‘ए सर्वे आॅफ मैथिली लिटरेचर’ समेत बिहार से संबंधित विषयों पर कई महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक काम हों। इस लिहाज से देखें तो बिहार में पैदा होने के अलावा बिहार के इतिहास-संस्कृति लेखन में चौधरी जी के उलट शर्मा जी का कोई योगदान नहीं है।

‘बिहार के 100 रत्न’ पुस्तक किसी दृष्टि के बगैर एक खास तरह की हड़बड़ी में संपादित की गई लगती है। तभी भाषिक त्रुटियों की भरमार है. यह पुस्तक कम, अलबम ज्यादा है।

पुस्तक-‘बिहार के 100 रत्न’, संपादक-विनोद अनुपम, प्रकाशक-कला,संस्कृति एवं युवा विभाग, वर्ष-2013