Tuesday, May 1, 2018

आप किताब कैसे पढ़ते हैं?

(आज सुबह-सुबह प्रभात खबर, पटना 6 अक्तूबर २०१७   में सुलभ जी का साक्षात्कार पढ़ने को मिला। पढ़कर अच्छा लगा कि टुच्चा स्वार्थ-साधकों के इस दौर में भी वे अंतरात्मा की बात सुन और बोल लेते हैं।फिर मुझे ख्याल आया कि इस तरह मेरे साक्षात्कार तो आने से रहे तो क्यों नहीं इस शैली में कुछ बातें फेसबुक के माध्यम से कहूं? पहला सवाल हुआ कि 'आप किताब कैसे पढ़ते हैं?' नीचे इसका जवाब पढ़ें।)

आप किताब कैसे पढ़ते हैं?
मैं सबसे पहले किताब का समर्पण देखता हूँ। उसके बाद अगर रहा तो धन्यवाद ज्ञापन। ये दोनों बातें मुझे लेखक के बारे में प्रारंभिक किंतु बहुमूल्य जानकारी देती हैं। धन्यवाद ज्ञापन लेखक के बौद्धिक परिवेश के बारे में बताता है.  एक शोध लेखक ने अपनी पत्नी के योगदान को इन शब्दों में याद किया, 'पत्नी ने मुझे घरेलू झंझटों से मुक्त रखा। एक स्कॉलर को अपनी पत्नी से इससे ज्यादा और क्या अपेक्षा हो सकती है!' शिवरानी देवी की पुस्तक प्रेमचंद : घर में का समर्पण कुछ इस तरह है-'स्वामी,/ तुम्हारी ही चीज/ तुम्हारे चरणों में चढ़ाती हूँ/इस तुच्छ सेवा को अपनाना/तुम्हारी/दासी या रानी'। ये दोनों तथ्य हमें न केवल लेखक के बारे में बल्कि हिंदुस्तान के सबसे अधिक शिक्षित तबके की स्त्री की हालत भी बयान करते हैं। एक में आजादी की लड़ाई के दिनों की स्त्री है तो दूसरे में सोवियत संघ के विघटन के साथ शुरू हुए उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौर की।

इसके बाद किताब की भूमिका की तरफ मेरा ध्यान जाता है। यहां से मेरी विधिवत 'पढ़ाई' शुरू होती है। मेरे लिए भूमिका निर्णायक है। यही बताती है कि पुस्तक मेरे लिए बनी है अथवा नहीं। भूमिका ने मेरे दिमाग को अगर आवश्यक खुराक दी तो ठीक नहीं तो उसके जाल से मैं अपने को तत्काल मुक्त कर लेता हूँ। अगर किताब वैचारिक और भाषाई रूप से समृद्ध रही तो पुस्तक आद्योपांत पढ़ जाता हूँ नहीं आधे-अधूरे से काम चलाता हूँ। 'युद्ध और शांति' को कई प्रयासों के बाद भी अबतक नहीं पढ़ पाया। 'मां' को दुबारा पढ़ने की इच्छा कभी नहीं हुई जबकि 'मेरा बचपन', 'जीवन की राहों पर' और 'पुनरुत्थान' बार-बार पढ़ते भी कभी थका नहीं।
किताब पढ़ते हुए मुझे 'अंडरलाइन' करने की बुरी आदत लगी। आदत कुछ ऐसी हुई कि कई बार आप कह सकते हैं कि मैं 'अंडरलाइन' करने का सुख पाने के ख्याल ही से किताबें पढ़ पाता हूँ। इस आदत की एक कहानी है।

मैं दसवीं जमात का विद्यार्थी था। हिन्दी की किताब में जगदीशचंद्र माथुर का लिखा एक रेखाचित्र पढ़ना था। शीर्षक था-'एक जन्मजात चक्रवर्ती'। और यह 'जन्मजात चक्रवर्ती' कोई और नहीं श्री सच्चिदानंद सिन्हा थे। उनके बारे में लिखा था कि उन्हें नित नयी-नयी किताब पढ़ने और लाल-पीले रंगों में रंगने अर्थात 'अंडरलाइन' करने का शौक था। मैं वैसा कोई चक्रवर्ती तो न था लेकिन उनकी यह बीमारी मुझे भी लग गयी। अब तक मार्क्स की बीमारी भी जाहिर हो चुकी थी। अतः पुस्तक में जो वाक्य अथवा तथ्य मुझे महत्वपूर्ण लगते, बेधड़क अंडरलाइन कर देता। इसका लाभ भी मुझे मिलता। दुबारा किताब पढ़ने पर मैं उन हिस्सों पर ज्यादा रुकता और मुझे उनके पीछे की ध्वनि सुनाई पड़ती। कई बार अगर जल्दबाजी होती तो सिर्फ अंडरलाइन किये हिस्से को पढ़कर पूरी किताब पढ़ चुकने का तोष प्राप्त करता। वैसे भी आखिर कितनी किताबें हैं जिनके एक-एक शब्द को बार-बार पढ़े जाने की जरूरत होती है!

किताब में दबंग दस्तख़त को छोड़ दें तो केवल अंडरलाइन किये हुए शब्द और वाक्य हैं जो हमें पाठक की मनोदशा और विचारधारा से परिचित कराते हैं। मुझे नहीं मालूम कि किसी जीवनीकार ने किसी लेखक अथवा इतिहासकार पर काम करते हुए इस बात को भी ध्यान में रखा है कि उक्त आदमी ने कब और किन चीजों को अंडरलाइन किया है। अगर समय, संसाधन और शरीर ने साथ दिया तो इस तरह का कोई शोध प्रस्तुत करना चाहूंगा। इस क्रम में शायद कुछ नयी बात हाथ लग जाए!

Friday, April 27, 2018

कुछ जरूरी किताबों और पत्रिकाओं के बारे में टिप्पणियां

भाषा का संस्कार नहीं है
डी.एन. झा मेरे प्रिय इतिहासकार कभी नहीं रहे. सन 1984-85 के आसपास उनकी किताब एन्शियेंट इण्डिया : ऐन इंट्रोडक्ट्री आउटलाइन का हिंदी अनुवाद पढ़ा था. उक्त पुस्तक में मेरे लिए कोई आकर्षण नहीं था. इतने दिनों बाद आज उनकी दूसरी किताब प्राचीन भारत : सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक विकास की पड़ताल (ग्रंथशिल्पी से प्रकाशित) पढ़ने बैठा हूँ. प्रस्तावना में लेखक का दावा है कि ‘प्रस्तुत पुस्तक स्वतंत्र रूप से हिंदी में लिखी गई है’. एक पाठक इस पर सहज विश्वास नहीं कर सकता. इस सहज अविश्वास के कारण हैं. झा जी लिखते हैं, ‘एक-दो स्थलों पर गाय को अनघ्या (जिसे मारा नहीं जाना चाहिए) कहा गया है.’ (पृष्ठ 47) दरअसल, संस्कृत का शब्द ‘अघ्न्य’ (न मारने योग्य) है. इसी से ‘अघ्न्या’ शब्द बना है जिसका एक अर्थ गाय भी है. आगे वे लिखते हैं, ‘गोध्न अतिथि के अर्थ में प्रयुक्त एक शब्द था’. यहाँ भी शब्द ‘गोघ्न’ है न कि ‘गोध्न’ जैसा झा जी लिखते हैं. वे आगे लिखते हैं, ‘उत्तर वैदिक पाठों में भागदुध कहलाने वाले एक अधिकारी का उल्लेख हुआ है.’ रामशरण शर्मा (मैटेरियल कल्चर एंड सोशल फौर्मेशंस इन एन्शियेंट इण्डिया, मैकमिलन, प्रथम संस्करण : 1983, पृष्ठ 76), रोमिला थापर (फ्रॉम लिनिएज टू स्टेट, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1984, पृष्ठ 40) तथा डी.डी. कोसंबी (प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता, राजकमल प्रकाशन, 1990, पृष्ठ 116) ने इस शब्द को ‘भागदुघ’ बताया है. कहना होगा कि संस्कृत में ‘दुघ’ (दुह (ह हलयुक्त है) +क, प्रायः समास के अंत में जैसे कामदुघा) शब्द का अर्थ होता सौंपने वाला. अर्थात ‘भागदुघ’ का अर्थ हुआ भाग (कर) सौंपने वाला अधिकारी. यह सब अगर ‘मूल रूप से हिंदी में लिखने’ के क्रम में हुआ है, तो कहना पड़ेगा कि इस इतिहासकार के पास संस्कृत भाषा का संस्कार नहीं है।

तिनेरी की जगह टेपारी छपा है
कहा जाता है कि कविता तीसरे पाठ के बाद भ्रष्ट हो जाती है और हम रिसर्चर किताब से किताब बनाये जा रहे हैं। स्वतंत्रता संग्राम में बिहार के बलिदानी (बिहार विधान परिषद सचिवालय, मार्च 2011) श्रीकांत जी की किताब है। इसमें पृष्ठ 31 पर मेरे गांव का नाम 'टेपारी' छपा है। मेरे गांव का नाम 'तिनेरी' है। गलत नाम पढ़कर दुख हुआ। लगा कि छापे की भूल है। लेकिन कल मैंने अपने विद्यालय की लाइब्रेरी से एक किताब निकाली। किताब का नाम है भारत छोड़ो आंदोलन 1942 के शहीद। लेखक वीरेंद्र कुमार 'वीरू' हैं। अनुराग प्रकाशन ने 2008 में इसे प्रकाशित किया है। इस किताब के पृष्ठ 35 पर भी अपने गांव का नाम 'टेपारी' छपा देख मन छोटा हो गया। क्या यह मूल दस्तावेज की गलती है अथवा मान लें कि किताब से किताब ही नहीं निकलती गलतियां भी निकलती हैं!

पुनश्च, श्रीकांत जी की किताब में तिथिवार शहीदों की सूची प्रकाशित है। उक्त सूची में मेरे गांव के शहीद का जिक्र नहीं है।

स्वतंत्रता संग्राम में बिहार के बलिदानी पुस्तक में लगा कि कुछ महत्वपूर्ण नाम इसमें नहीं आ सके हैं. महेंद्र चौधरी ऐसे ही एक राजनीतिक कैदी का नाम है जिसे डाकाजनी और हत्या के अपराध में 7 अगस्त, 1945 को भागलपुर केन्द्रीय जेल में फांसी दी गई थी.

बिहार की पत्रकारिता का इतिहास
रामचंद्र ठाकुर की 'हिस्ट्री ऑफ जर्नलिज्म इन बिहार (1866-1919)' का मैं वर्षों से इंतजार कर रहा था. वी.सी.पी.चौधरी की किताबों में इस शोध-प्रबंध का अक्सर जिक्र पढ़ता. दरअसल यह शोधकार्य बहुत पहले संपन्न किया जा चुका था लेकिन पुस्तक के रूप में 2014 में ही पहली बार पाठकों को उपलब्ध है.
डाक्टर रामचंद्र ठाकुर ने ‘हिस्ट्री ऑफ जर्नलिज्म इन बिहार’ (1866-1919) में ‘लक्ष्मी’ मासिक पत्रिका को 1902 में लाला भगवान दिन के संपादन में लक्ष्मी प्रेस, गया से प्रकाशित हुआ बताया है (पृष्ठ 59). इनका दावा है कि इन्होंने उक्त पत्रिका की जुलाई 1902 की मूल प्रति देखी है (पृष्ठ 66, पाद टिप्पणी संख्या 81). हालाँकि श्री अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ने ‘समाचार पत्रों का इतिहास’ में ‘लक्ष्मी’ का प्रकाशन वर्ष 1903 लिखा है (पृष्ठ 241). रामजी मिश्र ‘मनोहर’ने भी ‘बिहार में हिंदी-पत्रकारिता का विकास’ में प्रकाशन वर्ष 1903 ही बताया है (पृष्ठ 59).

दरअसल इसकी कहानी है कि गया जिले के ‘कूसी’ (औरंगाबाद) ग्राम के निवासी लक्ष्मीनारायण लाल ने आयुर्वेद-प्रचार के लिए सन् 1903 ई. में एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, जिसका नाम ‘लक्ष्मी-उपदेश-लहरी’ रखा गया था (‘हिंदी साहित्य और बिहार’, चतुर्थ खण्ड, पृष्ठ 100). इसके प्रथम संपादक श्री अखौरी शिवनन्दन प्रसाद ‘बहार’ थे. श्री बहार ने एक वर्ष तक उसका संपादन किया. तदन्तर मध्यदेश के सागर-मण्डलांतर्गत ‘देवरी’ निवासी श्री गोरेलाल मंजु सुशील ने उसका संपादन भार संभाला. इनके समय में पत्रिका की विशेष उन्नति हुई. अत्यधिक प्रचार के बाद पत्रिका अपने साहित्यिक रूप में प्रतिष्ठित हुई (‘जयंती स्मारक ग्रंथ’, पृष्ठ 585; ‘हिंदी साहित्य और बिहार’, चतुर्थ खण्ड, पृष्ठ 100, पा.टि. 1). जब ‘लक्ष्मी प्रेस’ का स्थानांतरण गया नगर में हुआ, तब पत्रिका का नाम केवल ‘लक्ष्मी’ रह गया. इसी समय सुशील जी का असामयिक निधन हो गया. इनके अचानक दिवंगत होने से पत्रिका का बड़ा अहित हुआ. इनके निधनोपरांत बुन्देलखण्ड निवासी श्री लाला भगवान दीन जी ने इसके संपादन का भार अपने कंधों पर लिया. इसके पूर्व वे हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी के हिंदी विभाग में प्राध्यापक थे. लाला भगवान दीन जी के बाद आरा निवासी पं. ईश्वरीप्रसाद शर्मा और श्रीरामानुग्रह नारायण लाल, बी.ए. क्रमशः इसके संपादक हुए. ‘लक्ष्मी’ अपने जमाने की एकमात्र साहित्यिक पत्रिका गिनी जाती थी. इस पत्रिका के संबंध में श्रीस्वामी सत्यदेव तथा म.म.पं. सकलनारायण शर्मा ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की थी. अमेरिका प्रवासी स्वामी सत्यदेव ने एक पत्र में ‘लक्ष्मी’ की प्रशंसा करते हुए लिखा था : ‘‘गया की ‘लक्ष्मी’ हिंदुस्तान के सामयिक पत्रों में अपना खास स्थान रखती है. प्रायः सभी लेख और कविताएं उपयोगी और शिक्षाप्रद हैं. संस्थापक महोदय अवश्य प्रशंसा के पात्र हैं।’’ म.म.पं. सकलनारायण शर्मा ने एक बार प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति पद से भाषण करते हुए कहा था: ‘रायसाहब लक्ष्मीनारायण लाल जी बिहार के उन हिंदी प्रमियों में हैं, जो हिंदी के लिए प्रतिवर्ष पानी की तरह रुपये बहाते हुए कुण्ठित नहीं होते’ (त्रैमासिक साहित्य’, पृष्ठ 41; ‘हिंदी साहित्य और बिहार’, चतुर्थ खण्ड, पृष्ठ 100, पा.टि. 2).

रामचंद्र ठाकुर ने अपनी पुस्तक में 'क्षत्रिय पत्रिका' का प्रकाशन-वर्ष 1880 बताया है (पृष्ठ 28) जो सही नहीं प्रतीत होता. 1880 में दरअसल इस पत्रिका का विज्ञापन निकला था और इसका प्रथम अंक निकला 19 मई 1881 को. डाक्टर धीरेन्द्रनाथ सिंह (आधुनिक हिंदी के विकास में खड्गविलास प्रेस की भूमिका, पृष्ठ 166) ने इसी तिथि को सही बताया है. कहना होगा कि डाक्टर सिंह का निष्कर्ष अत्यंत प्रामाणिक स्रोत यथा पत्रिका की फाइल, डायरी आदि पर आधारित है जबकि डाक्टर ठाकुर ने 'रिपोर्ट ऑन नैटिव न्यूजपेपर्स इन बंगाल 1882' को आधार बनाया है.

जिन्ना : एक पुनर्मूल्यांकन
वीरेंद्र कुमार बरनवाल की राजकमल प्रकाशन से ‘जिन्ना : एक पुनर्दृष्टि’ किताब है. उक्त पुस्तक के खंड : 1 का 6ठा अध्याय ‘माउन्टबैटन के हिंदुस्तान आगमन से विभाजन और देहावसान तक’ लैरी कॉलिन्स/डोमिनिक लेपियर की पुस्तक ‘माउन्टबैटन एंड द पार्टीशन ऑफ इंडिया’ (विकास पब्लिशिंग हॉउस, १९८२) का लगभग अनुवाद है. अनुवाद के क्रम में कुछ जरूरी बातें छुट गई हैं अथवा छोड़ दी गई हैं जिससे भ्रम की स्थिति पैदा होती है. पृष्ठ 319 पर लिखा है, ‘‘ध्यातव्य है कि एडविना अपने पति लॉर्ड माउंटबैटन को प्यार से ‘डिकी’ कहती थीं.’’ तथ्य यह है कि ‘डिकी’ नाम से न केवल एडविना और माउंटबैटन के परिवार के लोग बल्कि उनके मित्र भी बुलाते थे. लॉर्ड इस्मे भी इसी नाम से बुलाते थे. ‘माउन्टबैटन एंड द पार्टीशन ऑफ इंडिया’, पृष्ठ 11 की पादटिप्पणी में यह पंक्ति ध्यातव्य है : ‘Dickie was the nickname given to Mountbatten by his family and intimate friends’.

 झारखंड एन्साइक्लोपीडिया
झारखंड एन्साइक्लोपीडिया, खंड-4 (संपादक : रणेन्द्र) पृष्ठ 147 पर डॉक्टर एम. पी. हसन/प्रो. खुर्शीद आलम का 'झारखंड में मुस्लिम समुदाय' शीर्षक लेख है जिसमें आर आर दिवाकर को 'बिहार थ्रू द एजेज' का 'लेखक' बताया गया है, जबकि वे 'संपादक' हैं। पुनः 'खड़िया भाषा और साहित्य' लेख में पृष्ठ 225 पर शिष्ट साहित्य को 'स्वातन्त्र्योत्तर पूर्व' और 'स्वातंत्र्योत्तर पश्चात' के नाम से काल विभाजन है जो अटपटा है।

बिहार थ्रू द एजेज
'बिहार थ्रू द एजेज' अपने समय की शानदार किताब है लेकिन उसकी कई गंभीर सीमाएं है. मसलन, जब संस्कृत साहित्य को आधुनिक बिहार के योगदान की बात आती है तो महज दो लेखक की चर्चा कर लेखक बच निकलता है. दो से अधिक पृष्ठ केवल रामावतार शर्मा पर जाया किया जाता है, बिहार गायब है.

 हिंदी साहित्य और बिहार
जिन किताबों को हम एक भरोसा के साथ पढ़ते रहे उनका बुरा हाल देखिए। 'हिंदी साहित्य और बिहार' (चतुर्थ खंड) के पृष्ठ 36 पर केशवराम भट्ट के बारे में लिखा है, 'आपका लालन-पालन आपके बड़े भाई पंडित मदन मोहन भट्ट ने किया'. इसी पृष्ठ की पादटिप्पणी संख्या 3 में लिखा है, 'यह पत्र (बिहार बन्धु ) पहले-पहल सन 1872 ईस्वी में आपके अनुज पंडित मदन मोहन भट्ट के द्वारा कलकत्ता से प्रकाशित हुआ था.' अब पाठक को कौन बताए कि मदन मोहन भट्ट, केशवराम भट्ट के 'अग्रज' थे अथवा 'अनुज'!उक्त पाद टिप्पणी के अनुसार बिहार बन्धु अखबार मदन मोहन भट्ट ने शुरू किया था जबकि पुस्तक में ठीक ऊपर लिखा जा चुका है कि 'केशवराम भट्ट ने बिहार बन्धु नामक एक साप्ताहिक समाचार-पत्र प्रकाशित किया.' अब अंग्रेजी में लिखी पुस्तक का हाल देखिए. एन. कुमार की पुस्तक 'जर्नलिज्म इन बिहार' बिहार बन्धु का संस्थापक बालकृष्ण भट्ट (पृष्ठ 41) को मानता है न कि केशव राम भट्ट को. लिखा है, 'Bihar Bandhu was founded in 1872 in Calcutta by Balkrishna Bhatt in collaboration with Keshavram Bhatt.' (p.41) आगे पृष्ठ 64 पर लिखते हैं, 'In fact this paper had been founded in Calcutta by Pandit Keshav Ram Bhatt and his younger brother Pandit Madan Mohan Bhatt....' बिहार बन्धु के प्रकाशन-वर्ष को लेकर भी ऐसा ही अंधेर है !

ज्ञान भारती बाल पुस्तकमाला
मेरे भतीजे ने योगेन्द्र द्वारा लिखित ‘पं. जवाहर लाल नेहरु’ (ज्ञान भारती बाल पुस्तक माला, प्रकाशक : साहित्य केन्द्र, 7 बाग फरजाना आगरा -2, प्रथम आवृति मकर संक्रांति, प्रकाशन वर्ष अज्ञात) उठा ली और पढ़ने लगा. कह नहीं सकता कि उक्त किताब मित्र कुमार मुकुल ने मेरे बेटे को दी या उनके बेटों ने. संभव है, मुकुल जी को वह किताब आर.एस.एस. की शाखा से मिली हो. वे अपने किशोर वय में, जैसा वे स्वीकार करते हैं, जिज्ञासावश वहां जाया करते थे. संतोष की बात है कि इस किताब की काली छाया इन ‘पीढ़ियों’ पर नहीं पड़ी. कितने माता-पिता हैं जो अपने बच्चों को ‘अन्धविश्वास पर आधारित मनगढंत, खतरनाक किस्सों’ से बचा सकें. वे किस्से अद्भुत विनाशकारी होते हैं जो इतिहास की शक्ल में बच्चों को पढाये जाते हैं. जैसे यह--- ‘काफी समय तक स्वरूप रानी के कोई संतान नहीं हुई. एक दिन जब मोतीलाल नेहरु और स्वरूपरानी दोनों मालवीय जी से मिले और उन्हें अपनी चिंता व्यक्त की तो मालवीय जी द्रवित हो गये और इन्हें ऋषिकेश के पास एक तपस्वी की कुटिया पर ले गये. मालवीय जी ने तपस्वी से कहा कि महाराज इन्हें पुत्र दो. इस पर तपस्वी कुछ बोला नहीं मुस्करा दिया. तीन दिन तक मोतीलाल नेहरु मालवीय जी के साथ तपस्वी के यहाँ जाते रहे. चौथे दिन तपस्वी ने धूनी की राख मोतीलाल नेहरु के मस्तक पर लगायी और थोड़ी सी उन्हें दे दी और कहा कि यह अपनी पत्नी को चटा देना आप पर कृपा होगी.

इस घटना के ठीक दस मास के पश्चात पंडित मोतीलाल नेहरु के घर में एक पुत्र ने जन्म लिया. कहते हैं उसी तपस्वी ने जवाहरलाल के रूप में अवतार धारण कर लिया था. और यही कारण था कि अपनी तपस्या, साधना और योग के बल पर उन्हें इतना प्रबल प्राक्कथन, जन्म संस्कार मिला जिसके बिना इतनी अक्षय कीर्ति तथा लोक-स्नेह उन जैसा किसी और को प्राप्त नहीं हो सका.’ (पृष्ठ 8-9)

सत्यभक्त और साम्यवादी पार्टी
कर्मेंदु शिशिर जी योजनाबद्ध लेखन करते हैं. उनका यह गुण मुझमें ईर्ष्या का भाव जगाता है. उन्होंने हिंदी नवजागरण से संबद्ध कई लेखकों पर लिखा है. निश्चित रूप से यह काम महत्वपूर्ण है. इसी क्रम में उन्होंने ‘नवजागरण की दुर्लभ पत्र-पत्रिकाओं के अरण्य में गहरी छानबीन’ के बाद ‘सत्यभक्त और साम्यवादी पार्टी’ किताब सम्पादित की है. शिशिर जी को पता है कि ‘सत्यभक्त के व्यक्तित्व में अंतर्विरोध थे और बहुत साफ-साफ दिखते भी थे.’ (पृष्ठ 30) जो ‘दिखा’ वह यह कि ‘उनकी भारतीयता आध्यात्मिकता तक पहुँच जाती थी’ (पृष्ठ 30) और जो ‘नहीं दिखा’ वह था भारत में मुसलमान का ‘अभारतीय’ होना. सत्यभक्त लिखते हैं, ‘हिंदुस्तान की हालत इस समय बड़ी शोचनीय हो रही है. एक हजार सालों से यह विदेशियों के पैरों तले कुचला जा रहा है.’ (पृष्ठ 52) सत्यभक्त की ‘भारतीयता’ की यह ‘भारतीय दृष्टि’ कर्मेंदु शिशिर जी की दृष्टि से शायद ओझल है ! अन्यथा वे ‘अखण्ड ज्योति’ से उनके (सत्यभक्त के) जुड़ाव को दलित कन्या (मेहतरानी) के साथ विवाह की परिणति के रूप में न देखते. (पृष्ठ 29)
 
ए एस अल्टेकर और पर्दा प्रथा
‘The Purdah system, in all probability, was unknown in ancient India. Its general adoption is subsequent to the advent of Muslims in India....The Hindus adopted purdah as a protective measure. The tendency to imitate the ruling class was another factor.’ ये पंक्तियाँ गुरु गोलवलकर की नहीं, प्राचीन भारत के मान्य इतिहासकारों में लगभग सर्वाधिक पढ़े गये इतिहासकार ए.एस. अल्तेकर की हैं. अल्तेकर यह कैसे भूल जाते हैं कि प्राचीन भारत की 'अन्तःपुर की नारियां', ‘पतिव्रता’ और ‘सती’ स्त्रियाँ असूर्यम्पश्य (सूर्यमपि न पश्यति) हैं. अन्तःपुर की रानियों के बारे में कहा जाता है कि उन्हें सूर्य देखना भी दुर्लभ था. पर्दा का यह रूप अल्तेकर को नहीं दिखा क्योंकि वे इसका तार मुसलमानों का आगमन और उनकी ज्यादतियों के साथ जोड़ते हैं. वे जीवित होते तो मैं पूछता कि ‘जनाब, "पर्दा" और "प्रोटेक्टिव मेजर" का क्या घपला है ?' यह भी कि ‘प्रोटेक्टिव मेजर’ केवल मुसलमानों के विरुद्ध था अथवा हिन्दू राजाओं के विरुद्ध भी था ?’ संस्कृत के मर्मज्ञ अल्तेकर ने अनहिलपट्टन के राजा जयसिंह के महामात्य वाग्भट्ट का प्रसंग तो अवश्य ही पढ़ा होगा। इन्हें अपने इस ‘महामात्यत्व’ का ‘महामूल्य’ चुकाना पड़ा है। "इनकी एक पुत्री थी, परम सुन्दरी, परम विदुषी और अपने पिता के सदृश कविप्रतिभाशालिनी। जब वह विवाह योग्य हुई तो उसे बलात् इनसे छीनकर राजप्रासाद की शोभा बढ़ाने के लिए भेज दिया गया।" न वाग्भट्ट इसके लिए तैयार थे और न कन्या। पर ‘अप्रतिहता राजाज्ञा’ के सामने दोनों को सिर झुकाना पड़ा। बिदाई के समय की कन्या की इस उक्ति को जरा देखिए। राजप्रासाद के लिए प्रस्थान करते समय कन्या अपने रोते हुए पिता को सान्त्वना देते हुए कह रही है-"तात वाग्भट्ट! मा रोदीः कर्मणां गतिरीदृशी।’ दुष् धातोरिवास्माकं गुणो दोषाय केवलम्।।’ व्याकरण प्रक्रिया के अनुसार दुष् धातु को गुण होकर ‘दोष’ पद बनता है ‘दुष्’ धातु के ‘गुण’ का परिणाम ‘दोष’ है। इसी प्रकार हमारे सौन्दर्य-‘गुण’ का परिणाम यह अनर्थ है और अत्याचाररूप ‘दोष’ है। इसलिए हे तात्! आप रोइए नहीं, यह तो हमारे कर्मों का फल है कि दुष् धातु के समान हमारा गुण भी दोषजनक हो गया।"–देखें, मम्मट, ‘काव्यप्रकाश’ (हिंदी व्याख्या : आचार्य विश्वेश्वर सिद्धांतशिरोमणि), ज्ञाणमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, पुनर्मुद्रित संशोधित संस्करण : 1998, पुनर्मुद्रण, जुलाई 2006, पृष्ठ 80-81)

चंपारण एंड दि इंडियन नेशनल मुवमेंट
बिहार और खासकर पटना में इतिहास की शोध पुस्तकों का एकमात्र प्रकाशन जानकी प्रकाशन है। दुर्भाग्य कहिए कि इस प्रकाशन की पुस्तकों में अशुद्ध शब्द कुल शब्द से थोड़े ही कम होते हैं। यहाँ से छपी किताबें मुझमें भरोसा नहीं जगा पातीं। बिनोद कुमार वर्मा की किताब "चंपारण एण्ड द इंडियन नेशनल मूवमेंट" पढ़ते हुए एक बार फिर निराश होना पड़ रहा है।

बिहार विधान परिषद का इतिहास
बिहार के शताब्दी वर्ष पर बिहार सरकार इतिहास की जो किताबें प्रस्तुत कर रही है, वे तथ्य से परे हैं. ‘बिहार विधान परिषद का इतिहास’ (१९१२-१९५०) का लेखक कहता है कि ‘आमदनी कम होने की वजह से जमींदार आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार में कम रुचि लेते थे’, (पृष्ठ 4) जबकि सच्चाई कुछ और ही है. 1 जनवरी 1896 को 'द बिहार टाइम्स' ने लिखा, ‘The Banelly Raj in the Bhagalpore Division is tottering on the bank of bankruptcy…..The Raja himself made a donation of Rs. 50,000 to the Countess of Dufferin Fund. Is it not a pity that even a pice of this donation should have been touched? For the estate was in debt of nearly a crore and the donation was made to get title.’ और आगे 'The Deo Estate was released from the Court of Wards after all debts having been paid off but the Estate was left with an annual rental of several thousand only instead of its previous lacs; the management and the European manager had made the affairs even worse; one of the executors was ill and had been induced to make a will which would be the future source of litigation. In Shahabad the Surjupura and Doomrah Estate were in lamentable condition. With the death of the Maharajah of Hatwa his estate had passed into the hands of the Courts of Wards and the Bettiah Raj was engaged in litigation.’

मौलवी सैयद अब्दुल्ला (सब जज) के सारण स्थानांतरण के मौके पर जो शानदार जलसे का आयोजन हुआ, उसके बारे में 21अगस्त 1871 के अंक में 'द हिंदू पैट्रियट' ने लिखा, 'the sight was truly grand. The assembly was held at the Chowony of the Maharajah of Bettiya. The judge and the Magistrate of the district and the elite of the native community were present on the occasion….There was then a display of fireworks after which the assembly broke up. The entertainment was got up at the expense of a rich zemindar Deo Coomar Singh and the principal pleaders of Sarun and managed entirely by Keshab Lall Ghosh of Bar, who was nominated Secretary. The rigid rule of the Government regarding the giving of testimonials to popular officers, on transfer….has led to this social contrivance.’ 31 जनवरी 1860 के अंक में 'द इंग्लिशमैन' ने लिखा था, …..'The Maharajah of Darbhanga spent lacs of rupees in preparation for the Lt.-Governor who never (came to Darbhanga)….The Rajah of Darbhanga has just come into Muzaffarpur to pay his devoirs to the Commissioner.' देखें, वी.सी.पी. चौधरी, 'इम्पीरियल हनीमून विथ इन्डियन अरिस्टोक्रेसी', के.पी. जायसवाल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पटना, पृष्ठ 442, 443.

लगता है, लेखकद्वय डॉक्टर ब्रजकुमार पाण्डेय व चितरंजन चौधरी ने 'बिहार विधान परिषद् का इतिहास' (1912-1950) पुस्तक शायद हड़बड़ी में तैयार की है. व्याकरणिक त्रुटि के साथ-साथ संपादन की काफी सम्भावना है. इसमें उद्धृत पुस्तकों के नाम तक गलत छपे हैं. 'बिहार थ्रू द एजेज' आद्योपांत 'इंडिया थ्रू द एजेज' प्रकाशित है.

रामशरण शर्मा : मिथकीय पुरुष
रामशरण शर्मा हमेशा ही वस्तुनिष्ठ और प्रामाणिक इतिहास के आग्रही रहे, लेकिन विद्वानों ने उन पर लिखते हुए इस बात का तनिक ध्यान न रखा और 'मिथकीय पुरुष' बना दिया। इसी का नतीजा हैं कि अंतर्जाल पर सर्वत्र उन्हें 100 पुस्तकों का लेखक बताया जाता है। पटना के एक बहुप्रचारित विद्वान डॉक्टर व्रजकुमार पांडेय ने जैसाकि लिखा है, 'शर्माजी अपनी सभी किताबें अंग्रेजी में लिखी थीं और उन सबों का हिन्दी अनुवाद उन्होंने स्वयं किया था।' (जनशक्ति, पटना, 28 अगस्त 2011, पृष्ठ 3) यह तथ्य नहीं अफवाह है। शर्माजी की पहली पुस्तक 'विश्व इतिहास की भूमिका' प्रथमतः और मूलतः हिन्दी में लिखी गयी थी। 'पर्सपेक्टिव्स इन सोशल ऐंड इकनॉमिक हिस्ट्री ऑफ अर्ली इंडिया' (प्रथम संस्करण) का हिन्दी रूपांतर हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) से छपा है। शर्माजी ने 'अध्याय संख्या 2, 6 और 13 को स्वयं हिन्दी में लिखा है।' (प्रस्तावना) 'अध्याय संख्या 1, 11, 12, 14 और 17-19 का अनुवाद डॉक्टर कृष्णदत्त शर्मा ने किया है, और शेष अध्यायों का डॉक्टर सीताराम ने।' (प्रस्तावना)

'ऑरिजिन ऑफ स्टेट इन इंडिया' किताब मूल रूप से अंग्रेजी में इतिहास विभाग, बम्बई विश्वविद्यालय से प्रकाशित हुई थी जिसका हिन्दी संस्करण (प्रथम) 1986 में पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली से छपा। इसके हिन्दी अनुवादक गोविन्द झा हैं।

संवाद की भाषा
'भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और महत्वपूर्ण दस्तावेज़', खंड-1 (1917-'39) को पुनर्पाठ हेतु निकाला। यह सीपीआइ (एमएल) लिबरेशन की 'प्रस्तुति' है। भूमिका और संपादन का दायित्व अरिंदम सेन व पार्थ घोष ने निबाहा है। 'कार्ल मार्क्स और उन्नीसवीं सदी का भारत' इसका शुरुआती अध्याय है। इस अध्याय की शुरुआती पंक्ति है, 'कार्ल मार्क्स ने, जिनकी भारत के प्रति रुचि उनकी भारतीय इतिहास पर नोट्स (अपूर्ण) जैसी रचनाओं से जाहिर होता है, पूंजी में कई स्थानों पर इस संसाधनों से भरे देश की ब्रिटेन द्वारा की जा रही लूट की चर्चा की है।' इस पंक्ति को पढ़कर मैं सहसा ठहर गया। मुझे लगा कि इस पंक्ति की भाषा में सहज प्रवाह का अभाव तो है ही, व्याकरणिक त्रुटि भी है। मुझे नहीं लगता कि जो राजनीतिक पार्टी जनता के साथ संवाद कायम करना चाहती है, उसे इस तरह की भाषा में अपने दस्तावेज़ तैयार कराने चाहिए। वैसे, यह एक पाठक की निजी राय है।

प्रेमचंद घर में
शिवरानी देवी की किताब 'प्रेमचंद घर में' का समर्पण पढ़ते हुए सोचता रहा कि नारीवादी विमर्शकार इसे कैसे पढ़ेंगे। उन्होंने लिखा है, 'स्वामी, तुम्हारी ही चीज तुम्हारे चरणों में चढ़ाती हूँ इस तुच्छ सेवा को अपनाना तुम्हारी दासी या रानी।'

सत्राची, दिसंबर 2016
सत्राची, दिसंबर 2016 अंक प्राप्त हुआ. कमलेश वर्मा, एस.एन. वर्मा, भैरव सिंह एवं आशुतोष पार्थेश्वर के लेख महत्वपूर्ण हैं. आशुतोष लिखते हैं, ‘चंपारण में एंड्रूज के भोजन के प्रसंग का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है’, (पृष्ठ 42) लेकिन लेख में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है. जितेन्द्र कुमार अपने लेख के ‘सन्दर्भ’ में इतिहासकार बिपन चन्द्र को आद्योपांत बिपिन/बिपीन चन्द्र लिखते हैं. (पृष्ठ 138) अर्चना कुमारी अपने शोध-आलेख को रश्मि प्रकाशन से मुद्रित कुमार परमानंद मिश्र की सामान्य ज्ञान की किताब ‘रत्नसागर सामान्य ज्ञान’ से प्रामाणिक बनाने की कोशिश करती हैं. अधिकतर शोधार्थियों ने ‘सन्दर्भ’ में पुस्तक के प्रकाशन/प्रकाशन वर्ष का उल्लेख नहीं किया है. ध्यान रहे कि इन छोटी-छोटी चीजों से शोध की विश्वसनीयता कम होती है.

आजकल : अगस्त 2017
आजकल : अगस्त 2017 में दिल्ली के वेंकटेश कुमार का 'राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन पर 1857 का प्रभाव' शीर्षक से एक लेख प्रकाशित है। इसमें कुछ फुटनोट संख्या हैं। पृष्ठ 37 पर 1 के बाद 12, 13, 14 और फिर पृष्ठ 41 पर फुटनोट संख्या 41, 42। इस तरह के बेतरतीब फुटनोट का क्या मतलब जबकि इनके बारे में अलग से कोई जानकारी/व्याख्या नहीं है। यह संपादक जयसिंह की अगंभीरता का लक्षण है। अगर यह गलती लेखक की है तो इसके गंभीर निहितार्थ हैं।

अभिलेख बिहार
बिहार की शोध पत्रिकाओ की स्थिति बहुत बुरी है। हर पृष्ठ से अगम्भीरता झांकती है। बिहार राज्य अभिलेखागार निदेशालय, बिहार सरकार, पटना से प्रकाशित पत्रिका 'अभिलेख बिहार' (अंक 6) देख रहा हूँ। कई आलेखों के शीर्षक तक में अशुद्धि रह गई है। प्रूफ की अशुद्धियां तो अनगिनत हैं। ऐसी शोध पत्रिकाओं की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता संदिग्ध है। और कीमत है 761 रुपये। भला कौन पढ़ेगा इसे?

लहक पत्रिका
'लहक' पत्रिका (जुलाई-सितंबर 2016) हाथ लगी है। ललक के साथ संतोष श्रीवास्तव का संस्मरण 'अधूरे ख्वाब की शहादत' पढ़ना शुरू किया। लिखा है, 'जब भी मैं टेलीविजन पर समाचार चैनल ''आज तक" देखती हूँ, कान ख़बरें सुनने से इंकार कर देती हैं, मन भर आता है। एक जिद्द-सी माहौल में कि उस आवाज को ढूंढ़ लाऊं जिससे बिछड़े बरसों बीत गए, लेकिन जो अब भी मेरे कानों में गूंजती है।' ....'वैसे सुना है अच्छे इंसानों की ईश्वर को भी ज़रूरत होता है।' समझ में नहीं आता कि ये पत्रिकाएं साहित्य और भाषा में से किसका भला कर रही हैं?

मंतव्य 8
'मंतव्य 8' में 'दलित : धर्म, दर्शन और डॉ. धर्मवीर' शीर्षक से सुरेश कुमार का एक लेख है। इसमें कंवल भारती का 'जनसत्ता' (25 अप्रैल, 2010) में प्रकाशित लेख 'बुद्धवाद की बेल' से एक उद्धरण है। पंक्ति है, 'जिस तरह बुद्ध ने अंगुलिमाल को हथियार डलवाकर सामंतवाद के खिलाफ उसके विद्रोह को शांत कर दिया था, उसी प्रकार दलितों के बुद्धवाद ने व्यवस्था के खिलाफ अम्बेदकर की सारी लड़ाई को ठंडा कर दिया है।' 'अंगुलिमाल का सामंतवाद के खिलाफ विद्रोह' वाली स्थापना मेरे लिए नयी है। मैं चमत्कृत महसूस कर रहा हूँ। अतः संपादक हरे प्रकाश उपाध्याय को बधाई!

 सुदीप्ति का लेख
‘आलोचना’ (जुलाई-सितम्बर 2007) में प्रकाशित सुदीप्ति का लेख ‘हिंदी साहित्य के इतिहास का एक गौण अध्याय : 19वीं सदी में खड़ी बोली कविता’ पढ़ने को मिला। आपने ‘आलोचना’ (पृष्ठ 113) में मुजफ्फरपुर के लक्ष्मी प्रसाद की खड़ी बोली हिंदी की एक कविता उद्धृत की है- ‘हाय छन न बिसरता है तेरा दुख मन से' जबकि बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना से प्रकाशित ‘हिंदी साहित्य और बिहार’ (चतुर्थ खंड, पृष्ठ 284-85) में इस कवितांश को मुजफ्फरपुर जिले के ‘मानपुरा’ (गोरौल) नामक स्थान के निवासी लक्ष्मीनारायण सिंह का बताया गया है.

पवन करण की कविता
नवंबर 2012 के 'हंस' में पवन करण की एक कविता छपी है-'क्या मैं तुम्हें बदला हुआ सा नहीं लगा.' यह अगर मेरा लिखा होता तो मैं इसे निरा गद्य कहता. फिर हरिशंकर परसाई को याद कर डरता हूँ कि 'कवि को अगर सब समझ जाए तो फिर कवि काहे का.' कविता का पहला टुकड़ा आप भी पढ़ें-'पहले जब तुम जाया करती थीं मुझसे दूर/कितनी बेसब्री से तुम्हारे फोन का इंतजार/किया करता था मैं वहां से जल्दी-जल्दी फोन/के लिए किया करता था तुमसे इसरार/कि तुम कैसी हो इतने दिन बाद फोन करती हो/क्या तुम्हें मुझसे बात करने की बेचैनी नहीं होती/उधर से लड़ियाते हुए तुम कहतीं कर तो रही हूँ/फोन करने घर से दूर जाना पड़ता है/ब्याह को दस साल हो गए मेरे, इस बीच दो बार/माँ भी बन चुकी मगर मेरी माँ है कि मुझे/अब भी बाजार तक अकेले नहीं आने देती/वे बिल्कुल नहीं बदलीं जहाँ तक कि पिता भी/और बाजार है कि कितना बदल गया'

एक मामूली आदमी का इंटरव्यू
फरवरी माह (2015) का 'हंस' अवधेश प्रीत की कहानी 'एक मामूली आदमी का इंटरव्यू' से पढ़ना शुरू किया. दो पृष्ठ पढ़ने के बाद लगा कि मैं हठयोग कर रहा हूँ. ओफ्फ ...'इन्नोवेटिव आइडिया' का इतना लम्बा आख्यान/व्याख्यान? हिंदी कहानी में मुश्किल से हिंदी के शब्द ! अंग्रेजी शब्दों की भरमार. कही -कही गलत प्रयोग भी-मसलन 'इंटरव्यू' का बहुवचन 'इंटरव्यूओं' आदि लिखना ........

Sunday, May 22, 2016

हम किताब कैसे पढ़ें


हिन्दी साहित्य में रचना और रचनाकार को जुदा-जुदा देखने की अविवेकी प्रवृत्ति है। लेकिन सवाल है कि क्या सिर्फ रचना के आधार पर, रचनाकार के परिवेश, उसके जीवन के उतार-चढ़ाव को जाने बगैर रचना के ‘अव्यक्त’ (गैप) को समझा जा सकता है ? यहां मैं गालिब के संदर्भ में पेश की गई विश्वनाथ त्रिपाठी की उक्ति का सहारा लेना चाहूंगा। वे कहते हैं, ‘जो लोग रचना और रचनाकार के जीवन की अंतःसूत्रता को नकारते हैं उन्हें गालिब की कविता और उनके पत्रों को ध्यान से पढ़ना चाहिए। अंतःसूत्रता स्वीकार करनेवालों को तो और ज्यादा।’1
वेदाध्ययन के संदर्भ में कहा जाता है कि ऋषि, देवता एवं छन्द को जाने बिना मंत्रार्थ खुलते नहीं हैं। महर्षि कात्यायन प्रणीत सर्वानुक्रमणी 2 तथा महर्षि शौनक कृत वृहद्देवता 3 में स्पष्ट लिखा है कि ऋषि, देवता एवं छन्द समझे बिना वेदार्थ का प्रयास करनेवाले का श्रम निरर्थक जाता है। यहां ऋषि का अर्थ है-कहनेवाले (यस्य वाक्यं स ऋषिः) का व्यक्तित्व। देवता का भाव है-प्रकृति की किस शक्तिधारा को लक्ष्य करके बात कही गयी है (या तेनोच्यते सा देवता)। छन्द का अर्थ है कि इसमें काव्यात्मकता किस शैली की है (यद् अक्षरपरिमाणं तच्छन्दः)।4
भर्तृहरि ने लिखा है कि शब्द और अर्थ का संबंध वक्ता की इच्छा के अधीन रहता है। प्रयोक्ता जिस शब्द को जिस अर्थ में प्रयोग करता है वही अर्थ उसे मिल जाता है। अतः शब्द और अर्थ का संबंध वास्तविक नहीं है, काल्पनिक और असत्य है।5 कबीर के संबंध में कहा ही जाता है कि भाषा को वह अर्थ देना पड़ता था जो कबीर उससे निकलवाना चाहते थे। ब्लूमफील्ड वक्ता की मनःस्थिति के संदर्भ में ही अर्थ की चर्चा और परिभाषा करते हैं।6
यह अभिव्यक्ति किसकी है, यह बात बहुत महत्त्व रखती है। ‘मेरे जैसा पापी कोई नहीं’ (मत्समः पातकी नास्ति) यह वाक्य किसी अपराधी या कुंठित व्यक्ति का है तो बात और है, किन्तु जब जगद्गुरु आचार्य शंकर यह बात बोलते हैं, तो अध्येता एकदम चैंकता है। आचार्य के स्तर को वह जानता है, इसलिए वाक्य का अर्थ हीन प्रसंग में नहीं, उच्च आध्यात्मिक/दार्शनिक संदर्भ में निकालता है। यदि वक्ता का स्तर पता न हो, तो गूढ़ उक्तियों के बारे में मतिभ्रम स्वाभाविक है। भावों की गहराई तक पहुंचने में छन्द भी सहायक होते हैं। ‘चींटी पाँवे हाथी बाँध्यो’ उक्ति सामान्य रूप से उपहास जैसी लगती है, किन्तु यह कबीर की उलटबासी है, यह सोचते ही बुद्धि के कपाट स्वतः खुल जाते हैं।7
अर्थ-परिवर्तन में जाति, धर्म, लिंग आदि की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इसे बौद्ध और निम्नकुलीय मौर्य शासक अशोक के प्रति ब्राह्मणों के ‘विद्वेष’ से ‘देवानांप्रिय’ शब्द में आये अर्थ-परिवर्तन से भी समझा जा सकता है। वी. ए. स्मिथ के मतानुसार ‘देवानांप्रिय’ आदरसूचक पद है और इसी अर्थ में राधाकुमुद मुखर्जी ने भी इसका प्रयोग किया है। किंतु ‘देवानां-प्रिय’ शब्द (देव-प्रिय नहीं) पाणिनि के एक सूत्र8 के अनुसार अनादर का सूचक है। कात्यायन इसे अपवाद में रखता है। पतंजलि और यहां तक कि काशिका भी इसे अपवाद मानता है। पर इन सब के उत्तरकालीन वैयाकरण भट्टोजीदिक्षित इसे अपवाद में नहीं रखते। वे इसका अनादरवाची अर्थ ‘मूर्ख’ ही करते हैं। उनके मत से ‘देवानांप्रिय’ ब्रह्मज्ञान से रहित उस व्यक्ति को कहते हैं जो यज्ञ और पूजा से भगवान को प्रसन्न करने का प्रयत्न करता है, जैसे गाय दूध देकर मालिक को। इस प्रकार, एक संज्ञा जो नंदों, मौर्यों और शुंगों के युग में आदरवाची थी, मौर्य राजा अशोक के प्रति ब्राह्मणों के दुराग्रह के कारण अनादरसूचक बन गई।9 बौद्ध शब्द से विकसित बुद्धू शब्द के अर्थ के बारे में यही बात कही जा सकती है।10
असुर शब्द का संस्कृत में देवता से परिवर्तित होकर राक्षस अर्थ प्रयोक्ताओं की विशेष मानसिक स्थिति का परिणाम है। ऋग्वेद की आरंभिक ऋचाओं में असुर शब्द देवतावाचक है। किन्तु संभवतः पारसियों से संबंध अच्छे न रह जाने के कारण भारतीय आर्यों ने असुर शब्द को, जो पारसियों के प्रधान देवता (अहुरमज्दा) का वाचक था, राक्षस के अर्थ में प्रचलित कर लिया।11 जैन लेखक विमल सूरी की प्राकृत रामायण ‘पउमाचरियम’ की मानें तो ब्राह्मण ग्रंथों का यह राक्षस दानव नहीं है। यहां राक्षस शब्द ‘रक्ष’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है रक्षा करना।12
इस तरह, परिवर्तन न सिर्फ प्रकृति का नियम है अपितु भाषा में भी काल-सापेक्ष परिवर्तन देखा गया है। फलस्वरूप जब हम गुजरे जमाने की रचनाओं को पढ़ते हैं तो उनके शब्द कई बार हमें भ्रमित और चकित करते हैं क्योंकि आज उनके अर्थ वही नहीं होते जो रचना के लिखे जाने के समय थे। कभी-कभी शब्दार्थ इतनी तेजी से बदलते हैं कि महज दो पीढ़ी का अंतर भी इतिहास का विशाल काल-खंड प्रतीत होता है।13 निरुक्तकार यास्क ने भी वेद के लगभग 400 ऐसे शब्द गिनाये, जिनका अर्थ उन्हें नहीं पता था।14 जब शब्दार्थ का यह हाल है, तो भावार्थ तो और भी गूढ़ होते हैं।
संस्कृत उपेक्षितव्याः का मूल अर्थ है, ‘समीप जाकर देखना चाहिए’। बाद में इसका अर्थ तिरस्कार हो गया। परन्तु ‘निरुक्त’ में यह पुराने अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।15 आंखों के निकट रहने से अनादर होता ही है, संभवतः इस तरह यह अर्थ आया।16 अतिथि का अर्थ था जो घरों में जाता है अथवा जो निश्चित तिथियों में दूसरों के परिवार में या घरों में जाता है।17 आज हिन्दी ने उसका बिल्कुल बदला हुआ अर्थ ग्रहण किया है।
संस्कृत भ्रातृव्य शब्द का मूल अर्थ था भ्राता का पुत्र। आगे चलकर वह शत्रु मात्र के लिए प्रयुक्त होने लगा।18 कभी पड़ोसी राजा को अरि कहा जाता था।19 संस्कृत धान्य शब्द का मूल अर्थ अनाज है। हिन्दी में धनधान्य आदि शब्दों में धान्य का अन्न अर्थ अब भी निहित है। कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में भी धान्य शब्द विविध रूपों में मिलता है।20 लेकिन संस्कृत में ही कालांतर में धान्य शब्द चावल संबंधी अर्थ में सीमित हो गया। कीथ और मैकडानल के अनुसार ऋग्वेद में यव शब्द केवल जौ का वाचक नहीं बल्कि अन्न मात्र का वाचक है21 जैसे ‘अवासृतज सर्तवे सप्त सिन्धून्’22 (सात नदियों को बहने के लिए छोड़ा) लेकिन कालांतर में यह नदी विशेष के अर्थ में सीमित हो गया। आरंभ में गमनशीलता के कारण संस्कृत में पृथ्वी को गौ कहा गया होगा। इसी कारण गाय और वाणी को भी गौ संज्ञा प्राप्त हुई। इससे निस्संदेह अनिश्चितता का माहौल बना होगा। फलस्वरूप संस्कृत भाषाभाषियों ने इस शब्द को गाय के अर्थ में रूढ़ कर दिया।23
संस्कृत में साहस शब्द का प्रयोग अधिकांशतः लूट, हत्या, व्यभिचार आदि के अर्थ में हुआ है। बृहस्पतिस्मृति साहस के चार प्रकारों का वर्णन करती है-‘मनुष्यमारणं चौर्यं परदाराभिमर्शनम्। पारुष्यमुभयं चेति साहसं स्याच्चतुर्विधिम्।।’ धर्मग्रंथों ने साहस को दण्डविधि का महान अपराध बताया है। हिन्दी में साहस शब्द संपूर्णतः ‘हिम्मत’ का वाचक हो गया है।24 पुंगव शब्द का अर्थ था बैल अब वह श्रेष्ठता का वाचक है। नरपुंगव में श्रेष्ठतावाचक ही है।25 घृणा शब्द का प्रयोग प्रायः दया अथवा अनुकम्पा के अर्थ में हुआ है। धीरे-धीरे संस्कृत में ही वह नफरत का वाचक बन गया। हिन्दी में भी उसका प्रयोग इसी अर्थ में होता है।26
अंग्रेजी के लेडी शब्द का मूल अर्थ था रोटी बनानेवाली। चूँकि रोटी बनाने का काम मुख्यतः स्त्रियां ही करती थीं, इसलिए लेडी शब्द स्त्रीमात्र के लिए प्रयुक्त होने लगा।27 स्कूल शब्द ग्रीक schole से बना है जिसका अर्थ होता है अवकाश। आज उसका अर्थ विद्यालय है।28 शेक्सपीयर के मैकबेथ में प्रयुक्त ‘A modern ecstasy’ में modern का अर्थ आधुनिक की बजाय साधारण है और ecstasy एक प्रकार का मतिभ्रम।29 Knight का मूल अर्थ था नौकर और Nice का मूल अर्थ मूर्ख था।30 Prevent, Magistrate, Nice, Silly, tabby, Democracy, Clerk जैसे अनगिनत शब्द हैं जिनके अर्थ पूरी तरह से बदल चुके हैं।31
स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में भारतीय विश्वविद्यालय के कुछ छात्रावासों में इंगलैंड शब्द का प्रयोग शौचालय के अर्थ में होता रहा है।32 1857-58 में मंगल पाँडे के नाम पर पाँडे शब्द का अर्थ क्रांतिकारी सिपाही हो गया। चाल्र्स बाॅल और लाॅर्ड राॅबर्ट्स दोनों लिखते हैं कि मंगल पाँडे की फाँसी के दिन से 1857-58 के समस्त क्रांतिकारी सिपाहियों को मंगल पाँडे के नाम से पुकारा जाने लगा।33
शब्द के अर्थ बदलते हैं क्योंकि हमारा ज्ञान बदलता है। शेक्सपीयर की रचनाओं में धरती, पानी, हवा और आग तत्त्व हैं,34 ठीक जैसे तुलसीदास के यहां क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर हैं। इसलिए रचना के साथ-साथ शब्दों को भी एक खास ऐतिहासिक संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है। इस जरूरत को ध्यान में रखकर ही अंग्रेजी के पुराने लेखकों की कृतियों को व्याख्यात्मक टिप्पणियों के साथ प्रकाशित किया जाता है। हिन्दीवाले ऐसा महसूस करेंगे, संदेह है।
संदर्भ एवं टिप्पणियां:
1. विश्वनाथ त्रिपाठी, आजकल, दिसंबर 1997।
2. कात्यायन, सर्वानुक्रमणी 1.1।
3. वृहद्देवता 8.132।
4. ऋग्वेद सर्वानुक्रमणी 2.6; भगवती देवी शर्मा, ‘भूमिका’, ऋग्वेद संहिता (संपादक: पं. श्रीराम शर्मा आचार्य), भाग 1, प्रकाशक: युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट, मथुरा, सन् 2015, पृष्ठ 9।
5. प्रयोक्तैवाभिसन्धत्ते साध्यसाधनरूपताम्। अर्थस्य वाभिसम्बन्ध कल्पनां प्रसमीहते।। वाक्यपदीय, 2, 435।
6. लैंग्वेज, पृष्ठ 139; जयकुमार ‘जलज’, ऐतिहासिक भाषाविज्ञान: सिद्धांत और व्यवहार, हिन्दी समिति, लखनऊ, प्रथम संस्करण: 1972, पृष्ठ 143।
7. भगवती देवी शर्मा, ‘भूमिका’, ऋग्वेद संहिता (संपादक: पं. श्रीराम शर्मा आचार्य), भाग 1, प्रकाशक: युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट, मथुरा, सन् 2015, पृष्ठ 9।
8. पतंजलि आॅन पाणिनीज ग्रामर, 6. 3. 21।
9. राधाकुमुद मुखर्जी, अशोक, मोतीलाल बनारसीदास, पटना, अंग्रेजी के तृतीय संस्करण 1962 का हिंदी रूपांतर, प्रथम संस्करण, 1974, पृष्ठ 90।
10. जयकुमार जलज, पूर्वोद्धृत, 165।
11. वही, पृष्ठ 160।
12. रोमिला थापर, ‘प्राचीन भारत में सांस्कृतिक आदान-प्रदान’, सांचा, फरवरी, 1988; रोमिला थापर, ‘रामायण: वस्तु और रूपान्तर’, सांचा, मार्च, 1988।
13. मार्जोरी बोल्टन, ‘वर्ड्स दैट हैव चेंज्ड’, आस्पेक्ट्स आॅफ इंगलिश प्रोज (संपादक: के.एम. तिवारी/आर.सी.पी. सिन्हा), विकास पब्लिशिंग हाउस, 1988, पुनर्मुद्रण: 2000, पृष्ठ 110।
14. भगवती देवी शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 10।
15. उमा शंकर शर्मा ऋषि, हिन्दी निरुक्त, पृष्ठ 6।
16. सत्यव्रत, ‘सेमैंटिक्स इन संस्कृत’, पूना ओरिएण्टलिस्ट, जनवरी, 1959; उमा शंकर शर्मा ऋषि, पूर्वोद्धृत।
17. उमा शंकर शर्मा ऋषि, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 105।
18. जयकुमार जलज, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 163।
19. हजारी प्रसाद द्विवेदी का चारुचन्द्र लेख देखें; और देखें, जयकुमार जलज, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 163।
20. व्यवहार कोश, पृष्ठ 2-3।
21. वैदिक इंडेक्स (यव)।
22. ऋग्वेद 2.12.12।
23. जयकुमार जलज, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 158।
24. वही, पृष्ठ 165।
25. वही, पृष्ठ 166।
26. वही, पृष्ठ 167।
27. वही, पृष्ठ 160।
28. द ट्री आॅफ लैंग्वेज, पृष्ठ 185, 187।
29. मार्जोरी बोल्टन, ‘वर्ड्स दैट हैव चेंज्ड’, आस्पेक्ट्स आॅफ इंगलिश प्रोज (संपादक: के.एम. तिवारी/आर.सी.पी. सिन्हा), विकास पब्लिशिंग हाउस, 1988, पुनर्मुद्रण: 2000, पृष्ठ 110।
30. ए डिक्शनरी आॅफ सेलेक्टेड सिनोनिम्स इन द प्रिंसिपल इण्डो-यूरोपीयन लैंग्वेजेज, प्रस्तावना, पृष्ठ 8।
31. मार्जोरी बोल्टन, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 110।
32. जयकुमार जलज, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 160।
33. सुन्दरलाल, भारत में अंग्रेजी राज, द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 831; जयकुमार जलज,
पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 156।
34. मार्जोरी बोल्टन, पूर्वोद्धृत।

Thursday, November 5, 2015

किताबों के बारे में टिप्पणियां




भूख में खाया हुआ भोजन पौष्टिक होता है।आप चैंके नहीं। यह आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की कोई नवीन खोज नहीं है बल्कि पब्लिक स्कूलों में बच्चों को पढ़ाई जानेवाली हिंदी की पाठ्य-पुस्तक की एक पंक्ति है। हालांकि शुरू में यह सुनकर कुछ क्षणों के लिए मैं भी भौंचक्का रह गया था। हुआ यह कि किसी दिन मैंने चैथी कक्षा (फिलहाल डी.यू.,से अंग्रेजी में एम.ए.कर रहा है) में पढ़ रहे बेटे को पकड़ लिया और बच्चों में कुपोषण की बढ़ती समस्या पर लेक्चर झाड़ना शुरू कर दिया। बेटे ने सहज ही प्रतिवाद किया कि पापा, कुपोषण की समस्या तो हमारी गलत जीवन-शैली से पैदा होती है। इसकी जड़ में अशिक्षा है। गरीबी से भला आप किस तरह जोड़ रहे हैं ?’ मैंने उसे एकबार फिर समझाने की कोशिश की तो उसे भी हथियार से लैस पाया। उसके हाथ में सोम सुधा प्रकाशन’, नई दिल्ली से चैंथी कक्षा के लिए प्रकाशित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक थी। मेरे सामने लगभग पटकते हुए उसने रखा और उस हिस्से पर उंगली रखी जहां वेद-वाक्य की तरह छपा था, ‘भूख में खाया हुआ भोजन पौष्टिक होता है।मुझे समझते तनिक देर न लगी कि मेरे बेटे का तर्क इसी पुस्तक के ज्ञानसे पैदा हुआ है। इसके बाद मैंने सचेत होकर उस पुस्तक को पढ़ना शुरू किया तो गलतियों और अशुद्धियों का अंबार पाया। मैं अंदर ही अंदर खीझ रहा था कि आखिर वे कौन-से लोग हैं जो हमारे बच्चों के जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं ? इसी गुस्से में एक दिन विद्यालय चला गया जहां यह टेक्स्ट-बुक मजे में चलाया जा रहा था। इस बात को जानकर कि यहां के निदेशक की शिक्षा जे.एन.यू. से हुई है, मेरी पीड़ा का ठिकाना न रहा। निदेशक ने अत्यंत ही सहज भाव से कहा, ‘इस वर्ष यह गलती से लग गई है। ...ऐसे प्रकाशकों पर तो मुकदमा चलना चाहिए।मैंने प्रकाशक को भी लिख भेजा लेकिन पत्रोत्तर न आया। ये सारी स्थितियां अंत में एक ही सवाल छोड़ जाती हैं कि यह सब क्यों और कैसे हो रहा है ?
सत्यभक्त और साम्यवादी पार्टी
कर्मेंदु शिशिर जी योजनाबद्ध लेखन करते हैं. उनका यह गुण मुझमें ईर्ष्या का भाव जगाता है. उन्होंने हिंदी नवजागरण से संबद्ध कई लेखकों पर लिखा है. निश्चित रूप से यह काम महत्वपूर्ण है. इसी क्रम में उन्होंने नवजागरण की दुर्लभ पत्र-पत्रिकाओं के अरण्य में गहरी छानबीनके बाद सत्यभक्त और साम्यवादी पार्टीसम्पादित की है. शिशिर जी को पता है कि सत्यभक्त के व्यक्तित्व में अंतर्विरोध थे और बहुत साफ-साफ दिखते भी थे.’ (पृष्ठ ३०) जो दिखावह यह कि उनकी भारतीयता आध्यात्मिकता तक पहुँच जाती थी’ (पृष्ठ ३०) और जो नहीं दिखावह था भारत में मुसलमान का अभारतीयहोना. सत्यभक्त लिखते हैं, ‘हिंदुस्तान की हालत इस समय बड़ी शोचनीय हो रही है. एक हजार सालों से यह विदेशियों के पैरों तले कुचला जा रहा है.’ (पृष्ठ ५२) सत्यभक्त की भारतीयताकी यह भारतीय दृष्टिकर्मेंदु शिशिर जी की दृष्टि से शायद ओझल है ! अन्यथा वे अखण्ड ज्योतिसे उनके (सत्यभक्त के) जुड़ाव को दलित कन्या (मेहतरानी) के साथ विवाह की परिणति के रूप में न देखते. (पृष्ठ २९)
डाक्टर रामचंद्र ठाकुर ने हिस्ट्री ऑफ जर्नलिज्म इन बिहार’ (१८६६-१९१९) मेंलक्ष्मीमासिक पत्रिका को १९०२ में लाला भगवान दिन के संपादन में लक्ष्मी प्रेस, गया से प्रकाशित हुआ बताया है (पृष्ठ ५९). इनका दावा है कि इन्होंने उक्त पत्रिका की जुलाई १९०२ की मूल प्रति देखी है (पृष्ठ ६६, पाद टिप्पणी संख्या ८१). हालाँकि श्री अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ने समाचार पत्रों का इतिहासमें लक्ष्मीका प्रकाशन वर्ष १९०३ लिखा है (पृष्ठ २४१). रामजी मिश्र मनोहरने भी बिहार में हिंदी-पत्रकारिता का विकासमें प्रकाशन वर्ष १९०३ ही बताया है (पृष्ठ ५९).
दरअसल इसकी कहानी है कि गया जिले के कूसी’ (औरंगाबाद) ग्राम के निवासी लक्ष्मीनारायण लाल ने आयुर्वेद-प्रचार के लिए सन् 1903 ई. में एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, जिसका नाम लक्ष्मी-उपदेश-लहरीरखा गया था (‘हिंदी साहित्य और बिहार’, चतुर्थ खण्ड, पृष्ठ 100). इसके प्रथम संपादक श्री अखौरी शिवनन्दन प्रसाद बहारथे. श्री बहार ने एक वर्ष तक उसका संपादन किया. तदन्तर मध्यदेश के सागर-मण्डलांतर्गत देवरीनिवासी श्री गोरेलाल मंजु सुशील ने उसका संपादन भार संभाला. इनके समय में पत्रिका की विशेष उन्नति हुई. अत्यधिक प्रचार के बाद पत्रिका अपने साहित्यिक रूप में प्रतिष्ठित हुई (जयंती स्मारक ग्रंथ’, पृष्ठ 585; ‘हिंदी साहित्य और बिहार’, चतुर्थ खण्ड, पृष्ठ 100, पा.टि. 1). जब लक्ष्मी प्रेसका स्थानांतरण गया नगर में हुआ, तब पत्रिका का नाम केवल लक्ष्मीरह गया. इसी समय सुशील जी का असामयिक निधन हो गया. इनके अचानक दिवंगत होने से पत्रिका का बड़ा अहित हुआ. इनके निधनोपरांत बुन्देलखण्ड निवासी श्री लाला भगवान दीन जी ने इसके संपादन का भार अपने कंधों पर लिया. इसके पूर्व वे हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी के हिंदी विभाग में प्राध्यापक थे. लाला भगवान दीन जी के बाद आरा निवासी पं. ईश्वरीप्रसाद शर्मा और श्रीरामानुग्रह नारायण लाल, बी.ए. क्रमशः इसके संपादक हुए. लक्ष्मीअपने जमाने की एकमात्र साहित्यिक पत्रिका गिनी जाती थी. इस पत्रिका के संबंध में श्रीस्वामी सत्यदेव तथा म.म.पं. सकलनारायण शर्मा ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की थी. अमेरिका प्रवासी स्वामी सत्यदेव ने एक पत्र में लक्ष्मीकी प्रशंसा करते हुए लिखा था : ‘‘गया की लक्ष्मीहिंदुस्तान के सामयिक पत्रों में अपना खास स्थान रखती है. प्रायः सभी लेख और कविताएं उपयोगी और शिक्षाप्रद हैं. संस्थापक महोदय अवश्य प्रशंसा के पात्र हैं।’’ म.म.पं. सकलनारायण शर्मा ने एक बार प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति पद से भाषण करते हुए कहा था:रायसाहब लक्ष्मीनारायण लाल जी बिहार के उन हिंदी प्रमियों में हैं, जो हिंदी के लिए प्रतिवर्ष पानी की तरह रुपये बहाते हुए कुण्ठित नहीं होते’ (त्रैमासिक साहित्य’, पृष्ठ 41; ‘हिंदी साहित्य और बिहार’, चतुर्थ खण्ड, पृष्ठ 100, पा.टि. 2). रामचंद्र ठाकुर ने अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ जर्नलिज्म इन बिहार (१८६६-१९१९)' में 'क्षत्रिय पत्रिका' का प्रकाशन-वर्ष १८८० बताया है (पृष्ठ २८) जो सही नहीं प्रतीत होता. १८८० में दरअसल इस पत्रिका का विज्ञापन निकला था और इसका प्रथम अंक निकला १९ मई १८८१ को. डाक्टर धीरेन्द्रनाथ सिंह (आधुनिक हिंदी के विकास में खड्गविलास प्रेस की भूमिका,पृष्ठ १६६) ने इसी तिथि को सही बताया है. कहना होगा कि डाक्टर सिंह का निष्कर्ष अत्यंत प्रामाणिक स्रोत यथा पत्रिका की फाइल, डायरी आदि पर आधारित है जबकि डाक्टर ठाकुर ने 'रिपोर्ट ऑन नैटिव न्यूजपेपर्स इन बंगाल १८८२' को आधार बनाया है.

पिछले दिनों मगही लोक काव्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन पर एक बृहदाकार पुस्तक का लोकार्पण हुआ. कहा जाता है कि इसके लेखक पहले कोई बड़े पद पर थे और किसी घोटाले में संलिप्त थे. अतः नौकरी से असमय ही छुट्टी ले ली. अब वे 'प्रायश्चित' के लिए पैसे पर 'लेखक' खरीदते हैं और पुस्तकों के 'स्वामी' बनते हैं. मुझे चिंता उस 'अदृश्य' लेखक की है. उसकी क्या मज़बूरी है? दूसरों के लिए लिखना कोई हंसी-खेल नहीं है. किताब देखने से लगा कि 'अदृश्य' लेखक ने किताब को अच्छा खासा समय और श्रम दिया है.
स्वतंत्रता संग्राम में बिहार के बलिदानी
 स्वतंत्रता संग्राम में बिहार के बलिदानीपुस्तक में कुछ महत्वपूर्ण नाम इसमें नहीं आ सके हैं. महेंद्र चौधरी ऐसे ही एक राजनीतिक कैदी का नाम है जिसे डाकाजनी और हत्या के अपराध में ७ अगस्त, १९४५ को भागलपुर केन्द्रीय जेल में फांसी दी गई थी.
पब्लिक स्कूल के नाम पर लूट मची है. चौथी कक्षा के लिए आर.टी.पब्लिशर्स (दिल्ली) द्वारा प्रकाशित 'वरदायिनी' देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. पता नहीं प्रकाशक की कौन-सी मज़बूरी थी कि सारी की सारी कविताएँ एक ही 'स्वनामधन्य' कवयित्री 'रचना गर्ग' की लगा दीं. कवयित्री को तो यह भी नहीं पता कि नाम अवतरण चिह्न (इन्वर्टेड कौमा) के भीतर नहीं होता. उनसे प्रकाशक ने कहा होता कि वे अपनी कविताएँ लगाने की बजाय भाषा की शुद्धता पर ध्यान केन्द्रित करती.
धर्मनिरपेक्षता की कहानी गढ़ते हुए हम कई बार अवैज्ञानिक तक हो चले हैं. आज भी कबीर के बारे में यही पढ़ा रहे हैं--'कहते हैं कि उनकी मृत्यु के पश्चात् हिन्दुओं और मुसलमानों में झगड़ा हो गया. हिन्दू और मुस्लमान दोनों ही अपने-अपने धर्म के अनुसार उनका दाह-संस्कार करना चाहते थे. परन्तु जब उनके शव से कपड़ा उठाया गया तो शव के स्थान पर फूल थे. आधे फूलों की हिन्दुओं ने समाधि बनाई और आधे की मुसलमानों ने कब्र.' (वरदायिनी, आर.टी. पब्लिशर्स, दिल्ली, प्रथम संस्करण २०१५, पृष्ठ १२०)
'भारत का गहराता कृषि संकट और किसानों की आत्महत्याएं'
सियाराम शर्मा अपनी साम्य-पुस्तिका 'भारत का गहराता कृषि संकट और किसानों की आत्महत्याएं' में लिखते हैं कि 'मीडिया का दूसरा सशक्त माध्यम पिपली लाइव जैसी संवेदनहीन फिल्मों के माध्यम से किसानों की गंभीर त्रासदी को हंसी मजाक का विषय बना देने की कोशिश कर रहा है. किसानों के चरित्र और व्यवहार को हास्यास्पद, बदनाम और अपमानित करने वाली ऐसी फ़िल्में किसी सामाजिक समस्या के प्रति मीडिया की भोथरी दृष्टि के साथ उसके तिरस्कारपूर्ण रवैये को भी उजागर करती है.' मैं शर्मा जी के इस आकलन से सहमत नहीं हूँ. और आप ?
हिंदी साहित्य और बिहार', प्रथम खंड, पृष्ठ 126, पादटिपण्णी-3, में लिखा है, 'अंगरेजों का विश्वास है कि जहाज या नाव पर यदि कोई यहूदी हो, तो अवश्य उपद्रव होगा.' इस बात का कोई अन्य लिखित प्रमाण मिलता है क्या ?
'बिहार थ्रू द एजेज' अपने समय की शानदार किताब है लेकिन उसकी कई गंभीर सीमाएं है. मसलन, जब संस्कृत साहित्य को आधुनिक बिहार का योगदान की बात आती है तो महज दो लेखक की चर्चा कर लेखक बच निकलता है. दो से अधिक पृष्ठ केवल रामावतार शर्मा पर जाया किया जाता है, बिहार गायब है.
 बिहार स्टेट टेक्स्टबुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन लिमिटेडद्वारा कक्षा ग्यारह के लिए इतिहास की पाठ्यपुस्तक विश्व इतिहास के कुछ विषय’ (प्रथम संस्करण : 2007, पुनर्मुद्रण : 2008) तैयार करवाई गई है. पाठ्यपुस्तक निर्माण समितिके सदस्यों के नाम-पदनामछापने में पूरा एक पृष्ठ जाया हुआ है. नीलाद्रि भट्टाचार्य उक्त समिति के मुख्य सलाहकार हैं. विश्व इतिहास का अध्ययनशीर्षक से दो पृष्ठ की उनकी भूमिका भी है. उसकी कुछ पंक्तियाँ यहाँ देखें : (1) ‘‘नए इतिहासकार को अब कुछ ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिन्हें पहले अनदेखा कर दिया गया था. वे इन प्रमाणों की व्याख्या करती हैं, नए अंतर्संबंध कायम करती है और इस तरह से एक नयी किताब लिख डालती हैं.’’ (2) ‘‘अक्सर किन्हीं विशेष घटनाओं का इतिहास पश्चिम की विजयी यात्रा की बड़ी कहानी का ही हिस्सा था.’’ (3) ‘‘इस यात्रा में विश्व इतिहास के कुछ विषय आपकी मदद करेगी’’. (4) ‘‘सबसे पहले यह पुस्तक विकास और प्रगति की महान कहानियों के पीछे छुपे ज्यादा अँधेरेइतिहासों से आपका परिचय कराएगी’’.
दिल्ली विश्वविद्यालय के अधीन हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय है. इसकी स्थापना हिंदी माध्यम से सामाजिक विज्ञान आदि विषयों की पढाई कर रहे छात्रों को मानक पुस्तकें उपलब्ध कराने के उद्देश्य से की गई थी. देव राज चानना की पुस्तक 'प्राचीन भारत में दास प्रथा' २००९ में पुनर्मुद्रित होकर आई है. इसे बहुत सावधानी के साथ पढ़ने की जरूरत है. कहने की जरूरत नहीं कि किताब को कूड़ा बना दिया गया है. एक-दो उदाहरण से आप समझें. लेखक का नाम कहीं देवराज चानना है तो कहीं देव राज चानना. शांतिपर्व कई जगह शांतिपूर्ण छपा. पुस्तक में आद्योपांत सूची, 'सूचि' है. पूरी पुस्तक में अगम्भीरता का 'मानक' प्रदर्शित किया गया है.
वीरेंद्र कुमार बरनवाल की राजकमल प्रकाशन से जिन्ना : एक पुनर्दृष्टिकिताब है. उक्त पुस्तक के खंड : १का ६ठा अध्याय माउन्टबैटन के हिंदुस्तान आगमन से विभाजन और देहावसान तकलैरी कॉलिन्स/डोमिनिक लेपियर की पुस्तकमाउन्टबैटन एंड द पार्टीशन ऑफ इंडिया’ (विकास पब्लिशिंग हॉउस, १९८२) का लगभग अनुवाद है. अनुवाद के क्रम में कुछ जरूरी बातें छुट गई हैं अथवा छोड़ दी गई हैं जिससे भ्रम की स्थिति पैदा होती है. पृष्ठ ३१९ पर लिखा है, ‘‘ध्यातव्य है कि एडविना अपने पति लॉर्ड माउंटबैटन को प्यार से डिकीकहती थीं.’’ तथ्य यह है कि डिकीनाम से न केवल एडविना और माउंटबैटन के परिवार के लोग बल्कि उनके मित्र भी बुलाते थे. लॉर्ड इस्मे भी इसी नाम से बुलाते थे. माउन्टबैटन एंड द पार्टीशन ऑफ इंडिया’, पृष्ठ ११ की पादटिप्पणी में यह पंक्ति ध्यातव्य है : ‘Dickie was the nickname given to Mountbatten by his family and intimate friends’.
अल्तेकर 
 ‘The Purdah system, in all probability, was unknown in ancient India. Its general adoption is subsequent to the advent of Muslims in India....The Hindus adopted purdah as a protective measure. The tendency to imitate the ruling class was another factor.’ ये पंक्तियाँ गुरू गोलवरकर की नहीं, प्राचीन भारत के मान्य इतिहासकारों में लगभग सर्वाधिक पढ़े गये इतिहासकार ए.एस. अल्तेकर की हैं. अल्तेकर यह कैसे भूल जाते हैं कि प्राचीन भारत की अन्तःपुर की नारियां, ‘पतिव्रताऔर सतीस्त्रियाँ असूर्यम्पश्य (सूर्यमपि न पश्यति) हैं. अन्तःपुर की रानियों के बारे में कहा जाता है कि उन्हें सूर्य देखना भी दुर्लभ था. पर्दा का यह रूप अल्तेकर को नहीं दिखा क्योंकि वे इसका तार मुसलमानों का आगमन और उनकी ज्यादतियों के साथ जोड़ते हैं. वे जीवित होते तो मैं पूछता कि जनाब, पर्दा और प्रोटेक्टिव मेजर का क्या घपला है ?' यह भी कि प्रोटेक्टिव मेजरकेवल मुसलमानों के विरुद्ध था अथवा हिन्दू राजाओं के विरुद्ध भी था ?’ संस्कृत के मर्मज्ञ अल्तेकर ने इस प्रसंग को अवश्य पढ़ा होगा--- वाग्भट्ट अनहिलपट्टन के राजा जयसिंह के महामात्य थे। इन्हें अपने इस महामात्यत्वकामहामूल्यचुकाना पड़ा है। इनकी एक पुत्री थी, परम सुन्दरी, परम विदुषी और अपने पिता के सदृश कविप्रतिभाशालिनी। जब वह विवाह योग्य हुई तो उसे बलात् इनसे छीनकर राजप्रासाद की शोभा बढ़ाने के लिए भेज दिया गया। न वाग्भट्ट इसके लिए तैयार थे और न कन्या। पर अप्रतिहता राजाज्ञाके सामने दोनों को सिर झुकाना पड़ा। बिदाई के समय की कन्या की इस उक्ति को जरा देखिए। राजप्रासाद के लिए प्रस्थान करते समय कन्या अपने रोते हुए पिता को सान्त्वना देते हुए कह रही है-तात वाग्भट्ट! मा रोदीः कर्मणां गतिरीदृशी।दुष् धातोरिवास्माकं गुणो दोषाय केवलम्।।व्याकरण प्रक्रिया के अनुसार दुष् धातु को गुण होकर दोषपद बनता है दुष्धातु के गुणका परिणाम दोषहै। इसी प्रकार हमारे सौन्दर्य-गुणका परिणाम यह अनर्थ है और अत्याचाररूपदोषहै। इसलिए हे तात्! आप रोइए नहीं, यह तो हमारे कर्मों का फल है कि दुष् धातु के समान
हमारा गुण भी दोषजनक हो गया।देखें, मम्मट, ‘काव्यप्रकाश’ (हिंदी व्याख्या : आचार्य विश्वेश्वर सिद्धांतशिरोमणि), ज्ञाणमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, पुनर्मुद्रित संशोधित संस्करण : 1998, पुनर्मुद्रण, जुलाई 2006, पृष्ठ 80-81।)