Tuesday, July 27, 2010

पंकज की कविता में दलित विमर्श

इतिहास और समाजशास्त्र में अवधारणात्मक परिवर्तन से साहित्य के मानदंडों अथवा प्रतिमानों में भी महान फेरबदल होते देखे जाते हैं। मार्क्सवादी इतिहास-लेखन ने ‘नीचे से इतिहास’ लिखने की परिपाटी की अच्छी शुरुआत की थी और अभिजातवर्गीय दृष्टिकोण की कई मान्यताओं की कई असंगतताएं भी उद्घाटित की थीं। इसके ठीक बाद ‘सबाल्टर्न स्टडीज’ के उद्घोषकों ने इसे भी अपर्याप्त बताते हुए ‘निम्नवर्गीय प्रसंग’ की खोज-बीन जारी की और इतिहास-लेखन की ‘केन्द्रीय सत्ता’ पर धावा बोला। फलतः इतिहास गढ़नेवालों की एक बड़ी फौज इतिहास रचने के पुनीत कर्म में भागीदार हुई और नये-नये विमर्श शुरू हुए। कहना होगा कि इतिहास-लेखन के इस नये ‘ट्रेंड’ के तहत इतिहास में स्त्रियों एवं दलितों की भूमिका को रेखांकित किया गया। यह समाज का वैसा तबका था जो अब तक इतिहास की मुख्यधारा से अलग-थलग नजर आता रहा था। विडंबना कहिए कि इतिहास के समय को सबसे जयादा प्रभावित करनेवाला बहुसंख्यक वर्ग हाशिए पर फेंक दिया गया था और जिसे कई बार अपने अस्तित्व की रक्षा तक की लड़ाई लड़नी पड़ रही थी।
युवा कवि पंकज कुमार चौधरी का कविता-संग्रह उस देश की कथा ऐसे ही अनगिनत संघर्षों की कहानी कहता है। कभी नारीवादी आन्दोलन के शुरुआती दौर के प्रवक्ताओं ने यह कहते हुए कि अब तक के सारे फैसले स्वयं अपराधियों द्वारा लिखे गये फैसले हैं, इतिहास-लेखन को कठघरे मे खड़ा कर डाला था। आज वही आक्रामक मुद्रा हम दलित विमर्श में पाते हैं जो अब तक के संपूर्ण इतिहास-लेखन को शक की दृष्टि से देखता है। उसकी स्थापना है, अब तक का रचा गया सारा साहित्य सवर्णों का साहित्य है। शायद इसीलिए ऐसे साहित्य का परिचयात्मक ‘नोट्स’ लिखते हुए सवर्ण साहित्यकार (अगर ऐसा कुछ होता है) अतिरिक्त सावधानी दिखाते हुए यह टिप्पणी टांक देना भी मुनासिब समझता है कि ‘...लेकिन मैं पंकज को दलित कवि कहकर प्रस्तुत नहीं कर रहा हूं क्योंकि कोई कवि दलित और दमित नहीं होता।’ फिर भी खगेन्द्र जी, आपकी यह टिप्पणी अविश्वसनीय ही रहेगी क्योंकि ‘सवर्णों’ के लेखन को ‘वे’ खुफिया विभाग की रणनीति से ज्यादा कुछ भी नहीं मानते। संभव है, ऐसी समझ के पीछे उनके अंदर का ‘विद्रोह’ ज्यादा ‘विवेक’ कम हो।

सोवियत संघ की नवंबर क्रांति को छोड़ दें तो अब तक के इतिहास के संपूर्ण कालखंड में शासक वर्ग हमेशा ही अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधि वर्ग रहा है एवं सत्ता पर काबिज रहने के लिए वर्गीय विचारधारा के प्रचार हेतु ‘महान’ हथकंडे काम में लाते रहे हैं। शासक वर्ग की संस्कृति के आवश्यक उपादान तैयार करने में इतिहास के हाशिए पर रहनेवाले इन्हीं वर्गों का ‘गुलाम श्रम’ लगता है लेकिन हर बार उन्हें इस बात का अहसास करा दिया जाता है कि चिंतन-दर्शन की विशाल और ‘महान’ परंपरा कायम करने की मानसिक कूवत अथवा क्षमता का उनमें सर्वथा अभाव रहा है। आर्यों के आगमन से अंग्रेजों के भारत छोड़ने तक की इतिहास-यात्रा में गढ़ा गया यह सबसे बड़ा झूठ है। कवि पंकज ने अपनी पहली कविता ‘वे जब-जब राजपथ की ओर मुड़े’ में इसी ‘झूठा-सच’ का पर्दाफाश है, ‘वे जब-जब राजपथ की ओर मुड़े/उनके बारे में प्रचार किया गया कि/उनके पास हाथ तो हो सकते हैं/पर खोपड़ी कहां।’
कहना होगा कि आर्य जब भारत में आए तो खानाबदोश और बर्बर थे। वे अपने साथ कोई संस्कृति लेकर न आए थे। इसलिए भारत में उनका आगमन द्रविड़ों की संस्कृति की तुलना में एक पिछड़ा कदम था। आर्यों का पहला कबीला/जत्था जिन इलाकों में पसरा वहां उन्हें अनार्यों के साथ तीखा संघर्ष करना पड़ा। अनार्यों में दो का नाम लेते हुए आर्य अपने प्रारंभिक साहित्य में अत्यधिक घृणा का प्रदर्शन करते हैं। ये दो मुख्यतः पणि एवं दास थे। डा. रामविलास शर्मा ने भाषा वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर हमें बतलाया है कि हाथ से काम करनेवाले मूलतः दास कहलाए। संस्कृत में ‘हस्त’ एवं ‘हस्तकर्म’ जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति पर गौर करें तो दासों के प्रति आर्यों की ‘स्वाभाविक’ घृणा को समझा जा सकता है। पणि नाम भी आर्य प्रतीत नहीं होता, परंतु इससे व्युत्पन्न कई महत्वपूर्ण शब्द संस्कृत में और इससे बाद की भारतीय भाषाओं में आ गये हैं। हिन्दी का ‘बनिया’ शब्द संस्कृत के ‘वणिक्’ से बना है, परंतु इस वणिक के लिए हमें पणि के अलावा अन्य कोई ‘मूल’ स्रोत हमें अबतक ज्ञात नहीं है। संस्कृत का पण शब्द सिक्के का सूचक है, और क्रय-विक्रय तथा व्यापार की सामान्य वस्तुएं पण्य कहलाती हैं। पणि शब्द का अर्थ मैकडॉनल एवं कीथ ने ‘वेदिक इंडेक्स’ में अंग्रेजी के बेकनॉट से लगाया है जिसका अर्थ सूदखोर होता है। इतिहासकार कोसांबी का मत है कि प्राचीनतम भारतीय सिक्कों के भारमान ठीक वही हैं जो कि मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक वर्ग के वजनों के हैं, और ये ईरान अथवा मेसोपोटामिया में प्रचलित मानकों से भिन्न हैं। ऐसा लगता है कि कुछ सिंधुजनों ने आर्यों की लूट-खसोट से अपने को बचा लिया, और इस प्रकार व्यापार व उत्पादन की पुरानी परंपरा जारी रखी।
ठीक आर्यों की तरह अंगेजों का प्रभु वर्ग जब भारत आया तो अपने कंधे पर एक ‘नैतिक बोझ’ भी ढोता आया। उसने कहा कि भारतीयों का अपना कोई इतिहास नहीं है। इसलिए उनका नैतिक दायित्व बनता था कि असभ्य और जाहिल भारतीयों को सभ्यता-संस्कृति की चाशनी चटाएं। एक बहुप्रचारित झूठ को उसने प्यारा-सा और मोहक नाम दिया-‘गोरी/सभ्य जातियों का भार।’ कवि पंकज कुमार चौधरी को मिथ्या प्रचार के संपूर्ण इतिहास का ज्ञान है, इसलिए वे हमें सचेत करते पूछते हैं-‘वे कौन थे/और किनके बारे में प्रचार करते आ रहे थे/आखिर उनका मकसद क्या था ?’ ऐसे सवाल इतिहास के हरेक दौर में उठते रहे हैं लेकिन उनको समय-समय पर गीता जैसे महान ग्रंथों की अबूझ भाषा से चमत्कृत किया जाता रहा है।

शोषण-शासन की इस प्रक्रिया को अविच्छिन्न बनाये रख पाने में धर्म ने सबसे बड़ी और सबसे कारगर भूमिका अदा की है। शासक वर्ग ने श्रमजीवी जनता को जाति से लेकर गोत्र तक में बांट डाला। धीरे-धीरे जाति और गोत्र निम्न वर्ण के लोगों के लिए गाली की तरह प्रयुक्त होने लगे जबकि सवर्णों को जाति और गोत्र ‘राष्ट्रीय गर्व’ की तरह रटाये जाते रहे। मुझे याद है कि दूसरी जमात में पढ़ते समय एक शिक्षक को जब मैं अपना गोत्र-नाम न बता पाया था तो उसने किस तरह हिकारतभरी नजरों से देखा था। जाति और गोत्र के संस्कार में रंगे उस शिक्षक के दिमाग में कुछ ऐसा भाव था मानो ‘मैं किस परिवार का और कैसा जंतु हूं जिसे इतिहास के इतने बड़े कालखंड में हासिल की गई महान उपलब्धि का भान तक नहीं है।’ पंकज कुमार की कविता ‘गोत्र’ में दलितों की यही ‘अक्षमता/अयोग्यता’ सवाल बनकर खड़ी हो जाती है। पूजा कराते पुरोहित जब अपने दलित यजमान से गोत्रनाम लेने को कहता है तो एक सन्नाटा पसर जाता है। लगता है जैसे उसने इतिहास के सबसे भयानक और त्रासद हादसे की याद दिला दी हो।
‘श्राद्ध का भोज’ कविता में पंकज ने जाति एवं धर्म की रूढ़ियों को चित्रित करने की कोशिश की है। कवि ने गांव के श्राद्ध-भोज की एक सच्ची तस्वीर खींची है। गांवों में जैसाकि ऐसे मौकों पर हमेशा ही होता है, सवर्णों एवं अवर्णों की अलग-अलग पांत बैठती है। गांव के सवर्ण अरबिन्द के लिए ‘अरबिन्द बाबू’ और ‘राजा भाई जी’ जैसे संबोधनों का प्रयोग है। अवर्ण पात्रों के नाम अकलूआ, चट्टूआ, बिसेसरा आदि हैं। जाति एवं सामाजिक व्यवस्था से हमारी भाषा कैसे प्रभावित होती है, कवि ने इसका खास ध्यान रखा है। कैसे एक ही व्यक्ति जो खाद्य-सामग्री परोसनेवाला है, अरबिन्द बाबू से पूछते हुए ‘सब्जी’ शब्द का प्रयोग करता है जबकि अकलूआ, चट्टूआ, बिसेसरा से पूछते हुए ‘तरकारी’ शब्द से ही काम चलाता है। जो व्यक्ति भाषा की गहरी समझ और संवेदना रखता है, पंकज की कविता में इन चीजों पर गौर करेगा। प्रसंगवश, मुझे निराला की कृति ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ की याद आ रही है। बिल्लेसुर, जैसाकि आप सब जानते हैं, विल्लेश्वर है, लेकिन बकरी चरानेवाला (बकरिहा) होने की वजह से लोगों की जुबान पर चढ़ नहीं पाता।
अमानवीय जाति-व्यवस्था का विरोध जितना हो कम है। लेकिन पंकज का विरोध एक सीमा के अंदर का है। जो अवर्ण श्राद्ध-भोज में सम्मिलित हैं वे सामाजिक रूढ़ियों से लड़ते नहीं दिखते, वे अपने स्वयं के अपमान से ज्यादा क्षुब्ध लगते हैं। यह क्षोभ है जाति व्यवस्था में सम्मानजनक स्थिति का न होना। निश्चित रूप से ‘मोक्ष’ और ‘पितरों’ की आत्मा की शांति की भाषा बोलनेवाला दलित क्रांतिकारी भूमिका का निर्वाह नहीं कर सकता। संग्रह की एक कविता है ‘दूसरा भगत सिंह’। इसमें एक अत्यंत सामान्य वय-बुद्धि के एक लड़के का वर्णन है जिसका आदर्श शाहरुख खान है। एक खास तरह की अराजकता है उसके जीवन में, लेकिन कोई वैचारिक चेतना जनित नहीं है। वह ‘हथियारों’ की बातचीत में महज शरीक ही नहीं होता बल्कि उसके रखे जाने की आवश्यकता भी महसूस करता है। कवि उसमें भगत सिंह की छवि देखता है और नव-वर्ष की बधाई देता है। कवि-मुख सेः ‘भूखा रह जाता है छौड़ा/पर मन छोटा नहीं करता है छौड़ा/हम सब दिन क्या ऐसे ही रहेंगे/कहता है छौड़ा/मेरे भी दिन घूरेंगे कहता है छौड़ा।’ यह एक अवसरवादी चरित्र है जो एक अकेले व्यक्ति के जीवन की बेहतरी के सपने देखता है। लगभग इसी प्रसंग की एक दूसरी कविता ‘एक तटस्थ दार्शनिक’ है जिसमें कवि ने अपनी कवि-विरादरी का उपहास किया है। यह मध्यवर्गीय चरित्र की गड़बड़ी लगती है।

पंकज ने ‘चोर और चोर’ कविता में चोरों की दो कोटियां निर्मित की हैं। शायद कोई सुविधा का ख्याल रहा हो। प्रथम कोटि का चोर वह प्राणी है जो सामान्य स्तर की चोरी करता है लेकिन पकड़ा जाता है। लात-घूसों का भी ‘शिकार’ होना पड़ता है। कवि को निस्संदेह इस चोर से गहरी सहानुभूति है। सहानुभूति का असर देखिए-‘और उसे बीच चौराहे पर/उस रोड़े और पत्थर बिछी हुई पर/बूटों की नोक पर/फुटबॉल की तरह उछाल दिया जाता था।’ आगे की कुछ पंक्तियां इस तरह हैं; ‘तत्पश्चात उसकी फ्रैक्चर हो चुकी देह पर/बेल्टों की तड़ातड़ बारिश शुरू कर दी जाती थी/उसे लातों, घुस्सों, मुक्कों, तमाचों/रोड़े और पत्थ्रों से पीट-पीटकर /अंधा, बहरा, गूंगा और लूला बना दिया गया था/उसे बांसों और लकड़ियों से भी डंगाया जा रहा था/उसके ऊपर लोहे की रॉडों का ताबड़तोड़ इस्तेमाल करके /उसके दिमाग को सुन्न कर दिया गया था/और उससे भी नहीं हुआ/तो उसके लहूलुहान मगज पर/चार बोल्डरों को पटक दिया गया।’ कवि इतना भाव-विह्वल है कि हड्डी की जगह देह फ्रैक्चर हो रही है। शायद ऐसे ही समय के लिए मुक्तिबोध ने लिखा था कि भावना बच्चा है, अगर उसे आदमी नहीं बना सकते तो उसकी हत्या कर डालो। लेकिन हमारे कवि को यह पसंद नहीं और वे लोकतंत्र व मानवाधिकार की दुहाई देते हैं:‘दुनिया के सबसे बड़े और महान लोकतंत्र में/मानवाधिकार का साक्षात उल्लंघन हो रहा था।’ कवि का सारा गुस्सा दूसरी कोटि के चोर के खाते में जाता है; ‘और ऐन उसी रोज एक चोर और पकड़ाया था/जो राष्ट्र का खरबों रुपया डकार गया था/पर उसके लिए एयर-कंडिशंड जेल का निर्माण हो रहा था।’ प्रथम कोटि के चोर के लिए कवि सहानुभूति का ठोस आधार गढ़ता है। जरा गौर करें-‘पूस का महीना था/और पूरबा सांय-सांय करती हुई/बेमौसम की बरसात झहरा रही थी/जो जीव-जन्तुओं की हड्डियों में छेद कर जाती थी।’
पंकज उपेक्षित लोगों की आवाज उठाना चाहते हैं लेकिन एक खास तरीके से। वर्ण-व्यवस्था में एक खास वर्ग के लिए जगह तलाशता हुआ। लेकिन इन उपेक्षितों में भारतीय स्त्री नहीं है। संभव है कि यह एक संयोग हो। लेकिन है यह दुखद संयोग ही। कबीर की निम्नलिखित पंक्ति पंकज का दूर तक पीछा करेगी-
मोटी जनेऊ ब्राह्मण पेठो,
ब्राह्मणी को नहीं पहनाई। जनम-जनम को भई वो सूदा, उने परस्यो तने खाई।।

Friday, July 23, 2010

नेहरु से बेहतर कोई नहीं जानता


किसी को यह बताने की जरूरत नहीं कि स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु जितने बड़े राजनेता थे, उतने ही बड़े रचनाकार भी। एक ओर उन्होंने जहां अपने राजनीतिक चिंतन से समाज को सुंदर बनाने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर मेरी कहानी, हिन्दुस्तान की कहानी तथा विश्व इतिहास की झलक जैसी महत्त्वपूर्ण कृतियों से अपनी रचनात्मक प्रतिभा की भी धाक जमायी।
हिन्दुस्तान की कहानी विश्व साहित्य की अत्यंत ही प्रसिद्ध और लोकप्रिय पुस्तकों में से एक है। यह किताब नेहरु जी ने अहमदनगर किले के जेलखानों में अप्रैल से सितंबर 1944 के पांच महीनों में लिखी थी। जेल की तंग दीवारों के बीच कैद होने पर भी पंडित जी इस पुस्तक में ‘भारत की खोज’ की अनंत और दुर्धर्ष यात्रा पर निकल पड़ते हैं। इतिहास के विविध दौरों से परिचय कराते हुए वह इसे आधुनिक काल और उसकी बहुमुखी समस्याओं तक ले जाते हैं और फिर भविष्य की झांकी दिखाकर हमें खुद सोचने-समझने को प्रेरित करते हैं। नेहरु जी की दूसरी महत्त्वपूर्ण पुस्तक मेरी कहानी (सस्ता साहित्य मंडल ने हिंदी में आत्मकथा इसी नाम से प्रकाशित की है।) भी जून 1934 से फरवरी 1934 के बीच जेल ही में लिखी गई और विश्व इतिहास की झलक जेल से लिखे पत्रों का एक शानदार संकलन है। जेल ही से लिखे पत्रों का एक छोटा किंतु अतुलनीय महत्त्व का संकलन पिता के पत्र पुत्री के नाम भी है। इस संकलन के पत्र नेहरु, इंदिरा को तब लिखे थे जब वह मात्र नौ-दस वर्ष की बालिका थी। तब वह इंदिरा नहीं इंदु थी। इन पत्रों के माध्यम से नेहरु जो विषय/प्रश्न उठाते हैं वे बड़े ही गंभीर हैं। अपनी इतिहास-दृष्टि विकसित करने व नेहरु की इतिहास-दृष्टि को समझने के लिए यह पुस्तक अवश्य पढ़ी जानी चाहिए। इस किताब को मैंने कई दफा पढ़ा बल्कि कहिए कि बार-बार पढ़ा। मेरी कोशिश होती है कि चार-छह माह के भीतर एक बार अवश्य ही पढ़ लूं। मेरा मानना है कि इस छोटी काया वाली पुस्तक को बी.ए. स्तर तक के विद्यार्थियों के लिए इसे अनिवार्य कर दिया जाये, अगर कुछ भी हम अनिवार्यतया पढ़ाते हों। यूरोपीय इतिहास-दर्शन के क्षेत्र में जिस तरह एच. जी. वेल्स, कालिंगवुड और क्रोसे हैं, भारत में नेहरु का भी वही स्थान रहेगा।

Sunday, July 18, 2010

लिया बहुत कम कम दिया बहुत ज्यादा ज्यादा


लेखन एक गंभीर कर्म है और निरंतर मनुष्य के मस्तिष्क में संपादित होते रहता है। मस्तिष्क में ही कांट-छांट चलती रहती है। दिमाग में चलनेवाले लेखन को जब आप कागज पर उतार रहे होते हैं तो वह संपादित रूप में ही पाता है। लिखे जाने के बाद भी कई बार आप उसमें जोड़-घटाव करते हैं, यानी एक दूसरे स्तर का संपादन शुरू होता है। संपादन की यह प्रक्रिया निर्मम होनी चाहिए। इसके बाद जो हिस्सा बचेगा, शायद मूल्यवान और अर्थवान हो। इतना ही नहीं, आपका पाठ भी आलोचनात्मक होना चाहिए। यानी कुछ भी अगर आप पढ़ते हैं तो उसकी आलोचनात्मक समझ विकसित होती रहनी चाहिए। मेरे मित्र श्री ओमप्रकाश पांडेय जी, लगता है, इन चीजों से वंचित रह गये हैं। नतीजतन, पांच-छह किताबों के प्रकाशन के बाद भी वे अपनी रचनाओं को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं हो सके हैं। कहिए कि लेखक का विश्वासअर्जितकर पा सकने में असमर्थ रहे हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकों मेंप्रेमांजलि’, ‘आत्महत्या से पहले’, ‘ रिबर्थ ऑफ महात्मा’, ‘इस्टर ईयर मेलॉडिजएवंगवर्नेंस एंड किंगशिप’ (सद्यःप्रकाशित) आदि शुमार हैं। लगता है, उन्होंने तो पढ़ाई तरीके से (आलोचनात्मक) की और अपनी चीजों को संपादित करना ही जाना। समवयस्क कहे जा सकनेवाले मित्र की इतनी सारी किताबें देखकर मन ही मन व्यथा से भरने लगता हूं। कारण कि मेरी अब तक एक भी किताब प्रकाशित नहीं है। ऐसे ही विरल पुरुषों को देखकर मुक्तिबोध को भी अपराध-बोध हुआ होगा-लिया बहुत ज्यादा-ज्यादा/दिया बहुत कम-कम/जीवन क्या जिया। और मेरे मित्र हैं कि एक पृष्ठ पढ़कर चार सौ पृष्ठ लिख डालते हैं। उनको कौन कहे कि मित्र, ‘महाभाष्यका समय नहीं है यह। समय का मूल-मंत्र हैकम लिखना, ज्यादा समझना
कहना होगा कि यह पुस्तक राजसत्ता के बारे में है। पांडेय जी कहते हैं किअगर शासन/राज्य/राजा हो तो लोग निरंकुश और स्वेच्छाचारी हो जाएंगे। चारों ओर असुरक्षा और अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।पांडेय जी के इस कथन से दो तथ्य सामने आते हैं-पहला कि राज्य एक शाश्वत संस्था है, और दूसरा कि इसका जन्म लोगों को सुरक्षा प्रदान करने एवं अराजकता से बचाने के लिए हुआ। पहले के जवाब में मार्क्स और एंगेल्स दोनों ही विद्वान काफी कुछ कह गए हैं। इन दोनों से पहले मॉर्गन साहब काफी-कुछ कह गये थे, जिसे, संभव हो तो पांडेय जी पढ़ लें। वैसेमौलिक लेखनकरनेवाले लोग दूसरों का लिखा कम ही पढ़ते हैं। के बराबर। पढ़ने के बाद लिखना मुश्किल हो जाता है शायद। आप जितना पढ़ेंगे, मुश्किल उसी हिसाब से बढ़ती जाएगी। इसलिएज्ञानीलोग पढ़ने का झंझट ही नहीं रखते।

इतिहासकार . एच. कार से संबंधित एक कहानी याद रही है। उन्हें शायद ग्रीक के इतिहास पर काम करना था। इसलिए जितनी भी उपलब्ध सामग्री थी उसे अपने पास ले आये और आश्वस्त हो लिये कि अब तो सारे तथ्य उनकी मुट्ठी में है। बेचारे अति प्रसन्न मुद्रा में थे कि बस अब किसी दिन उठेंगे और लिख डालेंगे। लेकिन ऐसा कोई दिन नहीं रहा था। बाद में मालूम हुआ कि जिन किताबों को अपनी मुट्ठी में कर प्रसन्न हो रहे थे उसी ने उनकी मुश्किल बढ़ा रखी है। तो यह है पढ़ने का संकट।

पांडेय जी ने अपने अध्ययन के लिए दो भिन्न काल के कवियों को लिया है। कालिदास भारतीय संस्कृति के उस काल के प्रतिनिधि कवि हैं जब सामंती समाज की विशेषताएं अपनी जड़ें जमा रही होती हैं जबकि शेक्सपीयर सामंती समाज के विध्वंस पर निर्मित हो रहे व्यावसायिक पूंजीवाद के प्रवक्ता हैं। इसलिए दोनों के मूल्यबोध में जो अंतर आता है उसकी व्याख्या प्रस्तुत करने में वे अक्षम साबित होते हैं। अलबत्ता साम्य सिद्ध करने में कोई परेशानी नहीं होती। कालिदासराजाकी बात करते हैं तो शेक्सपीयरकिंगकी। बल्कि पांडेय जी नेसिंह’, ‘किंग’ ‘राजा’, ‘ड्यूक’, ‘राजन’, ‘राजर्षि’, ‘युवराज’ ‘प्रिंसआदि को समानार्थी घोषित कर दिया। (गवर्नेंस एंड किंगशिप, पृष्ठ 9-10) इस प्रसंग में रामशरण शर्मा की यह बात ध्यान देने योग्य है-‘प्राचीन काल में राज्य का अध्ययन करनेवाले विद्वान हमेशा राजा का अंग्रेजी अनुवादकिंगकरके भ्रम फैलाते रहे हैं। राजा शब्द का मूलभूत अर्थ है दीप्तिमान (चमकनेवाला) व्यक्ति-स्पष्टतः ही अपने शारीरिक और मानसिक गुणों और उपलब्धियों के कारण निर्वाचित सरदार या मुखिया, जिसका व्यक्तित्व ओजस्वी या दीप्तिमान होता था।’ (भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 5) साथ यह भी ध्यातव्य है किऋग्वेद में आयेराजाशब्द का अर्थ शतपथ ब्राह्मण में प्रयुक्तराजाशब्द के अर्थ से भिन्न हो सकता है।’ (वही)

वैदिक ग्रंथों मेंराजन्शब्द का प्रयोग अनेक बार होने के कारण यह भ्रांति पैदा होती है कि वैदिक काल में राजा का पद ठीक उसी तरह से सुस्थापित था जिस तरह से बाद के दिनों में राजतंत्र सुप्रतिष्ठित हुआ। वास्तव में राजन् शब्द की उत्पत्ति जनजातीय है। संस्कृत में राजन् शब्द की व्युत्पत्ति सामान्यतः राज् (चमकना) अथवा रत्र्ज/रज् (लाल होना, रंगना, सज्जित करना, अनुरक्त करना) धातुओं से होती है। निघंटु 2: 14 के अनुसार इस धातु का अर्थ जाना भी होता है। (एम. मोनियर विलियम्स, संस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी, शब्द देखिए, रत्र्ज अथवा रज्) यदि हम राजन् शब्द की व्युत्पत्ति राज् (चमकना) धातु से मानें तो भी इसका तात्पर्य होगा अनेक व्यक्तियों में चमकनेवाला व्यक्ति जिससे राजा होने का उसका औचित्य सिद्ध हो। स्पष्ट है कि ऐसा व्यक्ति केवल अपने शारीरिक बल और सौष्ठव तथा सामरिक उपलब्धियों के कारण ही नहीं चमकता वरन् अपने बौद्धिक और भावात्मक गुणों के आधार पर भी चमकता है। इन गुणों के संयोग से ही लोग उसे जनजाति का नेता होना स्वीकार करते हैं।

चाहे हम राजन् शब्द की व्युत्पत्ति रज्/रत्र्ज से मानें अथवा राज् से, हमारी धारणा के अनुसार आरंभ में इस शब्द से जनजाति के नेता अथवा सरदार का बोध होता था कि राजा अथवा शक्तिशाली राजतंत्र का, जैसाकि सामान्यतः कहा जाता है। राजन् शब्द का अर्थ जनजातीय नेता होने की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि उसके लिएजनस्य गोपअथवागोपतिबतलाया गया है। (रामशरण शर्मा, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, पृष्ठ-393) दोनों ही शब्दों का अर्थ गोपालक से है। इस शब्द का राजन् के लिए प्रयोग संभवतः इस कारण होने लगा क्योंकि जाति अथवा जन की जान-माल की रक्षा करना उसका दायित्व था।

उत्तरवैदिक ग्रंथों में जो जनमानस दिखायी देता है उसमें एक ओर सरदार (राजा, राजन्य, क्षत्र, क्षत्रिय) और दूसरी ओर विश् या किसान बंधुजन के बीच भेद-बोध उभरकर आता है। (रामशरण शर्मा, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 14) इन दोनों के बीच के भेद को रेखांकित करने के लिए तरह-तरह की उपमाओं का प्रयोग किया गया है। प्रथम हरिण है, तो द्वितीय यव, प्रथम अश्व है तो द्वितीय अन्य जंतु; प्रथम सोम है तो द्वितीय अन्य वनस्पति; प्रथम दूध है, तो द्वितीय सूरा; प्रथम अभिमंत्रित इष्टक (ईंट) है, तो द्वितीय खाली जगह को भरने की ईंटें, प्रथम कलश है तो द्वितीय चम्मच या छोटी कलछी; प्रथम इन्द्र है तो द्वितीय मरुत; प्रथम महतृण है, तो द्वितीय लघुतृण, आदि-आदि। इन उपमाओं को पुरोहितों ने चलाया ताकि करदाता किसान राजन्यों/क्षत्रियों और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता सहज भाव से स्वीकार करते रहें। (वही, पृष्ठ 15) राजा सोम के संदर्भ में कहा गया है कि जब क्षत्रिय उच्च स्थान में रहता है, तब विश् निम्न स्थान में रहते हुए उनकी सेवा करता है।(शतपथ ब्राह्मण, 19.3.6; देखें सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट, पृष्ठ 228, पाद टिप्पणी-2) हवन की वेदी बनने के अनुष्ठान से भी प्रकट होता है कि क्षत्र और विश् के बीच कैसा संबंध था। वेदी ईंटों से उसी प्रकार बनायी जाती है जिस प्रकार क्षत्र (सरदार) विश् से प्रबल बनाया जाता है और विश् नीचे से उसका अनुयायी बनाया जाता है। (वही, 4. 3. 3-4) बार-बार कहा गया है कि स्तुत (अभिमंत्रित) ईंटें क्षत्र की द्योतक हैं और खाली जगह भरने की ईंटें विश् की द्योतक हैं। प्रथम भोक्ता है और द्वितीय भोग्य। वाजपेय (बालपन का यज्ञ) में वैश्य को ब्राह्मण और राजन्य दोनों का भोग्य कहा गया है। और यह भी कि भोक्ता को अगर पर्याप्त भोजन मिले तो राज्य समृद्ध रहता है। (वही, 1. 2-25)

ईंटें बिछाने की व्याख्या बार-बार की गई है। अभीष्ट सदा यह रहा है कि क्षत्र को अधिक शक्तिशाली बनायें और विश् को उसका अनुयायी। यह भी कहा गया है कि विश् (प्रजा) को पृथग्वादिनी (अलग-अलग बोलनेवाली) और नानाचेतस (अलग-अलग सोचनेवाली) बनाये रखा जाये, अर्थात् प्रजा में फूट डाले रहें ताकि वह नियमानुसार कर चुकाने और सदा आदेश-पालन में आनाकानी कर सके। सौत्रामणी नामक सोमयज्ञ में दूध से भरी प्यालियों को क्षत्र (शासक) कहा गया है और सुरा से भरी प्यालियों को विश् (शासित) यह भी बताया गया है कि उन प्यालियों को एक-दूसरे से जोड़े बिना अलग-अलग उठायें, क्योंकि ऐसा करने से क्षत्र से विश् और विश् से क्षत्र अलग हो जाएंगे और ऊंच-नीच का क्रम गड्डमड्ड हो जाएगा। (रामशरण शर्मा, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 16) लेकिन यदि उन्हें एक-दूसरे से जोड़कर उठाये तो ऐसा नहीं होगा और विश् को क्षत्र का अनुयायी बना रखा जा सकेगा। (शतपथ ब्राह्मण, 7. 3. 12 और 15) विश् को क्षत्र का अनुयायी/आज्ञाकारी बनाये रखने की आवश्यकता के और भी साक्ष्य अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठानों से हमें प्राप्त होते हैं। (रामशरण शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 16) यज्ञ पशुओं में घोड़े को क्षत्र कहा गया है और अन्य पशुओं को विश्। (वही) देवताओं को अश्व आदि पशु-बलि देते समय आह्वान और मंत्र वही पढ़ना चाहिए जो उपयुक्त हों; अन्यथा प्रजा-तुल्य होकर प्रत्युद्गमनी, अर्थात् विरोध में खड़ी होनेवाली हो जाएगी और इससे यजमान की आयु कम हो जाएगी किंतु यदि पुरोहित लोग सब कुछ ठीक से करेंगे तो विश्, क्षत्र के प्रति विनीत और वशवर्ती रहेगा। (शतपथ ब्राह्मण, 2.2.15) इस सबसे प्रकट होता है कि स्वतंत्रता और समताप्रिय किसानों को काबू में रखना अत्यावश्यक समझा जाता था। घृत की आहुति-सम्बंधी एक अनुष्ठान में कहा गया है कि क्षत्रिय यह आहुति जुहू, अर्थात् छोटी कलछी से देगा तो भोजक और भोज्य के बीच अंतर मिट जाएगा; दूसरे शब्दों में, आरंभिक समतावादी बंधुत्व पलट आएगा। दूसरी ओर, यदि वह यह काम बड़ी कलछी से करे तो वैश्य को वश में करेगा और उसे कहेगा-‘वैश्य तुमने जो जमाकर रखा है, वह मेरे पास ला दो।’ (वही, 3, 2, 15) तथा, जिस राजा ने असंख्य लोगों के बीच अपने को प्रतिष्ठापित कर लिया है, वह एक घर (वेष्मन्) में रहते हुए भी उन्हें वश में करता है। (वही, 3. 2. 14)

कर्मकांडों से प्रकट होता है कि राजन्य और विश् के बीच संघर्ष छिड़ता था और उसमें ब्राह्मण या अन्य प्रकार के पुरोहित राजन्य की ओर से बीच-बचाव करते थे। (रामशरण शर्मा, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 18) कई अनुष्ठानों में राजन्य और ब्राह्मण मिलकर विश् और शूद्र का सामना करते थे। (वही) यू. एन. घोषाल ने बहुत से ऐसे उएाहरण देकर बताया है कि किस तरह उत्तर वैदिक समाज में ब्रह्म और क्षत्र का बोलबाला रहा, किस तरह आपस मे ंउनकी प्रतिद्वन्दिता रही और किस तरह उनमें राजनीतिक गंठबंधन हुआ। (हिंदू पब्लिक लाइफ, भाग-1, कलकत्ता, 1944, पृष्ठ 73-80) यजुर्संहिताओं में (कण्व संहिता, गगण् 2) तथा ब्राह्मण ग्रंथों में (शतपथ ब्राह्मण, ग्प्प्प्ण् 5. 2. 11; 6. 1. 17-18, प्ग्ण् 4. 1. 7-8) दोनों उच्च वर्णों की रक्षा (अभय) की कामनावाली स्तुतियां मिलती हैं। कहा गया है कि वैश्य और शूद्र ब्राह्मण और क्षत्रिय से घिरे हैं (वही,) तथा, जो क्षत्रिय हैं, पुरोहित, वे अपूर्ण हैं। (वही, 6.3.12-13) राजसूय यज्ञ के परवर्ती रूप में वैश्य और शूद्र को द्यूत-क्रीड़ा में शामिल नहीं किया गया है। दिलचस्प बात यह है कि राजा केवल वैश्यों और शूद्रों को, बल्कि ब्राह्मणों को भी वश में रखने का प्रयास करता है। (रामशरण शर्मा, राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 19) इस संदर्भ में राजन्य और क्षत्रिय और राजन्यों के बीच, संभवतः राजा और पुराने बान्धव अभिजात वर्ग के बीच, विश् से वसूले गये अन्न एवं पशु आदि को लेकर संघर्ष होते थे।

यद्यपि ब्राह्मणों और क्षत्रियों की भलाई इसी में थी कि वे वैश्यों और शूद्रों के विरुद्ध आपस में मिलकर रहें; फिर भी दोनों आपस में लंबे युद्धों में संलग्न रहते थे। (वही) ऐसा प्रतीत होता है कि पनपते वर्ग/वर्णमूलक समाज में संघर्ष मुख्यतः सामाजिक श्रेष्ठता प्राप्त करने हेतु होते थे; (वही) और वैश्यों से प्राप्त भेंट और कर तथा शूद्र समुदाय से प्राप्त दास-दासी आदि श्रमिकों के बंटवारे के प्रश्न भी उनसे जुड़े रहते थे। क्षत्रियों में ज्ञानोत्कर्ष का दावा और यज्ञ-विरोधी भावना निश्चय ही इसलिए उदित हुई कि पुरोहितों को अपनी दान-दक्षिणा निरंतर मिलते रहना उन्हें खलता था। (वही) अंततोगत्वा यह संघर्ष एक सामंजस्यपूर्ण समझौते में खत्म हुआ जब क्षत्रियों ने ब्राह्मणों का धार्मिक नेतृत्त्व स्वीकार कर लिया और ब्राह्मणों ने क्षत्रियों का राजनैतिक नेतृत्त्व। यह समझौता टूटता-सा लगता था जब दोनों ही प्रभु वर्ग अपने अधिकार क्षेत्रों का अतिक्रमण कर अपनी श्रेष्ठता का दावा पेश करते थे।

इस प्रकार के संघर्षों की चरम परिणति हुई वर्ण-व्यवस्था के उदय में, जिसके अनुसार वैश्यों और शूद्रों को ब्राह्मणांे और क्षत्रियों की श्रेष्ठता शिरोधार्य हो गई। इसी वर्ण-व्यवस्था की मदद से राजा ने अपना अलग अस्तित्त्व कायम किया और धर्म (अर्थात् वर्ण धर्म) की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया। उत्तर वैदिक काल में वर्ण और राजसत्ता के समर्थन में बहुत सी आनुष्ठानिक और वैचारिक युक्तियां निकाली गईं और वैदिकोत्तर काल में इस व्यवस्था की नींव पर खड़े किये गये धर्मशास्त्र ने वर्ण और राजसत्ता दोनों को समृद्ध किया। इस तरह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था का उदय संपत्ति संबंधों में आये क्रमिक विकास का ही नतीजा था। इसलिए ठीक ही कहा गया है कि वर्णों का विभाजन श्रम विभाजन के साथ ही साथ संपत्ति का भी विभाजन था। (एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि, पी. पी. एच., जयपुर, 1988, पृष्ठ 33) लगभग संपूर्ण प्राचीन भारत में वर्ग, मोटे तौर पर, वर्ण से अभिन्न रहा है। (डी. डी. कोसांबी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 39 रामशरण शर्मा ने भी अपनी पुस्तक सम इकेनॉमिक आस्पेक्ट्स ऑफ दि कास्ट सिस्टम इन एंशिएंट इंडिया, पटना, 1951 में ऐसा ही विचार व्यक्त किया है। और देखें, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 11, पाद टिप्पणी-5)

यह भारत में राजसत्ता के उदय की कहानी है। कमोबेश पूरी दुनिया की यह कहानी है। पाठक को पांडेय जी की उक्त किताब को पढ़ते हुए उपरोक्त बातों को ध्यान में रखना चाहिए। ध्यान तो ओमप्रकाश पांडेय को भी रखना था लेकिन किताबकिंगशिप एंड गवर्नेंसके लिखे जाने से पहले।

Tuesday, July 6, 2010

इतिहास को हिन्दुत्ववादी औजार बनाने का अभियान

हीगेल ने कभी लिखा था, ‘इतिहास हमें कोई सीख नहीं देता’; सचमुच अगर ऐसा होता तो हमारे समय की कई मुश्किलें आसान हो जातीं। इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों की हेरा-फेरी में लोग इतनी तत्परता न दिखाते और इतिहास-लेखन में इतने विवाद की गुंजाइश भी न होती। मजेदार बात तो यह है कि भाववादी चेले ही आज हीगेल की स्थापना को मुंह चिढ़ाने लगे हैं।
इतिहास-लेखन शुरू से ही एक विवादास्पद मुद्दा रहा है क्योंकि जनमानस को प्रभावित करनेवाला यह सबसे प्रभावी साधन है। इसलिए इतिहास की चिंता सबको होती है; इसकी जरूरत सबको पड़ती है। शायद यह कहने की जरूरत अब शेष न रही हो कि विदेशी आक्रमणकारी भी जब-जब भारत आये हैं; इतिहासकारों की एक टोली हमेशा ही उनके साथ रही है और इतिहास-लेखन के काम को बड़ी शिद्दत से अंजाम दिया जाता रहा है। अंग्रेजों के आगमन से तो भारतीय इतिहास-लेखन की बाकायदा एक परंपरा ही शुरू होती है और अभी हम शायद यह भी नहीं भूल पाये हों कि भारत के आजाद होने में, इतिहास-लेखन की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। ऐसा नहीं है कि स्वतंत्र भारत में इसकी भूमिका समाप्त हो गई हो। पहली बार 1977 में व्यापक उलट-फेर की कोशिश हुई और दूसरी बार एक नई सदी में, जब पूंजीवाद का संकट अपने चरम पर है।
बहस की शुरूआत राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद् के विशेषज्ञ पैनल से प्रो. रोमिला थापर, प्रो. रामशरण शर्मा, प्रो. बिपन चन्द्रा तथा प्रो. सतीश चन्द्रा को निकाले जाने की खबर से हुई थी। इस संदर्भ में मुरली मनोहर जोशी ने सफाई देते हुए कहा था कि ‘इन लोगों का टर्म पूरा हो चुका था, इसलिए हटाया जाना कोई अस्वाभाविक नहीं है।’ बात अगर इतनी ही सहज और स्वाभाविक होती, तो शायद इतनी चिल्ल-पों न मची होती। कहना न होगा कि यू. जी. सी. के द्वारा ज्योतिषशास्त्र को मान्यता प्रदान करना और उसके सिलेबस को उच्च शिक्षा में शामिल करना, एक स्पष्ट राजनीतिक मंशा को ही उजागर करता है।
क्या यह बात मतलब से खाली है कि जहां ज्योतिषशास्त्र को विज्ञान बताकर पढ़ाये जाने की वकालत की जा रही हो, वहीं जमा दस तक समाज विज्ञान के सिलेबस को बिल्कुल छोटा किया जा रहा है। नये सिलेबस के तहत बच्चों पर से पढ़ाई का बोझ कम करने का नाटक करती हुई सरकार समाज विज्ञान की पढ़ाई को धूल चटा रही है। समाज विज्ञान की अलग-अलग किताबों की जगह अब सिर्फ एक किताब होगी जिसमें सिर्फ औपचारिकता का निर्वाह होगा और वह भी सरकार की मनगढ़ंत कहानियों के साथ। दुनिया में आज तक जितने भी बदलाव हुए हैं, सबके पीछे विचार रहा है। लेकिन हमारी सरकार स्कूली बच्चों को अवधारणात्मक शिक्षा से वंचित रखेगी। आर्थिक उदारीकरण को क्या विचारशून्यता इतनी ज्यादा पसंद है ?
कम दिलचस्प बात नहीं है कि जिन इतिहासकारों को पैनल से निकाला गया उन्हीं की किताबों को लेकर हंगामा खड़ा किया गया है। इन इतिहासकारों की पुस्तकों को 1977 में भी प्रतिबंधित किया गया था। रोमिला थापर की पुस्तक ‘मध्यकालीन भारत’, बिपन चंद्रा की पुस्तक ‘आधुनिक भारत’ तथा ‘सांप्रदायिकता और इतिहास लेखन’ जिनके लेखक रोमिला थापर, बिपन चंद्रा और हरबंस मुखिया थे, प्रतिबंधित हुई थी। रामशरण शर्मा की पुस्तक प्राचीन भारत को भी प्रतिबंधित कर दिया गया था। इनमें पहली और दूसरी पुस्तक सातवें-आठवें वर्ग के पाठ्यक्रम में स्वीकृत भी थी। इनको प्रतिबंधित करने की वजह यह थी कि इनमें सांप्रदायिकता, अंधराष्ट्रवाद और घृणित राष्ट्रवाद जैसे जन-विरोधी इतिहास-लेखन की परिपाटी का विरोध किया गया था और सही एवं वस्तुनिष्ठ इतिहास इतिहास लिखने की ईमानदार कोशिश की गई थी। ठीक इसी तरह कभी मध्य प्रदेश में मिली-जुली सरकार के शासन के दौरान मुक्तिबोध की प्रसिद्ध पुस्तक ‘भारत: इतिहास और संस्कृति‘ खुलेआम जलाई गई थी। यह पुस्तक भी पहले पाठ्यक्रम में शामिल थी।
28 दिसंबर 1977 को भारतीय इतिहास कांग्रेस ने भुवनेश्वर में हो रहे अपने 38वें अधिवेशन के अवसर पर इतिहास के अध्ययन के प्रति भारतीय इतिहासकारों के वैज्ञानिक और धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण को दुहराते हुए तत्कालीन हमले के विरुद्ध घोषणा की, ‘स्कूलों में पढ़ाई के लिए इतिहास की कुछ स्वीकृत पुस्तकों पर हो रहे वर्तमान हमलों के जरिये इतिहास के मूल सिद्धांतों पर ही प्रश्नसूचक चिह्न लगाया जा रहा है। सरकार की ओर से उन पाठ्य पुस्तकों को सूची से हटा देने का प्रयत्न चल रहा है और ऐसी आशंका पैदा हो रही है कि इतिहास को सांप्रदायिक और अंधोन्मादी आधार पर फिर से लिखने के लिए सरकार सहायता देने को तैयार है। इस वास्तविकता को भी नजरों से ओझल नहीं किया जा सकता कि पिछले शासन के जमाने की तरह ही ऐसे इतिहासकारों पर व्यक्तिगत बंदिशें और पाबंदियां लगाने की नीति चलाई जा रही है, जो भूत के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने के लिए विख्यात रहे हैं।’
याद रहे कि हिटलर ने जर्मनी के नाजीकरण के दौरान सभी विज्ञानों को जर्मन बना दिया था। नाजी जर्मनी में विज्ञान को ‘जर्मन फिजिक्स’, जर्मन केमेस्ट्री’ और ‘जर्मन मैथेमेटिक्स’ कहा जाता था। नाजियों का कहना था कि विज्ञान का संबंध ‘नस्ल’ से है और इसका निर्धारण रक्त की शुद्धता के आधार पर ही किया जा सकता है। इसी अंधराष्ट्रवाद और नस्लवाद की वजह से उन्होंने सभी विज्ञानों के पहले ‘जर्मन’ शब्द लगा दिया था। भारत में भी इसी तर्क पर विज्ञान के ‘भारतीयकरण’ की घोषणा की जा रही है। ज्यातिषशास्त्र को यू.जी.सी. से मान्यता तथा ‘वैदिक मैथेमेटिक्स’ की स्कूलों में पढ़ाई, इसी अभियान की कड़ी के रूप में हैं।
प्रो. आर.एस.शर्मा की पुस्तक ‘प्राचीन भारत’ पर हमला करते हुए कहा गया था कि ‘वे अपनी पुस्तक में जैन और बौद्ध धर्म के उत्थान के कार्य-कारण संबंधों को, तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक स्थिति में-कृषि के विस्तार, वाणिज्य के विकास और असमानता पर आधारित वर्ण-व्यवस्था में ढूंढ़ते हैं।’ लोगों ने यह भी आरोप लगाया था कि उक्त पुस्तक में वैदिक आर्यों को गोमांसाहारी बताया गया है तथा भारत के इतिहास में कांस्य संस्कृति के अस्तित्व से इनकार किया है। दरअसल, डा. शर्मा जैसे ख्यातिप्राप्त इतिहासकार को न तो अपनी सफाई में कुछ कहने का मौका दिया गया और न ही उसपर गंभीरता के साथ विचार ही किया गया। इसी का नतीजा था कि रामशरण शर्मा को अपनी पुस्तक के पक्ष में अलग से एक पुस्तिका लिखनी पड़ी, जिसका नाम ‘इन डिफेंस ऑफ एंशिएंट इंडिया’ था।
इस पूरी स्थिति के मद्देनजर आर.एस.शर्मा ने मूल बात पर जोर देते हुए कहा था कि ‘यह हमला केवल मार्क्सवादियों के ही विरुद्ध नहीं है, बल्कि अब यह लड़ाई तर्क और धर्म के बीच हो गई है।’ इन प्रतिक्रियावादी ताकतों ने तभी से तर्क की जगह धर्म को आधार बनाकर पाठ्य पुस्तकों के लेखन को अंजाम देना शुरू कर दिया था। सन् 77 की जनता पार्टी की सरकार के इस ‘नेक’ कार्य में सबसे ज्यादा योगदान आकाशवाणी और विद्या भारती द्वारा संचालित स्कूलों एवं डी.ए.वी. आदि शिक्षण संस्थाओं ने किया है। आकाशवाणी के प्रसारणों में इतिहास को तोड़-मरोड़कर एक नई व्याख्या में ढाला गया था। एक प्रसारण के अनुसार, ‘हिन्दी भाषा का विकास तुर्क आक्रमण के विरोध में हुआ था।’ (वी.सी.पी.चौधरी,कम्युनलिज्म वर्सस सेक्युलरिज्म,पृष्ठ 125)। भारतीय इतिहास का सामान्य पाठक भी जानता है कि किसी भाषा का विकास धार्मिक या जातीय विरोध में नहीं होता। रेडियो नाटकों द्वारा भी इस प्रकार के घृणित नस्लवाद का प्रचार किया जा रहा था। उदाहरण के लिए आकाशवाणी के कलकत्ता केन्द्र द्वारा प्रसारित बंगला नाटक ‘सिराजुद्दौला’ को लिया जा सकता है। इस तरह के अनेक तथ्य आपको तत्कालीन प्रसारणों में मिलेंगे जिनमें हिंदुत्व, आर्यत्व तथा भारतीय संस्कृति की विश्वव्यापी श्रेष्ठता का गुणगान है।
जनवरी 1987 को ‘जनशक्ति’ में ‘इतिहास में लिखी काल्पनिक कथाएं’ शीर्षक से बी. एन. पांडेय,इतिहास की एक पुस्तक का हवाला देते कहते हैं कि ‘मैंने उस किताब का टीपू सुल्तान संबंधी अध्याय खोला जिसमें लिखा था कि तीन हजार ब्राह्मणों ने केवल इसलिए आत्महत्या कर ली कि सुल्तान उन्हें जबरन मुसलमान बनाना चाहता था।’ उक्त पुस्तक के लेखक एक सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा. हरप्रसाद शास्त्री हैं। श्री पांडेय ने शास्त्री जी से इस संबंध में जांच-पड़ताल की तो उत्तर मिला कि यह बात उन्होंने मैसूर गजट से ली है। किंतु मैसूर गजट में ऐसी कोई बात नहीं है। जाहिर है, डा. शास्त्री की किताब पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा तथा उत्तर प्रदेश के दसवें वर्ग के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती रही है। 1972 में तीन हजार ब्राह्मणों की झूठी कहानी उत्तर प्रदेश में जूनियर हाई स्कूल के पाठ्यक्रम में भी मौजूद थी। ऐसी परिस्थिति में अगर साम्प्रदायिक दुराग्रह बढ़ते हों तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
विद्या भारती, सरस्वती शिशु मन्दिरऔर दयानंद आर्य वैदिक शिक्षण संस्थाएं आरंभ से ही बच्चों को नस्लवादी इतिहास का जहर पिलाना शुरू कर देती हैं। प्रमाण के रूप् में विद्या भारती स्कूलों में पढ़ाई जानेवाली पुस्तकों को देख सकते हैं, जिनमें बताया गया है कि आर्य जाति ही दुनिया की सबसे उच्च जाति है और हिन्दू संस्कृति ही सारी संस्कृतियों का आधार। शिक्षा का यह सांप्रदायिक स्वरूप ठीक वैसा ही है जैसा हिटलर के समय में जर्मनी की नाजी शिक्षण संस्थानों में था। तत्कालीन जर्मनी की सही स्थितियों की जानकारी के लिए आप ब्रेख्त के नाटकों को प्रमाण के रूप् में ले सकते हैं। आज इस समय में भी जब विज्ञान की प्रगति पर हम ‘गर्व करना सीख गये हैं’, डी. ए. वी. विद्यालयों में पढ़ाई की घंटी गायत्री मंत्र के ‘जाप’ से शुरू होती है।
सन् 77 की जनता पार्टी की सरकार में पुस्तकों को प्रतिबंधित करने के साथ-साथ कई अन्य क्षेत्रों में भी प्रशासनिक हस्तक्षेप जारी थे। आर.एस.शर्मा की सोवियत विद्वानों की दावत पर एक विचार-गोष्ठी में भाग लेने के लिए जाने की अनुमति नहीं प्रदान की गई। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के डा. अहतर अली को विदेशी निमंत्रण स्वीकार नहीं करने दिया गया था।
वर्तमान संदर्भ में दामोदरन नैयर की कहानी भी दिलचस्प हो जाती है। दामोदरन नैयर दिल्ली के गांधी स्मृति स्मारक में गाईड का कार्य कर रहे थे और साथ ही वे गांधी पर अपना शोध-प्रबंध भी तैयार कर रहे थे। अपने व्यावसायिक कर्तव्य के रूप में वे पर्यटकों को उस स्थल पर ले जाते थे जहां पर गांधीजी नाथूराम गोडसे की गोली के शिकार हुए थे। प्रसंगवश वे इसका भी जिक्र कर देते थे कि गोडसे आर.एस.एस. से संबंधित था। अपने कथन के साक्ष्य के रूप में वे तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की पुस्तक ‘स्टोरी ऑफ माई लाईफ’(खंड-1,पृष्ठ 248)से उद्धरण पेश करते थे। इतिहास के तथ्य और अपने पेशे के प्रति दामोदरन की इस प्रतिबद्धता ने तत्कालीन शासक वर्ग के सांप्रदायिक और रूढ़िवादी तत्वों के रक्तचाप को बढ़ा दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि 9 और 31 अक्तूबर 1977 को आर.एस.एस.के सदस्यों ने उनकी पिटाई की। दामोदरन ने अपने बचाव के लिए जब यह कहा कि ‘जो वह कह रहे हैं, वही बात मोरारजी देसाई ने भी कही है’, तो आर.एस.एस.वालों ने उत्तर दिया, ‘अगर उन्होंने ऐसा कहा है,तो हम उन्हें भी मार डालेंगे।’(वी.सी.पी.चौधरी, भारतीय इतिहास लेखनः एक अंतर्राष्ट्रीय विवाद,पृष्ठ111)। बाद में वे लोग ‘गोडसे जिंदाबाद’ और ‘गोडसे अमर रहें’ का नारा लगाते हुए चले गये। यही नहीं, जब उस पवित्र स्थान पर जूता खोलकर जाने का निवेदन किया जाता था तो उनका जवाब होता था,‘हमलोग यहां पेशाब भी करेंगे।’(सेक्युलरिज्म वर्सस कम्युनलिज्म,पृष्ठ 106-7)।
तत्कालीन प्रधानमंत्री देसाई के साथ, गृहमंत्री चरण सिंह भी अक्सर कहा करते थे कि दामोदरन को ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए जिनसे आर.एस.एस. की भावना को ठेस पहुंचती हो। इस नाटक का अंत यह हुआ कि दामोदरन का स्थानांतरण दंडस्वरूप पुस्तकालय में कर दिया गया। इस प्रकार सन् 77 ई. में सत्ता की बागडोर थामनेवाली सांप्रदायिक शक्तियां, सच्ची बात कहने पर भी रोक लगा रही थीं। आर.एस.एस. के इन सांप्रदायिक क्रियाकलापों की भर्त्सना करते हुए एक जनता सांसद ने ही कहा था कि ‘हिटलर को जर्मनी के इतिहास पुनर्लेखन में ढाई वर्ष लगे थे, जिसे जनसंघ भारत के संदर्भ में एक सप्ताह में पूरा कर लेना चाहता है। जनसंघ के फासिस्ट चरित्र का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है?’(सेक्युलर डिमोक्रेसी,1-15 सितंबर 1977)।
अंत में डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष डा. एस.एल. बरुआ और उसी विभाग में रीडर डा. एम.एल.बोस की चर्चा कर देना भी प्रासंगिक होगा। उक्त विश्वविद्यालय से प्रकाशित इतिहास की एक पत्रिका ‘जर्नल ऑफ हिस्टॉरिकल रिसर्च’ में डा. एम.एल. बोस का लेख ‘असम का सामाजिक इतिहास’ प्रकाशित हुआ। उक्त पत्रिका का संपादन डा. बरुआ ने किया था,और उन्होंने इस लेख को ‘शोध का नमूना एवं वर्षों के अध्ययन का फल’ बताया था। डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय के कुलपति ने डा. बरुआ को इस पत्रिका का सिर्फ प्रकाश नही बंद करने का आदेश नहीं दिया बल्कि उन्हें विश्वविद्यालय में अपनी सेवा पर जाने से भी रोक दिया। ऐतिहासिक सच्चाई को कहने का यही ‘पुरस्कार’ था। (टाइम्स ऑफ इंडिया,21.10.1973)। इस प्रसंग में उक्त संपादकीय लेख को ध्यान में रखना होगा जिसमें कहा गया कि ‘एक वर्ष भी नहीं बीता है कि इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस ने जनता सरकार से इस आश्वासन के लिए अनुरोध किया था कि सांप्रदायिकता और संकीर्णता से प्रभावित इतिहास लेखन बंद किया जाए।’
जिस तरह से परिवार तथा समाज में पल-बढ़कर एक बच्चा ‘हिन्दू’, ‘मुसलमान’, ‘सिख’ या ‘ईसाई’ बन जाता है, ठीक उसी तरह पाठ्य पुस्तकों में वर्णित भ्रामक सामग्रियों से भी। लाला लाजपत राय अपने बचपन के दिनों की याद करके ‘आत्मकथा’ में लिखते हैं, ‘इतिहास की एक पुस्तक ‘‘वक्त-ए-हिन्दू’’ जो उस वक्त सरकारी स्कूलों में पढ़ाई जाती थी, ने मुझमें यह भाव भर दिया कि मुसलमान शासकों ने हिन्दुओं पर काफी सितम ढाये। परिणामतः बचपन के पालन-पोषण से इस्लाम के प्रति जो सद्भाव मैंने हासिल किये थे, वे अब घृणा में परिणत हो रहे थे।’
इसलिए इन वस्तुनिष्ठ इतिहासकारों की पुस्तकों को निकाले जाने या फिर बदल डालने की घोषणा, महज संयोग नही है बल्कि इतिहास को नस्ल,जाति और धर्म की अविवेकी परंपरा में शामिल करने का जो फासिस्ट अभियान है, उसी की एक कड़ी है। अपनी बौद्धिक क्षुद्रता और दरिद्रता का अहसास करते हुए, वे इतिहास के किसी भी गंभीर विमर्श से बचना चाहते हैं। इसलिए उनकी रणनीति है, पाठ्य पुस्तकों में मनगढ़ंत बातें लिखवाकर स्कूल जाते बच्चों की घुट्टी में ही ऐसा जहर मिला दो ताकि बड़े होकर गर्व से कहें, ‘हम हिन्दू हैं।’

प्रकाशन: सहमत मुक्तनाद, जनवरी-मार्च 2002।