Tuesday, May 1, 2018

आप किताब कैसे पढ़ते हैं?

(आज सुबह-सुबह प्रभात खबर, पटना 6 अक्तूबर २०१७   में सुलभ जी का साक्षात्कार पढ़ने को मिला। पढ़कर अच्छा लगा कि टुच्चा स्वार्थ-साधकों के इस दौर में भी वे अंतरात्मा की बात सुन और बोल लेते हैं।फिर मुझे ख्याल आया कि इस तरह मेरे साक्षात्कार तो आने से रहे तो क्यों नहीं इस शैली में कुछ बातें फेसबुक के माध्यम से कहूं? पहला सवाल हुआ कि 'आप किताब कैसे पढ़ते हैं?' नीचे इसका जवाब पढ़ें।)

आप किताब कैसे पढ़ते हैं?
मैं सबसे पहले किताब का समर्पण देखता हूँ। उसके बाद अगर रहा तो धन्यवाद ज्ञापन। ये दोनों बातें मुझे लेखक के बारे में प्रारंभिक किंतु बहुमूल्य जानकारी देती हैं। धन्यवाद ज्ञापन लेखक के बौद्धिक परिवेश के बारे में बताता है.  एक शोध लेखक ने अपनी पत्नी के योगदान को इन शब्दों में याद किया, 'पत्नी ने मुझे घरेलू झंझटों से मुक्त रखा। एक स्कॉलर को अपनी पत्नी से इससे ज्यादा और क्या अपेक्षा हो सकती है!' शिवरानी देवी की पुस्तक प्रेमचंद : घर में का समर्पण कुछ इस तरह है-'स्वामी,/ तुम्हारी ही चीज/ तुम्हारे चरणों में चढ़ाती हूँ/इस तुच्छ सेवा को अपनाना/तुम्हारी/दासी या रानी'। ये दोनों तथ्य हमें न केवल लेखक के बारे में बल्कि हिंदुस्तान के सबसे अधिक शिक्षित तबके की स्त्री की हालत भी बयान करते हैं। एक में आजादी की लड़ाई के दिनों की स्त्री है तो दूसरे में सोवियत संघ के विघटन के साथ शुरू हुए उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौर की।

इसके बाद किताब की भूमिका की तरफ मेरा ध्यान जाता है। यहां से मेरी विधिवत 'पढ़ाई' शुरू होती है। मेरे लिए भूमिका निर्णायक है। यही बताती है कि पुस्तक मेरे लिए बनी है अथवा नहीं। भूमिका ने मेरे दिमाग को अगर आवश्यक खुराक दी तो ठीक नहीं तो उसके जाल से मैं अपने को तत्काल मुक्त कर लेता हूँ। अगर किताब वैचारिक और भाषाई रूप से समृद्ध रही तो पुस्तक आद्योपांत पढ़ जाता हूँ नहीं आधे-अधूरे से काम चलाता हूँ। 'युद्ध और शांति' को कई प्रयासों के बाद भी अबतक नहीं पढ़ पाया। 'मां' को दुबारा पढ़ने की इच्छा कभी नहीं हुई जबकि 'मेरा बचपन', 'जीवन की राहों पर' और 'पुनरुत्थान' बार-बार पढ़ते भी कभी थका नहीं।
किताब पढ़ते हुए मुझे 'अंडरलाइन' करने की बुरी आदत लगी। आदत कुछ ऐसी हुई कि कई बार आप कह सकते हैं कि मैं 'अंडरलाइन' करने का सुख पाने के ख्याल ही से किताबें पढ़ पाता हूँ। इस आदत की एक कहानी है।

मैं दसवीं जमात का विद्यार्थी था। हिन्दी की किताब में जगदीशचंद्र माथुर का लिखा एक रेखाचित्र पढ़ना था। शीर्षक था-'एक जन्मजात चक्रवर्ती'। और यह 'जन्मजात चक्रवर्ती' कोई और नहीं श्री सच्चिदानंद सिन्हा थे। उनके बारे में लिखा था कि उन्हें नित नयी-नयी किताब पढ़ने और लाल-पीले रंगों में रंगने अर्थात 'अंडरलाइन' करने का शौक था। मैं वैसा कोई चक्रवर्ती तो न था लेकिन उनकी यह बीमारी मुझे भी लग गयी। अब तक मार्क्स की बीमारी भी जाहिर हो चुकी थी। अतः पुस्तक में जो वाक्य अथवा तथ्य मुझे महत्वपूर्ण लगते, बेधड़क अंडरलाइन कर देता। इसका लाभ भी मुझे मिलता। दुबारा किताब पढ़ने पर मैं उन हिस्सों पर ज्यादा रुकता और मुझे उनके पीछे की ध्वनि सुनाई पड़ती। कई बार अगर जल्दबाजी होती तो सिर्फ अंडरलाइन किये हिस्से को पढ़कर पूरी किताब पढ़ चुकने का तोष प्राप्त करता। वैसे भी आखिर कितनी किताबें हैं जिनके एक-एक शब्द को बार-बार पढ़े जाने की जरूरत होती है!

किताब में दबंग दस्तख़त को छोड़ दें तो केवल अंडरलाइन किये हुए शब्द और वाक्य हैं जो हमें पाठक की मनोदशा और विचारधारा से परिचित कराते हैं। मुझे नहीं मालूम कि किसी जीवनीकार ने किसी लेखक अथवा इतिहासकार पर काम करते हुए इस बात को भी ध्यान में रखा है कि उक्त आदमी ने कब और किन चीजों को अंडरलाइन किया है। अगर समय, संसाधन और शरीर ने साथ दिया तो इस तरह का कोई शोध प्रस्तुत करना चाहूंगा। इस क्रम में शायद कुछ नयी बात हाथ लग जाए!