Friday, October 8, 2010

ये परंपरागत साधु नहीं हैं


कहानी का मैं अच्छा पाठक अपने को नहीं मानता. कविताओं की तुलना में यह अधिक समय लेती है. फिर इसमें पात्रों की अधिकता भी मेरे अंदर कुछ गड्डमड्ड पैदा कर जाती है. लेकिन हां, कहानी अगर अच्छी लगी तो पढ़े बिना भी नहीं रहा जाता. कविता अगर गड़बड़ भी हो तो एक पठन-वाचन तो किया ही जा सकता है. कहानी के साथ यह सुविधा नहीं है, अतः प्रारंभ में ही कहानी अगर कुछ-कुछ ‘अकहानी’ जैसी लगी तो बिना अतिरिक्त श्रम किये छोड़ बैठता हूं. ऐसा होने-करने का एक संभव कारण शायद यह भी रहा है और जिसकी शिकायत सुवास कुमार ने भी दर्ज की है कि श्आजकल के कथाकार ‘कहानी कहने’ की बनिस्बत ‘कहानी में कहने’ को ज्यादा उपयोगी मानते हैं. या यह भी संभव है कि वे कहानी कहना जानते ही न हों.श् लेकिन इधर मैंने प्रतिभा राय का कहानी-संग्रह ‘निरुत्तर ’ पढ़ा जिसमें मुझे कहानी कहने की कला के दर्शन हुए. हाल की 'हंस ' में प्रकाशित सृंजय की कहानी ‘माप ’ (हंस में छपे पत्र के बाद इसकी मौलिकता संदिग्ध है) एवं भालचन्द्र जोशी की 'दोआबा ' में प्रकाशित कहानी ‘राजा गया दिल्ली’ उल्लेखनीय कहानी कही जा सकती है. हां, एक नाम और मैंने इधर पाया. कुछ ही दिनों पहले हरिओम की कहानी ‘भैया राम’ ‘आजकल ’ के किसी अंक में पढ़ी थी. कहिए कि मैंने पूरी पढ़ी थी. पूरी कहानी पढ़ना मेरे लिए किसी चुनौती से कम नहीं है. कुमार मुकुल जब दिल्ली वापस जाने लगे तो हरिओम का कहानी-संग्रह ‘अमरीका मेरी जान’ (अंतिका प्रकाशन) मेरे पास छोड़ते गये. ‘भैया राम’ (‘भैया राम’ एक असामान्य व्यक्ति की कहानी है जिसका मानसिक विकास नहीं हो सका है और इसीलिए वह अपने-आप को लेकर भी कई तरह के भ्रमों/वहम के बीच जीता है) मैंने पहले ही पढ़ रखी थी. वह कहानी मुझे पसंद भी थी, इसलिए कहिए कि उसके प्रभाव में मैंने उनका संग्रह पढ़ना शुरू किया। ‘भैया राम’ को छोड़कर सारी कहानियां मैं एक सांस में पढ़ गया। मतलब कि उसे खत्म करने के बाद ही मैंने किसी दूसरी किताब की तरफ ध्यान बंटाया. संभव है कि आलोचक इसे बेहतर कहानी का प्रमाण न मानें लेकिन मैं आश्वस्त हूं. मेरा पाठक-मन कहता है कि जो किताब आपसे पढ़वा ले, एक बेहतर किताब की पहली अनिवार्य शर्त तो पूरी कर ही ले जाती है. इस नाते मैं हरिओम की कहानियों को बेहतर कहानी मानने की छूट हासिल करता हूं.

‘भैया राम’ की ही तरह ‘लबड्डा’ कहानी भी एक असामान्य पात्र को केन्द्र में रखकर रची गई है. ‘लबड्डा’ दरअसल अवध प्रदेश की एक झगड़ालू स्त्री की कहानी है. वह अपने ज्यादातर काम बाएं हाथ से करती थी. ऐसी औरत को गांव में ‘लबड़ी’ या ‘लबड्डी’ कहा जाता था. लेकिन लबड्डा सिर्फ़ अपने वाम-हस्ता होने के कारण लबड्डा नहीं थी वह वाममार्गी भी थी. मर्दों के समाज में मर्दों के बनाए-सुझाए सीधे रास्तों से उलट चलने की इच्छा और हिम्मत रखने वाली. पुरुष-प्रधान समाज ने एक स्त्री को ‘पुरुषोचित मान’ यूँ हीं नहीं दिया था-‘लबड्डा के सामने किसी भी मर्द की जबान तो क्या धोती भी खिसक जाती थी.’ लेकिन उसके अंदर एक संवेदनशील दिल भी था. स्त्री चर्चा में लबड्डा ने एक दिन कहा, ‘हे रे बहिनी! बुढ़िया के जाने के बाद बुढ़वा दिन भर उल्लू की तरह दीवार ताकत रहा. मरा तो उसके शरीर और मन को शांती ही मिली होगी. मगर बुढ़वा के जाने से अब घर कूकुर जस काटत है.’ (पृष्ठ ५१) दरअसल लबड्डा और भैया राम जैसे चरित्र की असामान्यता की वजह समाज और पारिवारिक संबंधों में मौजूद हैं
कहना न होगा कि इस संग्रह में कुल दस कहानियां हैं जिनमें पांच कहानियां ‘आम भारतीय मुसलमानों के जीवन के सच को सामने लाने’, साम्प्रदायिकता की समस्या के मूल कारणों की खोज करने, और बेहद ‘संवेदनशील तरीके से उनकी चेतना पर छाये खौफ और गहरी तकलीफ को समझने’ की कोशिश करती हैं। इन कहानियों का परिवेश अलग-अलग है. लेकिन सारे मुस्लिम पात्र एक-सा दर्द झेल रहे हैं, परायेपन और घृणा का दर्द.’ एक असुरक्षा बोध के साथ.

संग्रह की पहली कहानी ‘मियां’ है. यह अपने गांव के परिवेश में रहमत तेली बन चुके रहमत मियां की कहानी है. यानी कि वे मुसलमान थे . लेकिन चूँकि कई पीढ़ी से वे तेल पेरने का काम करते चले आ रहे हैं, इसलिए, रहमत तेली हुए. यानी पेशे से वे तेली हैं. सुनने में यह बात थोड़ी असहज, अजीब भले लगती हो किन्तु यह एक वास्तविकता है. यह कहानी सधी हुई भाषा में चुपके से, बगैर किसी सूत्र का दामन पकड़े गांव के सांप्रदायीकरण की बात दिखाती है. सामान्य जीवन में, गांव की संस्कृति में हिन्दू-मुसलमान का कोई भेद नहीं है. रहमत मियां कब नमाज अदा करते हैं, किसी को कुछ नहीं मालूम. इतना ही कि वे कहीं किसी समय पढ़ लेते होंगे. इस कहानी को पढ़ते हुए मुझे भीष्म साहनी का उपन्यास ‘तमस’ याद आता रहा. उस उपन्यास में भी गांव के सारे ही लोग, चाहे वे किसी भी जाति या सम्प्रदाय के क्यों न हों, आपस में सहानुभूति तथा प्रेम के साथ जीना चाहते हैं. उनको भय है तो सिर्फ बाहरी लोगों से. और सच में होता भी यही है-जब तक बाहर से दंगाई नहीं आते हैं, हरनाम सिंह मजे में अपनी दूकान चला रहा होता है. गांववालों को उनसे कोई शिकायत नहीं है, बल्कि उनके साथ लोगों की सहानुभूति भी है. गांव की जनता उन्हें बार-बार यही कहती है कि ‘तुम्हें खतरा तभी हो सकता है जब बाहरी लोग यहां आ जाएंगे.’ ‘मियां’ कहानी में हरिओम ने यही बताया है कि एक दिन गांव में कुछ साधु आते हैं. ये और बात है कि ‘ऐसे साधू पहले गांव में कभी नहीं आए. बिल्कुल नई उम्र हैं...खास बात तो यह कि उनके पास न तो भजन-कीर्तन का कोई सामान है और न ही भीख का झोला.’ ये परंपरागत साधु नहीं हैं. इन्हीं साधुओं ने पहली बार रहमत तेली को रहमत मियां कहा-‘रहमत के कानों ने ऐसी आवाज और ऐसा सम्बोधन पहली बार सुना था. आमतौर पर रहमत के घर आने वाले सीधे दालान तक पहुंच कर रहमत को पुकारते थे और रहमत बैठे-बैठे ही बात करते थे पर इस सम्बोधन में ऐसा कुछ था कि रहमत खड़े हो गए. वे जानते थे कि मियां मुसलमान को कहते हैं और यह भी कि वह तेली से पहले मुसलमान हैं. खड़े वह इसलिए हुए कि इस सम्बोधन से उन्हें पता चल गया था कि उनके दरवाजे पर गांव के बाहर का कोई व्यक्ति खड़ा है’ (पृष्ठ 17). कहानी का क्लाइमेक्स ही अंत है-‘न जाने रहमत को क्या सूझा उन्होंने पूछ लिया, ‘‘काम क्या है भइया?’’ तीसरे ने बेलाग कहा, ‘‘हमें शाम तक एक सौ आठ छोटे त्रिशूल चाहिए.’’(वही).

संग्रह की दूसरी कहानी ‘जय हिन्द’ है. यह एक ऐसे निम्न मध्यवर्गीय परिवार की कहानी है जो पलायन और विस्थापन का दर्द लिये कस्बे में जीवन-यापन करने को अभिशप्त है. कहानी गांव से शुरू होती है. इस कहानी का पात्र बब्बू है. वह मुसलमान है लेकिन जूते गांठने का काम कर अपने परिवार का भरन-पोषण करता है. आर्थिक विकास की आंधी ने उनके इस पुश्तैनी/परंपरागत हूनर को जीविकोपार्जन के लिए अपर्याप्त/अनुपयोगी साबित कर दिया. नतीजतन काम की तलाश में वे एक कस्बे में आ पहुंचे जहां कई पुरानी और चिर स्थायी समस्यायों के साथ ‘विस्थापन और परायेपन’ का दर्द भी घुल-मिल गया. बब्बू अक्सर कहते, ‘अपनी पुश्तैनी जमीन को छोड़कर कोई कहीं जाय, कितनी ही मौज कर पर रहता पराया का पराया ही है.’ (जय हिन्द, पृष्ठ १९). बब्बू की ‘पहचान’ एक ‘मुसलमान’ की थी क्योंकि वे ‘जिस देश-समाज में रहते थे वहां जात-पात, पहचान और नाम आसानी से नहीं बदलते थे.’ इस कस्बे में बब्बू के बेटे बन्ने की अपनी निराली जिंदगी भी शुरू होती है. बन्ने बेहद सीधे-साधे, भोले-भाले, किसी को नुकसान न पहुंचाने वाले, किसी का कोई भी काम करने को तैयार रहने वाले चरित्र हैं. लेकिन जो सिर्फ इस कारण मार दिए जाते हैं कि वे मुसलमान हैं. लेकिन बन्ने की जो दिनचर्या थी उसमें इस ‘पहचान’ की कोई भूमिका न थी. देश के अन्य शहरों की तरह वहां भी बाबा का एक आश्रम था. ‘बन्ने मुहल्ला-सड़क घूमते हुए और कहीं रुकते रहे हों या नहीं, आश्रम अवश्य पहुँचते थे.’ जो इस बात को खोलती है कि साम्प्रदायिक दंगों में अक्सर बन्ने जैसे निर्दोष लोग ही मारे जाते हैं। बन्ने इस कहानी का एक ऐसा पात्र है जो जीवन जीने के ‘अनिवार्य’ छल-छद्म हैं, उससे भी वाकिफ नहीं है. बन्ने के जीवन में एक भयावह रात आयी और उसे मृत्यु की गोद में सुला गयी. अचानक ‘रात में शहर के एक कोने से धुआँ उठा और आसमान अजूबे शोर में घुल गया. रात गरम हो उठी थी. छतों पर सोनेवाले घरों की खिड़कियों से हवा की पीली गंध महसूस कर रहे थे’ (पृष्ठ 26). कहानी की अंतिम पंक्ति- ‘यह शायद पहली बार था कि इतने ढेर सारे अफसरों की मौजूदगी के बावजूद बन्ने ने ‘जयहिन्द’ नहीं कहा, विशेष महत्व रखती है. यह बन्ने के साथ ‘जय हिन्द’ की भी हत्या थी शायद.

ये धुंआ धुंआ अंधेरा, जो छात्र राजनीति, आजादख्याल मुस्लिम नवयुवती नसीम के जीवन-प्रश्न तथा सांप्रदायिक दंगों के दौरान अखबार और खबरिया चौनल की ‘भाषायी भूमिका’ पर टिप्पणी से शुरू होती है-‘‘कहीं एक ट्रेन में लगी आग से कुछ लोग मरे थे और फिर ‘स्वाभाविक प्रतिक्रियास्वरूप’ हजारों लोग क़त्ल कर दिए गए थे.’’ लेकिन कहानी का अंत सांप्रदायिक कत्लेआम की पृष्ठभूमि में एक पराजयबोध में होता है. बीच में कहानी कई अन्य चीजों को भी अनावृत करती है. इस कहानी के पात्रों में अनीस, नसीम तथा जयराज हैं. अनीस और नसीम मुसलमान हैं और जयराज गांव से शहर गया हुआ हिंदू. जयराज अभी अपने धार्मिक संस्कारों से मुक्त नहीं हो सका है जबकि अनीस और नसीम कामरेड हो चुके हैं. कामरेड बनने के लिए वर्जनाओं और पुराने संस्कारों से मुक्त होना होता है. शायद सिगरेट-शराब की भी कोई भूमिका हो. अनीस के कमरे में ‘फर्श पर दरियाँ बिछी हुई थीं जिनपर अनीस के अलावा अक्सर कुछ अजनबी चेहरे लेटे-बैठे, सिगरेट फूंकते मिलते थे.’(पृष्ठ ९३). एक दिन ‘नसीम ने दो-तीन कश लेते हुए सिगरेट जयराज की तरफ बढ़ाई ...जयराज ने न में सिर हिलाया.’ जयराज के इनकार पर अनीस तिलमिला-सा गया. उसे लगा जैसे जयराज ‘क्रांति’ से ‘मुख मोड़ रहा हो. अतएव उसने चुटकी ली, ‘’ले लो यार. कैसे कामरेड हो. इतनी बड़ी पेशकश ठुकरा रहे हो. आखिर कब तक दकियानूस मजहबी संस्कारों का लबादा ढोओगे.’’(पृष्ठ ९६). कहानी का अंत जयराज की सिगरेट की लत के साथ होता है. शायद इसका कोई सांकेतिक प्रयोग हो.

यह भी सही है कि अनीस, नसीम और जयराज देश-समाज की मुक्ति की चिंता में व्यस्त तो थे लेकिन आपस में एक-दूसरे से सब अलहदा थे. बहुत कम जानते थे एक-दूसरे की ‘निजी’ जिंदगी और परिवार के बारे में. जयराज को ‘याद नहीं कि नसीम या अनीस में से किसी ने कभी अपने घर-परिवार के बारे में कोई बात की हो. उनकी चिंताओं में उनके परिवार की चिंताएं कभी शामिल देखी नहीं जयराज ने.’ कहना न होगा कि दो कामरेड (नसीम और जयराज) जो एक दूसरे को चाहते हैं, उनके बीच भी एक अजीब-सी दूरी है कि जब मुस्लिम धर्मावलंबियों का कत्लेआम होता है, उनकी बस्तियां जलाई जाती हैं, औरतों के साथ बलात्कार होता है, और खुद नसीम की बस्ती भी इससे नहीं बच पाती, तब दोनों अपनी अपनी जिंदगियों में अकेले रह जाते हैं. दुखद है कि ऐसी ही दूरी पार्टी कार्यालयों से लेकर पोलितब्यूरो के कामरेडों तक पसरी हुई है.

साम्प्रदायिकता की समस्या को समझने की कोशिश इस कहानी की मूल चिंता में शामिल लगती है. नसीम ने जयराज से कभी कहा था, ‘कॉमरेड ! जब तक यह मजहब और धर्म की घुट्टी हमारी दादी-नानियां और पंडित-मौलवी बच्चों को पिलाते रहेंगे, फिरकापरस्ती का यह सियासी तमाशा चलता रहेगा. ये मदारी इसी तरह डमरू बजाते रहेंगे और जनता जमूरे की तरह नाचती रहेगी’(पृष्ठ १०४-०५). लेकिन साम्प्रदायिकता के असली कारण धार्मिक न होकर आर्थिक-राजनीतिक हैं- इस बात का अनावरण करती कहानी है ‘अमरीका मेरी जान’. कहानीकार ने बड़ी बारीकी से दिखाने की कोशिश की है कि धर्मनिरपेक्ष सरकार के अहम प्रतिनिधि माने जानेवाले विधायक अपनी चुनावी राजनीति/रणनीति की सफलता के लिए आम हिंदू-मुसलमान की सोयी धार्मिक चेतना को हवा देने से बाज नहीं आते. वे दोनों ही संप्रदायों के स्थानीय नेताओं (आफताब मियां व परताप) का इस्तेमाल करते हुए अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति करते हैं. जब लोगों की धार्मिक चेतना जग जाती है तो जनता के साथ ही पुलिस बल भी धार्मिक उन्माद का शिकार हो जाता है. सिपाही पाण्डेय का ‘सोया हिंदू मन’ जब जगता है तो मुसलमानों के प्रति अपनी घृणा को सम्पादित तक करने की जरूरत महसूस नहीं करता. वह कितनी सहजता से, और कैसी ‘टिपिकल’ भाषा में अपनी नफरत जाहिर करता है, वह देखने लायक है-‘जयहिंद सर ! कुछ खास नहीं सर ! अब पूजा पाठ करने पर भी मुल्लों को मिरची लगती है.’ (पृष्ठ ११९ ).

यह सिर्फ़ कहानी की बात नहीं है. यानी इस महज कहानी की काल्पनिक बात कहकर ख़ारिज नहीं कर सकते. यदि हम सरकारी आंकड़ों का ही यकीन करें तब भी हम यही पाएंगे कि ‘सन १९८० के बाद हर दंगे में मरनेवालों में ज्यादातर मुसलमान थे. न सिर्फ ज्यादा बल्कि अधिकतर मामलों में तो तीन-चौथाई से भी ज्यादा. इनमें पुलिस कार्यवाही भी अधिकतर मुसलमानों के खिलाफ ही हुई. अर्थात् जिन दंगों में मरनेवाले अधिकतर मुसलमान थे उनमें भी पुलिस की गाज उन्हीं पर गिरी. मतलब ज्यादा मुसलमान गिरफ्तार हुए, अधिक तलाशियां भी उन्हीं के घरों की हुईं और उन दंगों में भी जहां मरनेवाले तीन-चौथाई से अधिक मुसलमान थे; वहां भी अगर पुलिस ने गोली चलायी तो उनके शिकार भी मुख्य रूप से मुसलमान ही हुए’ (विभूति नारायण राय, राष्ट्रीय सहारा, २४ जुलाई २०१०). इसीलिए डॉक्टर रामविलास शर्मा की कहीं पढ़ी यह बात कि ‘राज्य को धर्मनिरपेक्ष नहीं, असाम्प्रदायिक होना चाहिए’ बार-बार याद आती है.

Thursday, September 16, 2010

हिन्दी उपन्यासों के नायक किताबें क्यों नहीं पढ़ते ?

सुरेन्द्र स्निग्ध

विडंबना कहिए कि हिन्दी पाठक के हाथों में किताब देर से पहुंचती है, समीक्षा पहले। ऐसे में पाठक बेचारा आग्रह से मुक्त होकर रचना का आस्वाद लेने से वंचित रह जाता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ। सुरेन्द्र स्निग्ध का उपन्यास ‘छाड़न’ प्रशंसा से उद्बुद्ध माहौल में हाथ लगा। कई ख्यात हस्तियां तारीफ के पुल बांध चुकी थीं। मित्रों में पंकज कुमार चौधरी ने इस पुस्तक को पढ़ने के लिए प्ररित किया। उनका ख्याल था कि रेणु के ‘मैला आंचल’ के बाद यह अपने तरह का पहला उपन्यास है। पूर्णिया जिला इसकी पृष्ठभूमि है और उसका सामाजिक विन्यास इसका कथा विन्यास है। किंतु मैं स्पष्ट शब्दों में कहूं कि ‘छाड़न’ पढ़कर मुझे वैसा कुछ भी नहीं दिखा जैसा साहित्य के ‘महारथियों’ को दिखा। वैसे भी, मुझे तो ‘दृष्टि-दोष’ की शिकायत है!

समीक्ष्य पुस्तक को पढ़ते हुए मेरे दिमाग में पहला सवाल यही उठा कि क्या यह उपन्यास ही है ? उपन्यास का उद्भव पूंजीवादी समाज की निरंतर बढ़ रही जटिलताओं को चित्रित करने हेतु ही हुआ था। इसलिए एक उपन्यास में समाज के ब्यौरे भरे होते हैं और भाषा चित्रात्मक होती है। चित्रात्मकता भाषा के आलंकारिक मात्र होने से संभव नहीं होती बल्कि इसमें जीवन-स्थितियों के चित्र होने चाहिए। कोई भी समाज कई स्तरों पर विभाजित होता है। आप कह ले सकते हैं कि एक समाज में कई-कई समाज होते हैं और यह समाज विकास की मुख्यधारा को निदेशित करते हुए अपने अंतर्विरोधों को भी प्रकट करता है।

टी. एस. एलिएट के शब्दों के सहारे कहा जा सकता है कि एक नया रचनाकार पुरानी व्यवस्था में परिवर्तन लाता है-कुछ जोड़ता है या घटाता है। व्यवस्था में अपनी जगह बनाने के लिए एक रचनाकार की न्यूनतम शर्त है यह। ठीक इसी प्रकार की स्थिति का सामना रचना को भी करना पड़ता है। रचना को अपनी परंपरा से बहस करनी होती है। बहस की इस पूरी प्रक्रिया के दौरान रचना अपना ‘अन्वेषित ज्ञान’ स्थापित करने की कोशिश करती है। रचना का यह अपना ‘अन्वेषित ज्ञान’ ही है जो पाठक को पुरानी दुनिया से एक नई दुनिया में लाती है। और इसीलिए एक रचना की पहली और अंतिम कसौटी भी यही है कि उसे पढ़कर पाठक बदला हुआ महसूस कर रहा है अथवा नहीं। यह बदलाव कोई जरूरी नहीं कि ज्ञान या सूचना के स्तर पर ही हो बल्कि यह हमारी संवेदना को भी बदल सकता है। एक पाठक के नाते मैं ऐसा कह सकने की स्थिति में नहीं हूं कि उक्त रचना मुझे बदल सकी है। पाठक का कायांतरण हुए बगैर रचना अपने उद्येश्यों की पूर्ति नहीं कर सकती। हालांकि विज्ञजन कहेंगे कि कभी-कभी बातों को दोहराने का भी अपना एक खास महत्व है। फिलहाल इस बात से असहमत होने का कोई लाभ नहीं दिखता।

विचार को रचना के भीतर से झांकना चाहिए। परंतु इसका निर्वाह कठिन है। सुरेन्द्र स्निग्ध का लेखक जब असमर्थ होता है तो एक राजनीतिक विश्लेषक की भाषा का प्रयोग करता है। नमूने के तौर पर आप देख सकते हैं, ‘सिक्का बदल गया था। धरमपुर के सारे जमींदार, जो अंग्रेजों की दलाली करते थे, अब कांग्रेस पार्टी के नेता हो गये थे। लंकाशायर के बने हुए कपड़ों की जगह इनलोगों ने खादी वस्त्र धारण कर लिया और अपने सिरों पर गांधी की दुपल्ली टोपियां पहन लीं’ (पृष्ठ 106)। पूरी किताब लेखक की ऐसी भाषा से आक्रांत है। एक उपन्यासकार को उपन्यास और रिपोर्ट की भाषा का अंतर बरकरार रखना चाहिए। एकाध जगह तो वे भाषा के व्यूह में ऐसे फंस जाते हैं कि अपना उद्येश्य तक को अभिव्यक्त कर पाने में अक्षम साबित होते हैं। वे लिखते हैं, ‘नछत्तर मालाकार जिस तरह धमदाहा और भवानीपुर के इलाके के अन्याय के खिलाफ एक नायक के रूप में विख्यात हो चुके थे, उसी तरह सोहन शर्मा ढोलबज्जा, लौआलगाम और रूपौली के दक्षिण-पश्चिम के इलाके के लोगों के बीच एक ऐसे नायक के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे जिसकी लड़ाई नछत्तर मालाकार की लड़ाई से सर्वथा अलग किस्म की थी’ (पृष्ठ 92)। एकाध जगह तो ‘मजदूरिन औरतें’ (पृष्ठ 100) जैसे शब्द का गलत प्रयोग भी है। संभव है कविता में आपको इस तरह की छूट मिल जाये लेकिन गद्य की प्रकृति ऐसा करने से भरसक रोकेगी। और हिन्दी का एक अध्यापक तो इसे माफ करने से रहा!  

सुरेन्द्र स्निग्ध, नक्षत्र मालाकार और सोहन शर्मा के अंतर को स्पष्ट करते कहते हैं, ‘एक अंग्रेजी सत्ता से टकरा रहा था, दूसरा टकरा रहा था अंगरेजों के खैरख्वाह स्थानीय जमींदारों से’ (पृष्ठ 104)। सोहन शर्मा की खुद की बातों पर विश्वास करें तो लेखक की टिप्पणी पर सहज ही अविश्वास होगा-‘जब भी कोई एक भूमिहार हमारे हाथों मारा जाता है, लगता है हम एक जग्गन सिंह को मार रहे हैं। हमने कसम खायी है कि इस इलाके के एक-एक भूमिहार को मार देंगे। हम अपनी आजादी अपने ही ढंग से प्राप्त करेंगे’ (पृष्ठ 92)। 

सामाजिक विद्रूपता को चित्रित करने के लिए लेखक ने यौन शोषण और बलात्कार जैसी घटनाओं को अत्यंत सरलीकृत ढंग से पेश किया है। प्रकाशन जगत की ऐसी कोई मजबूरी रही हो शायद! अपनी संपूर्ण प्रक्रिया में यौन शोषण की घटनाएं अव्यावहारिक और अवैज्ञानिक लगती हैं। ऐसी घटनाओं को चित्रित करती भाषा लेखक की यौन कुंठा को उजागर करती है-‘अचानक सिवसिंह ने गितिया की दोनों टांगों को और फैला दिया था और अपनी पूरी ताकत के साथ अपने को झोंक दिया था गितिया के अक्षत अंगों में।’ कहीं-कहीं आवेश में लेखक सुध-बुध खो बैठता है और अवैज्ञानिक बातें गढ़ लेता है-‘जिस दिन से सिवसिंह ने गितिया के कुंवारेपन को भंग किया था उसी दिन से गुमसुम पड़ी रहती गितिया। अब हर रात शिवसिंह बेखटके दोनों के साथ संभोग करता था।’ ऐसा नहीं माना जा सकता कि शिवसिंह की उम्र का लेखक को अंदाजा न हो। बल्कि यह अतृप्त यौन लालसा ही है जो लेखक के सिर चढ़कर बोलती है।

यह उपन्यास बिहार में कम्युनिस्ट आंदोलन में आए विचलनों की भी चर्चा करता करता है लेकिन बहुत ही हड़बड़ी में। लेखक आनन-फानन में कम्युनिस्ट पार्टियों के अंदर व्याप्त भ्रयटाचार को दिखाकर अपनी छुट्टी ले लेता है। इन आंदोलनों में लोगों ने जो कुर्बानियां दी हैं, लेखक को शायद पता नहीं। या फिर ये तथ्य लेखक के पूर्व नियोजित फैसले को बाधित कर सकते थे। इतिहास बोध के बगैर इतिहास को छेड़ना खतरनाक हो सकता है। कहना होगा कि इस उपन्यास में कई तरह के राजनीतिक  आंदोलनों का चित्रण-विश्लेषण है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से किसी भी आंदोलन का नायक किताबें अथवा पत्रिकाएं पढ़ता नहीं दिखता। मेरी एक पुरानी जिज्ञासा है कि हिन्दी उपन्यासों के नायक किताबें क्यों नहीं पढ़ते ? 

Tuesday, September 7, 2010

सीढ़ियां तलाशता कवि

संजय कुंदन

छुटपन में जब गांव में था तो अग्रज मित्रों से सुना करता था कि भूत-प्रेत आदि का डर लगे तो ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करना चाहिए। मेरा मन कभी इसे मानने को तैयार न होता और सहज ही हंसी फूट पड़ती। बालमन को तब यह कहां पता था कि कुछ ‘बुद्धिमान’ लोग भी इसे अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा बना चुके हैं और रह-रहकर कविता की शक्ल में पुनर्सृजन करेंगे। संजय कुंदन का काव्य-संग्रह ‘चुप्पी का शोर’ पढ़ते हुए लग रहा है, मानो बगल में बैठा मित्र बचपन का वही रटा-रटाया चालीसा बक रहा हो।

चुप्पी वैसे कई बार महत्वपूर्ण और अर्थवान होती है। बेढंगा बोलेंगे तो बेवजह शोर पैदा करेंगे आप! फिर भारतीय दर्शन में मौन की बड़ी महिमा है। बहुतेरे मौनी लोग अपनी ‘आत्मा’ तक के साथ ‘संवाद’ स्थापित कर लेते हैं। नामवर सिंह की ऊंचाई अगर मुझे मिली होती तो झट इसे ‘आत्मालोचना’ घोषित कर डालता। अर्थात् आत्मा के साथ चलनेवाला अंतहीन संवाद आत्मालोचना है। अलबत्ता, संवाद के बहाने अगर ‘संभावना’ और ‘समझौते’ के सूत्र तलाशे जा रहे हों तो चुप्पी ही भली!

धूमिल के यहां जाना था कि मोची के लिए प्रत्येक आदमी एक जोडा जूता है। मोची और जूते का बिंब फिर भी हमें श्रम की दुनिया से बाहर निकलने नहीं देता। ऐसा इसलिए भी संभव हुआ कि धूमिल ग्रामीण परिवेश से गहरे जुड़े थे। ‘दिल्ली’ की राह न पकड़ी थी, जहां कवि के अनुसार, आदमी ‘जूते’ न रहकर ‘सीढ़ियों’ में तब्दील हो चुका है, और प्रत्येक आदमी को अपने-अपने तरीके से सीढ़ियों की तलाश है। मेरे इस विश्वास के लिए कि कवि शायद इसमें शामिल न हो, कोई आधार नहीं मिलता। कवि ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी खुद ही मारी है।

सीढ़ियां चढ़ना कोई आसान काम नहीं है, क्योंकि सीढ़ियां भी तो कोई साधारण नहीं हैं! बिल्कुल सर्कस की सीढ़ियां हैं, जिस पर कुशल नट ही चढ़ सकता है। ऊंचा चढ़ने के लिए अपना ‘वजन’ कम करना होता है, गुरुत्व-बल की दिशा ठीक करनी होती है। ‘दिमाग’ का साथ छोड़ना होता है। जरूरत पड़ने पर स्मृतियों तक से पीछा छुड़ाना पड़ सकता है। किंतु भारत की सामाजिक संरचना ही कुछ ऐसी है कि ‘द्विज’ अथवा ‘ब्राह्मण’ होने की बात दिमाग के किसी-न-किसी कोने में रह ही जाती है। कवि का यह अपराध क्षम्य है, क्योंकि ब्राह्मणत्व का भूत उसे सिर्फ बहन की शादी के समय सताता है। फिर धूत कहौं, अवधूत कहौ का मंत्रोच्चार करनेवाले तुलसी का मन जब इसके पार नहीं जा सका तो अपनी पीढ़ी के कवि से ऐसी अपेक्षा रखना ‘सामाजिक न्याय’ के सिद्धांत के विरुद्ध है।

कवि ने अपने समय की एक भयावह किंतु कल्पित तस्वीर प्रस्तुत की है। यह भयावहता सिर्फ चेतना के स्तर पर है और इसीलिए इसकी संरचना में एक अद्भुत कृत्रिमता है। कवि के अनुसार,
‘अब शहर में
सबसे सुरक्षित थे हत्यारे
इसलिए लोग चाहते थे हत्यारों की तरह दिखें
पर जब किसी को मार न पाया तो सोचा सबसे आसान है
अपने-आपको मार डालना
और उसने ऐसा ही किया
सुरक्षित होने के लिए।’ 

ऐसी कौन-सी हत्यारी संस्कृति है जिसमें हत्यारा किसी की हत्या करने की बजाय आत्महत्या पर उतर आता है ? क्या यही है आलोक धन्वा की ‘कुलीन हिंसा’ ? दरअसल यह मध्यवर्ग की असुरक्षा की चेतना है जिससे कवि कई तरह की मानसिक दुर्बलताओं का शिकार होता है। वह अपने पात्र इसी वर्ग से उठाता है। टी.वी. पर हत्या की खबरों को देख-सुनकर खुद के मारे जाने की कल्पना कर लेता है और विलाप करती हुई स्त्री पत्नी लगती है। जिसे रात की नींद के लिए शराब और दवा की जरूरत है। जरा गौर करें-

‘टीवी पर समाचार देखते हुए
उसने ड्रिंक्स बनाकर पी
फिर गहरी नींद में सो गया।’

संजय  कुंदन का भय समय और समाज से कटे हुए आदमी का भय है और उसका दुख एक अकेले आदमी का असहाय प्रलाप है। मध्यवर्गीय कवि प्रतिपक्ष रचना नहीं चाहता, व्यवस्था के विरुद्ध वह नहीं जा सकता क्योंकि ऐसा करने से पहचान का संकट पैदा हो सकता है। कवि की पंक्तियां हैं-

‘वह घबराया
उसे पहली बार अहसास हुआ
कि उसकी आवाज अनसुनी भी की जा सकती है
उसे पहचानने से इंकार किया जा सकता है।’

यह जवाब है कवि केदारनाथ सिंह के उस सवाल का-‘वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा ?’ संजय कुंदन को डर है कि अगर कहीं उसे अपना होना प्रमाणित करना पड़ा तो सिर्फ उसका ईश्वर ही उसके पक्ष में बयान दे सकता है, क्योंकि  महानगरों की सोसायटी महज एक अपार्टमेंट की आबादी के बूते बनती है। उस अकेले अपार्टमेंट के लोगों का आपसी सरोकार भी किस स्तर का होता है, कवि उससे अनजान नहीं है। इसी संग्रह की एक कविता है-‘पड़ोसी’, जो व्यक्तिकेंद्रित जीवन जी रहे लोगों की त्रासदी बयान करती है।

ठीक ऊपर की मंजिल पर रह रहे व्यक्ति का कवि के साथ कोई सीधा संवाद स्थापित नहीं होता या कहें कि कवि की अपनी जो विशिष्टता है, वह उसे लोगों से हिलने-मिलने, मिलने-जुलने से रोक देती है;
‘कोई बेचैन चक्कर लगा रहा है कमरे में
उसकी बेचैनी एक दीवार से छन-छन कर
आ रही मुझतक
बस एक मंजिल ऊपर चल रहा
अलग तरह से जीवन
जिसकी आहट दखल देती रहती
मेरे जीवन में भी।’

पड़ोसी का कवि के जीवन में दखल महज इतना भर है कि देर रात तक जब कवि सो नहीं पाता, तो नल चलने की तेज आवाज सुनायी पड़ती है या फिर कुकर की तेज सीटी। कभी तेज पुरुष-स्वर तो कभी एक स्त्री की सिसकी। कवि को लगता है जैसे-
‘यहां इस फ्लैट की हर कोठरी में
एक न एक आदमी झेल रहा है
किसी न किसी तरह की यातना।’

यह अकेले पड़ चुके आदमी की यातना है। यह पीड़ा की अभिव्यक्ति भी नहीं, क्योंकि पीड़ा की सच्ची अभिव्यक्ति पीड़ा से मुक्ति के लिए प्रयास में है। केवल तभी पीड़ा साहित्यिक मूल्य बन पाती है।

प्रकाशन: प्रभात खबर, दिल्ली, 19 मार्च, 2005.

Tuesday, August 31, 2010

कविता के अंत के विरुद्ध लड़ती कविताएं

गोरख पाण्डेय
हाल की कुछ चुनिंदा साहित्यिक पत्रिकाओं में ‘पहल’ की भूमिका उल्लेखनीय रही है। इसने गंभीर साहित्य से जुड़े लोगों को छापने में अपनी दिलचस्पी का लगातार प्रदर्शन किया है। कहना न होगा कि कुमार विकल, आलोक धन्वा, गोरख पाण्डे एवं वीरेन डंगवाल की कविताओं को बार-बार छापकर इसने स्वस्थ साहित्य की परंपरा को और मजबूत ही किया है। इन सार्थक कविताओं के अलावे समय-समय पर आलोचना की गंभीर पुस्तिकाएं भी प्रकाशित होती रही हैं। ‘कविता का तीसरा संसार’ पुस्तिका पहल की इसी ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित करती है। इस पुस्तिका के लेखक, सियाराम शर्मा हिन्दी साहित्य के, विशेषकर समकालीन कविता के एक अत्यंत गंभीर पाठक हैं।

शर्मा जी ने इन कविताओं को चुनकर न सिर्फ अपनी ईमानदारी और वैचारिक भावधारा को स्पष्ट किया है, बल्कि साहित्य की असली समस्या के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को भी प्रदर्शित किया है। निस्संदेह, शर्मा जी की भावधारा वही है जो तीसरे संसार की कविताएं लिखते इन कवियों की है। भेड़ों की गंध से भरा गड़रियों जैसा है इनका चेहरा। अपने चेहरे की पहचान और गंध को सूंघकर परिवेश को जानने की अद्भुत क्षमता है उनमें।

बहुतों के लिए ‘आज की कविता आधुनिक विकासवादी और क्रांतिकारी दोनों तरह के यूटोपिया के अंत की कविता है।’ (कविता का अंत)। अपनी इस स्थापना के आधार पर हिन्दी समालोचना में तकनीकी शब्दावली के ज्ञान को समृद्ध करनेवाले युवा आलोचक सुधीश पचौरी लगभग ‘हल्ला बोल’ के अंदाज में लिखते हैं, जो लोग समकालीन कविता में अर्थ खोजते हैं, वे दरअसल उस सपने को खोजते हैं, जो कविता रचे जाने से पहले ही खत्म हो चुका होता है।’ आगे की पंक्ति इससे भी अधिक ज्ञान का आतंक पैदा करती है, जब वे कहते हैं, ‘सपने के अंत के बाद जो दुनिया बचती है, कविता उसी बची हुई दुनिया की संरचना का नाम है।’

मेरी जगह अगर उदय प्रकाश होते तो कहते, कुछ नहीं बोलने, कुछ नहीं सोचने अथवा किसी सपने के न होने के बाद आदमी मर जाता है। सपने की अनुपस्थिति में आदमी लाश की तरह है। सुधीश पचौरी के दुर्बल कंधों पर इसी लाश का बोझ है, जिससे वह वैराग्य की तरफ मुड़ना चाहता है। लाश को ढोता मनुष्य सांसारिक बहुत कम रह जाता है, अचानक मृतकों की दुनिया में चला जाता है। ऐसी स्थिति में ‘जीवित’ मनुष्यों की दुनिया के बारे में अगर वह सोचना बंद कर देता है तो इसमें आश्चर्य कैसा?

सियाराम शर्मा की पुस्तक ‘कविता का तीसरा संसार’ सपने के अंत के विरुद्ध लड़ती और सपने बुनती कविताओं के उत्स को जानने और उद्घाटित करने की बेचैनी का नमूना मात्र है। समकालीन कविता, हमें कह लेने दीजिए, कविता के अंत के अमानुषिक नारे के विरुद्ध लड़ती कविता है, जिसकी सबसे मुखर आवाज पिछले दो दशक में कुमार विकल, आलोक धन्वा, गोरख पाण्डे और वीरेन डंगवाल की कविताओं से ध्वनित हुई है। शर्मा जी कुमार विकल के बारे में लिखते हैं, ‘मुक्तिबोध के बाद हिन्दी के सर्वाधिक बेचैन कवि हैं। उनकी हर कविता अंधेरे और उजाले की एक मुकम्मल (इस शब्द पर जोर मेरा है) दुनिया है।’ हिन्दी साहित्य का कोई भी सुधी पाठक सुधीश पचौरी साहब से पूछ ले सकता है कि सपने के अंत के बाद भी क्या कोई ‘मुकम्मल’ दुनिया बची रह सकती है ? अपनी विद्वता को थोपने से बेहतर होगा कि मैं कुमार विकल की ही एक कविता की कुछ पंक्तियों का नमूना यहां रखूं-‘

तुम्हारी कविता में सिर्फ एक बुलबुल है
मेरी कविता के आंगन में कई पेड़ हैं
जिनमें सैकड़ों चिड़ियां
दूर दराज से आकर अपने घोंसले बनाती हैं
चोंच दर चोंच/अनुभव का चुग्गा
मेरी कविताओं को खिलाती हैं।’ (रंग खतरे में है, पृष्ठ 63)। 

इसका बेहतर जवाब तो सुधीश पचौरी ही दे सकते हैं कि ये कविताएं सपने के अंत की कविताएं हैं अथवा किसी ‘मुकम्मल’ दुनिया की जो आंख और ईमानवालों के लिए अब भी काफी बची हुई है। अगर इतने पर भी भरोसा न होता हो तो आगे की पंक्ति को थोड़ा गौर से देख लें जो वैसे लोगों को सीधे-सीधे ललकारती हैं, जिनके लिए कविता और शब्द की अर्थवत्ता खो गई है। वे कहते हैं, 

‘मुझे शब्दों की हिफाजत
अपने तरीके से करनी है और पहली लड़ाई
उस आदमी के खिलाफ लड़नी है
जो शब्दों की अर्थवत्ता को तोड़ता है
और दूसरी उसके विरुद्ध
जो शब्दों की अर्थवत्ता को छोड़ता है।’ (एक छोटी सी लड़ाई, पृष्ठ 62) 

शर्मा जी इन शब्दों की अर्थवत्ता से परिचित हैं और उनसे सावधान करते हैं, जो इन शब्दों की अर्थवत्ता को तोड़ने और छोड़ने की साम्राज्यवादी साजिशें रचता दिखता है। ऐसे भयानक दौर में इस छोटी-सी पुस्तक की यही सार्थकता है कि वह हमें किसी आसन्न खतरे से सावधान कर दे।

हिन्दी आलोचना जगत के छोटे आचार्य नंदकिशोर नवल ने ‘आलोचना’ में गोरख पाण्डेय के गीतों पर विचार करते हुए एक बार लिखा था, गोरख पाण्डेय लोकगीतों की सरणि पर गीत रचते हैं,पर उनके गीतों में न लोकगीतों की मस्ती होती है, न ताजगी, उनमें एक जुगुप्सोत्पादक बनावटीपन होता है।’ संभव है, आचार्यों को यह बनावटी और जुगुप्सोत्पादक लगे किन्तु औरों के लिए सच्चाई यह है कि गोरख पाण्डेय के गीत हिन्दी प्रदेश में फैले करोड़ों मूक लोगों की सांस है, जिसके बजने मात्र से जीवन और मृत्यु का भेद खड़ा होता है। असली गीतकार तो कुछ दिनों पहले तक नंदकिशोर नवल के हृदय में फंसा था जिसे सारी मर्यादा लांघकर अततः हमारे सामने उपस्थित कर ही दिया। ‘बनावटीपन’ और ‘कृत्रिमता’ आचार्य के दो अत्यंत ही प्रिय शब्द हैं-जिनका प्रयोग वे बार-बार करते हैं। खासकर वैसे मौकों पर जब उनके सारे हथियार विरोधियों के सामने एक-एक कर चूक जाते हैं। आलोक धन्वा की कविता ‘जनता का आदमी’ और ‘गोली दागो पोस्टर’ की ‘चुस्त भाषा’ और ‘चुस्त बिंब’ (दोनों ही शब्द नवल जी के हैं) भी उनको कृत्रिम ही लगी थी। यह शब्द उनके व्यक्तित्व में इस कदर शामिल हो गया है कि उसकी कैद से वे बाहर निकल ही नहीं पाते।

समकालीन हिन्दी कविता के संसार में आलोक धन्वा एक अत्यंत ही विशिष्ट नाम है। उनकी यह विशिष्टता कई कारणों से है। हिन्दी कविता के क्षेत्र में शायद वे अकेले कवि हैं, जो महज इतनी, चंद कविताओं के आधार पर चर्चित रहे हों। दूसरे, इन पर लिखनेवाले आलोचकों की संख्या भी महज एक-दो ही है-वे भी हिन्दी के आचार्य आलोचकों की तरह बहुत नामवर भी नहीं हैं-फिर भी इनकी ख्याति लगभग सर्वाधिक है। आलोक धन्वा का असली आलोचक तो संपूर्ण हिन्दी प्रदेश में फैला पाठक वर्ग है, जो कई मायनों में आचार्य आलोचकों से ज्यादा विवेकवान है।

आलोक धन्वा की कविताएं शुरू ही होती हैं जिरह से। यह जिरह व्यवस्था से होती है, उसके नौकरशाहों से, सामंतों और गिरहकटों से। यह बड़े-से-बड़े अभियुक्त को थका देनेवाली किसी बड़े वकील की जिरह है जो अपने पक्ष में एक से बड़ा एक तर्क प्रस्तुत कर सबको हैरान कर देता है। जब-जब पूंजीवाद पर संकट गहराता है, फासीवादी ताकतों का जन्म होता है जो सीधे कहती है-बहस नहीं, हमें कबूल करो। आलोक धन्वा की कविता लगभग हर वैसी जगह पर एक अंतहीन जिरह और बहस की शुरुआत है। इस तरह आलोक धन्वा की कविताएं हमें जिरह करनेवाली कौम की संतान होने का सबब सिखाती हैं। शर्मा जी ने सुविधाभोगियों की दुनिया में इन कवियों को चुनकर अपनी परंपरा की पहचान की है और उसकी आग को तेज किया है।

पूरी किताब पढ़ते हुए कई ऐसे बिन्दु उभरते हैं जिनसे असहमत होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। खासकर आलोक धन्वा के मूल्यांकन में, ऐसा लगता है, शर्मा जी ने विशेष रागात्मकता से काम लिया है। सियाराम  शर्मा की नजरों में आलोक धन्वा, मुक्तिबोध की परंपरा के सच्चे वाहक हैं। परंपरा एवं विरासत जैसी जटिल चीजों को परिभाषित एवं चिह्नित करते वक्तहमें थोड़ा सतर्क और सावधान होना चाहिए क्योकि जिसे हम अपनी परंपरा में शामिल कर रहे हैं, बहुत संभव है, एक दिन कहीं विरोधियों के जुलूस में नारे लगाता न दिख जाये। मुक्तिबोध और आलोक धन्वा में एक बुनियादी फर्क है, जिसे हमें स्पष्टता के साथ समझ लेना चाहिए। मुक्तिबोध ने पेशेवर बुद्धिजीवियों की तरह दूर से खड़े होकर महज तमाशा नहीं देखा है, बल्कि जनता की भागदौड़ में, उसके आंदोलनों में अपना कंधा भी लगाया है। उसकी आवाज को अपनी प्रचंड वाणी से द्विगुणित किया है। मुक्तिबोध लिखते हैं, 

‘चेतना में हम विचारों की
गुंथे तुमसे
बिंधे तुमसे
व परस्पर आवेष्टित हो गये।’
(रचनावली, पृष्ठ 27)। 

बिल्कुल ‘सहचर’ हैं मुक्तिबोध जैसे किसी की अपनी ही छाया हो, जो छोड़ती नहीं कभी हमारा साथ, नष्ट होने की अंतिम घड़ी तक।

आलोक धन्वा का मिजाज कुछ दूसरा है। किसी आंदोलन का लड़ा हुआ सिपाही नहीं है वह। उन्होंने तो सिर्फ उसकी ‘समझ’ हासिल की है, उसका रहस्य जाना है, कड़वा स्वाद नहीं चखा है। आप तरस खाइए कि उनकी समझ भी ‘फर्स्टहैंड’ नहीं है, बल्कि किसानों-मजदूरों के संज्ञान से वह चुरायी हुई है, जिसका उन्हें भारी ‘गुमान’ है। 

‘यह कविता नहीं है
गोली दागने की समझ है जो तमाम कलम चलानेवालों को
हल चलानेवालों से मिल रही है।’ 
(गोली दागो पोस्टर)। 

मुक्तिबोध आंदोलन की समझ हासिल करके ही संतुष्ट नहीं हैं, बल्कि उसे जीते भी हैं। उसकी सजा भी भुगतते हैं-
‘भागता मैं दम छोड़
घूम गया मैं कई मोड़।’ 

चूंकि आलोक धन्वा ने एक अपरिचित पर्यवेक्षक की तरह आंदोलनों को दूर से देखा है इसलिए उन्हें गोली चलाने की समझ मात्र मिली है, जबकि मुक्तिबोध ऐसी चीज थे जिसे खरीदा नहीं जा सकता था, फलतः सत्ता की गोलियों का निशाना बनना पड़ता था। मुक्तिबोध ने अपने कानों से सुना था-‘मारो गोली दागो स्साले को एकदम।’ आलोक धन्वा में आंदोलनों के साथ वह निजता नहीं, आत्मीयता नहीं क्योंकि वे पेशेवर बुद्धिजीवियों की पांत में शामिल हो चुके हैं। इसीलिए अब मजदूरिनों की हत्या उनकी कविताओं में ‘उत्सव’ की तरह आती है।

जो क्रांतिकारी केवल छद्म होता है, क्रांतिकारी होने का स्वांग रचता है, उसे अपनी ‘पहचान’ की चिंता सबसे ज्यादा सताती है। उसकी पहचान केवल औरों से दर्शायी गई उसकी विशिष्टता है जो सामंती मानसिकता से उत्पन्न भूख को शान्त करती है, उसका अहं तुष्ट करती है। उनकी ‘फर्क’ शीर्षक कविता इसी अहं को तुष्ट करती कविता है। आलोक धन्वा को लगता है, जैसे उनकी मृत्यु के बाद लोग उन्हें भुला देंगे, किसी अनिच्छा की तरह। क्रांतिकारी कवि को अब अपने समानधर्मा पर भी विश्वास नहीं रहा, जिसके साथ मिलकर वे क्रांति और जनवाद के हजारों सपने देखे होंगे! (मौखिक बातचीत में वे इस तथ्य की ओर बार-बार लौटते हैं)। पहचान के खत्म हो जाने के डर से पीड़ित कवि की कुछ पंक्तियां यहां गौर करने लायक हैं-‘

तुम जो अनगिनत बार
मेरी कमीज के ऊपर ऐन दिल के पास
लाल झंडे का बैज लगा चुके हो
तुम भी यकीन मत कर लेना।’

शर्मा जी ने सिर्फ कविताएं पढ़ीं हैं, आलोक धन्वा का जीवन नहीं देखा है। वैसे साहित्य में रचना और रचनाकार को बिल्कुल ही अलहदा करके देखने की प्रवृत्ति पता नहीं कहां से चल निकली है। एक बहुत बड़ा तबका है जो इसे स्वस्थ लेखन के लिए अनुचित मानता है। सियाराम शर्मा का भी कुछ इसी तरह का ख्याल है। मुझे लगता है, सिर्फ कविता के आधार पर, कवि के जीवन के उतार-चढ़ाव को जाने बगैर कविता के ‘गैप’ को समझना मुश्किल है। वैसे यह मेरा दुस्साहस है। शर्मा जी ने मुझसे कई गुना ज्यादा पढ़ा है और चीजों को समझा है। अपनी उम्र के हिसाब से मैं कुछ बड़ी ही बात कर गया। इसलिए गालिब के संदर्भ में पेश की गई विश्वनाथ त्रिपाठी की उक्ति का सहारा लेना चाहूंगा। वे कहते हैं, ‘जो लोग रचना और रचनाकार के जीवन की अंतःसूत्रता को नकारते हैं उन्हें गालिब की कविता और उनके पत्रों को ध्यान से पढ़ना चाहिए। अंतःसूत्रता स्वीकार करनेवालों को तो और ज्यादा।’ (आजकल, दिसंबर 1997)                                                  

प्रकाशन: प्रभात खबर, विकल्प - 3, दिसंबर ’ 97। 

Friday, August 27, 2010

मेरा विरोध ही मनुष्यता मेरी

समकालीन कविता-जगत में लीलाधर मंडलोई एक अनूठा नाम है। यह अनूठापन इनकी भाषा व कहन की शैली की वजह से है। कविता में न तो अन्य बहुतेरे कवियों की तरह ‘अतिक्रांतिकारी वक्तव्य’ हैं, न ज्ञानेन्द्र पति की तरह  चमत्कारपूर्ण कौंध पैदा करनेवाले शब्द ही हैं। इनकी कविताओं में एक सामान्य आदमी का सुख-दुख है, वह भी सामान्य तरीके से व सामान्य तरीके का। छोटी-छोटी खुशियों को पाकर खुश हो लेना और छोटी-छोटी चीजों से आहत हो जाना इस कवि-मन की आम विशेषता है। शायद इसीलिए इस कवि के पास गूलर से लेकर मक्खी तक पर कविताएं हैं। लेकिन चीजों को अपने तरीके से देखने का, अपने रास्ते चलने का एक आत्मविश्वास-भरा प्रयास है।

मंडलोई की कविता में आम आदमी का जीवन है, एक भरा-पूरा समाज है-जिसमें रुच्चा, कत्वारू, सुक्का, लक्ष्मी, भद्दू, अमर कोली, तोड़ल और चोखेलाल हैं। और भी कितने ही नाम हैं। इनकी कविताओं में इतने लोग हैं कि सिर्फ नामों को लेकर एक स्वतंत्र लेख बन सकता है। समकालीन हिंदी कविता की दुनिया में यह एक विरल किंतु सुखद संयोग की तरह है। यहां हर तरह के अन्याय और विषमता का प्रतिकार करती लड़की ‘कस्तूरी’ है। कविता के ‘वर्जित प्रदेश’ में ‘वीर-घोषणाएं’ (महाराजाधिराज परमभट्टारक चक्रवर्ती सम्राट पधार रहे हैंऽऽ...! की शैली में) करते बहुतेरे जन-कवि आए, लेकिन एक ‘अमूर्त भीड़’ के साथ। ‘व्यक्ति’ और ‘व्यक्ति का जीवन’ फिर भी कविता के दायरे से बाहर ही रहा। आलोक धन्वा के यहां ‘ब्रूनो की बेटियां’ तो आ सकीं, अलबत्ता कोई ‘कस्तूरी’ कविता में दर्ज नहीं होने पाई। ‘कस्तूरी’ की अनुपस्थिति (अनुपस्थिति पर मंडलोई की ‘अनुपस्थिति’ शीर्षक से एक बहुत ही शानदार कविता है) शायद आलोक को ‘चेता’ (खबरदार) गई हो कि उनका, (कवि का) जुड़ाव एक ‘दार्शनिक स्तर’ तक ही क्यों महदूद रहा ? मंडलोई इस लिहाज से भी एक विशिष्ट, और इन्हीं अर्थों में बड़े कवि हैं।

अक्सर कहा और सुना जाता रहा है कि मनुष्य केवल रोटी के सहारे जीवित नहीं रह सकता। इसके बहाने शायद यह कहा जाता रहा हो कि मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो कला और सौंदर्य का सर्जक और प्रेमी है। बहुत पहले प्रेमचंद ने अपनी कहानी ‘कफन’ में संभवतः यही बताने की कोशिश की थी कि पूंजीवादी समाज ने एक मनुष्य को शत-प्रतिशत मनुष्य नहीं रहने दिया है। धूमिल की कविता में ‘मोची के लिए हर आदमी एक जोडा जूता है।’ मंडलोई का ‘गंवई’ कवि-मन हैरान है-
‘मैं कहता हूं बार-बार कोई नहीं आता
मैं पूछता हूं बार-बार-कोई क्यों नहीं आता ?’(क्यों कोई नहीं आता यहां, काल बांका तिरछा, पृष्ठ 75)।
वैसे कवि को इसका उत्तर पता है ‘कि घर और जीवन अब एक बाजार’ है। (‘बाजार और दादी,’ काल बांका तिरछा, पृष्ठ 83)। इसलिए

‘दरबाजे पर जब कोई आता है तो
कभी यूरेका फोब, कभी वीडियोकॉन
यहां तक कि चाकुओं का सेट लिए कोई सेल्समैन।’ (कोई क्यों नहीं आता यहां, काल बांका तिरछा, पृष्ठ 74)। ध्यान रहे कि ये सारे रिश्ते बाजार द्वारा निर्मित/तय किये हैं। लेकिन मनुष्य के अपने जो ‘नैसर्गिक’ और ‘मानवीय’ रिश्ते हैं, वहां एक अजीब सन्नाटा है, एक बड़ा शून्य।
‘कोई नहीं आता वहां
न बाल्कनी में चिड़िया, न ही धूप
न रसोई में बिल्ली
न पत्नी के मैके से कोई रिश्तेदार।’ (‘कोई क्यों नहीं आता यहां,’ पृष्ठ 74)
नव उदारवादी बाजार का दंश झेलता कवि साफ-साफ देखता है या कि दिखाता है कि पूंजी ने मानवीय संबंधों को कैसी पटकनी दी है और उसकी कब्र पर बाजार ने अपने नये रिश्ते-नाते गढ़े हैं। इन रिश्तों को सिक्कों से खरीदा और बेचा जा सकता है। लेखक-बुद्धिजीवि विलाप की मुद्रा में हैं कि हाय! ‘मुझे खरीद लिया एक चमकते सिक्के ने।’ (‘मैं इतना अपढ़ जितनी सरकार,’ काल बांका तिरछा, पृष्ठ 77)। प्रेमचंद विरले थे जिन्होंने बंबई की ‘मायानगरी’ से छलांग लगा दी थी। ठीक जैसे कोई ‘वध-स्थल’ से छलांग लगाता हो।

इस नव उदारवादी किंतु हिंसक बाजार ने उन तमाम चीजों के लिए, जो मनुष्य को मनुष्य बने रहने में मदद कर सकती हैं, बहुत ही कम ‘स्पेस’ छोड़ा है। जनतंत्र का चौथा खंभा कहे जानेवाले अखबार में कला-संस्कृति के लिए क्या कोई जगह बाकी बची है ? कुछेक साल पहले जब स्थानीय अखबारों में लेख छपता तो बड़ा खुश होता। अपने अग्रज (अमरेंद्र कुमार) की टिप्पणी बिल्कुल बेकार-सी और कुण्ठा से उपजी लगती। वे अक्सर कहते कि ‘कभी ऐसा  हुआ है कि तुम्हारे लेख के अभाव में अखबार का कोई पेज सादा चला गया हो ? विज्ञापन से जो जगह बच जाती है उसमें वे तुम्हारा लेख छाप देते हैं। इसमें खुश होने की क्या बात है ?’ आज उनकी बात से असहमत होने की इच्छा रखते हुए भी सहमत होने को विवश हूं। हस्तलिखित दो पृष्ठ के मेरे लेख को एक अखबार के उप-संपादक (सौभाग्य या दुर्भाग्य से वे कथा-लेखक हैं ) ने यह कहकर लौटा दिया कि ‘लेख बहुत बड़ा हो चला है।’ मेरे-आपके लिखे लेख की बात तो रहने ही दीजिए। अखबार का संपादक भी बेचारा बहुत कम ही ‘संपादक’ रह गया है, शायद ‘न से हां भला’ की तर्ज पर। आज हर जगह
‘सम्पादकीय की जगह
हँस रहा है एक बड़ा-सा विज्ञापन।’ (कोई क्यों नहीं आता यहां, पृष्ठ 75)।
याद है कि ‘सहारा समय’ अखबार में सुब्रत बनर्जी के ‘पवित्र-परिवार’ की ‘विज्ञापनी-तस्वीर’ देखकर दिल को कितनी कचोट होती थी। आज संपादकों की ऐसी असहाय स्थिति देख निराला ‘चमरौंधे को तेल में भिंगोने’ की साध भी पूरी न कर पाते !   

सूचना-विस्फोट के इस भयावह समय में आम-जन से जुड़ी घटनाएं खबर नहीं बन पातीं। क्या प्रिंट और क्या दृश्य मीडिया (एक अजीब तालमेल है)-सब जगह ऐसी खबर के विरुद्ध एक ‘अदृश्य-अघोषित’ सेंसर है, एक गजब की ‘सामरिक चुप्पी’ है। कुमार मुकुल को पता है कि
‘खबरों को पाकर
खबरनवीस सन्तुष्ट होता है
उन्हें दबाकर संपादक।’ (सन्तोष ही सुख है!,ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएं, पृष्ठ 18-19)
लीलाधर मंडलोई चूंकि मीडिया के ‘अंदर’ के आदमी हैं, इसलिए उन्हें बेहतर पता है-
‘छुपाता अधिक-से अधिक सच इस हद तक
कि रुदन, कराह, चीखें, अंग-प्रत्यंग, कफन
यहां तक जीवित बचे-खुचे लोगों का आक्रोश
मीडिया की चुस्त नजरों से गायब।’ (‘उन पर न कोई कैमरा’, काल बांका तिरछा, पृष्ठ 79)
और जो दिखाया जाता है वह सच नहीं होता-
‘बस कुछ अवसरपरस्त
एकाएक दृश्य पर काबिज
इधर से उधर नाक पर रूमाल रखे निर्देश पेलते
...हाथ जोड़ अभिवादन से न थकते मन्त्रीगण
सब अपने लिए तय कर ली गई फौरी भूमिका में
जो होना है या कि था से बेपरवाह।’ (उन पर न कोई कैमरा, पृष्ठ 79-80)
मीडिया के लिए खबर एक ‘उत्पाद’ की तरह है, चाहे वह मृत्यु ही की खबर क्यों न हो। बल्कि कहिए कि यहां मौत सबसे ज्यादा बिकती है। मृत्यु से आगे-पीछे की जीवन-स्थितियों के बारे में मीडिया-तंत्र इस कदर एक ‘शालीन चुप्पी’ ओढ़े रहता है जैसे उसका उन चीजों से कोई सरोकार ही न बनता हो।
‘मृत्यु सिर्फ उपभोक्ता खबर है दृश्य में
पहुंचती नहीं उन तक जो कभी भी तोड़ सकते हैं
अपनी आखिरी सांस अटकी जो उम्मीद में कहीं।’ (उन पर न कोई कैमरा, पृष्ठ 80)
नदी में डूबकर या आग लगाकर मरते बच्चे की लाइव तस्वीर वे दिखा सकते हैं, उसे बचाने की कोई ‘नैतिकता’ उनके पास नहीं है।
‘टी. वी. दस्ता मुस्तैद यह दिखाने में कि सबसे बुरा क्या ?
दूर-दूर तक उनकी आंख से मानवीय क्षण गैरहाजिर।’ (‘उन पर न कोई कैमरा,’ पृष्ठ 80)
अलबत्ता, ‘मानवीय’ होने की ‘नैतिकता’ जिसके पास है वह दृश्य से गायब है-
‘उनपर न कोई कैमरा
न किसी अखबार में उनकी तस्वीर
अगर वे कहीं धोखे से रहे भी तो
स्टिल या मूवी कैमरा के एक्सट्रीम लांग शाट में
और जो छपती रहीं क्लोजअप में
वे साफ-सुथरी इतनी मानो किसी आपदा में नहीं
कम्पोज की गई पूरे इत्मीनान से
कि दिखता रहे बनावटी दुःख  भी अधिक यथार्थपूर्ण।’ (उन पर न कोई कैमरा, पृष्ठ 80)

एक अत्यंत सीधा-सादा, ‘गंवई’ बोलनेवाला कवि-मन इन ‘प्रायोजित सक्रियताओं’ में नहीं रमता, इसलिए वह ‘खबर’ का हिस्सा भी नहीं बनता। कभी-कभी तो ‘कुलीनता की हिंसा’ ऐसे व्यक्ति के ‘अस्तित्व’/‘मैं’ तक को लील जाना चाहती है। कभी निराला को ‘बाहर’ करके ‘अंदर’ भर दिया गया था। इतना अधिक कि उनका ‘पीड़ा-बोध’ कभी-कभी ‘व्यर्थता-बोध’ में बदल जाता। ऐसी गहरी पीड़ा। मंडलोई का भी पीड़ा-बोध उतना ही गहरा है किंतु व्यर्थता-बोध की ‘लक्ष्मण-रेखा’ को छूने से बचता-बचाता हुआ। वे कहते हैं,
‘मैं एक छाया दिल्ली की सड़कों पर पागल
मेरा ‘मैं’ तक अनुपस्थ्ति कि मारा गया
जो उपस्थित बहुत हर जगह और जुगाड़ से
विरोध में रहा मैं उनके और इस तरह बाहर।’ (‘अनुपस्थिति’, काल बांका तिरछा, पृष्ठ 70)
इसलिए भी शायद कि ‘मेरा विरोध ही मनुष्यता मेरी।’ (‘मैं इतना अपढ़ जितनी सरकार,’ पृष्ठ 78)

पुनश्चः लीलाधर मंडलोई की कविता पढ़ते हुए मुझे राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह के गद्य की बरबस याद आती रही। संभव है, यह महज संयोग हो। 
                                             

Monday, August 23, 2010

आलोचना का विमर्श

महाकवि निराला पर डा. रेवतीरमण की पुस्तक काव्य विमर्श: निराला पढ़मे हुए मुझे कुछ अजीब-सा अहसास हुआ और एक बार फिर मेरी धारणा पुष्ट होती दिखी कि कुछ वैसे लोग होते हैं जिन पर लिखना आसान नहीं होता। कुछ लोग अपने जीवनकाल में ही मिथक का रूप धारण कर लेते हैं। निराला का दौर भारत के इतिहास का कुछ वैसा ही कालखंड रहा जब हमारे नायक यथार्थ की जमीन छोड़ मिथक बनने या बना दिये जाने की ऐतिहासिक नियति जैसी जैसी चीजों के शिकार हुए। गांधी, नेहरु और निराला-सब के साथ यह समस्या जुड़ी है। नेहरु और निराला स्वतंत्रता संग्राम के दो ऐसे महानायक हैं जिन पर हिन्दी में सबसे ज्यादा कविताएं लिखी गईं।
 
किसी सृजनशील व्यक्तित्त्व का अन्वेषण तथा साक्षात्कार या फिर उसकी पुनःसृष्टि बड़ा चुनौती भरा और उत्तेजक कार्य है। और यदि वह व्यक्तित्त्व निराला जैसा प्रखर, उग्र और अंतर्विरोधों से भरपूर हो तो यह कार्य बड़ा कठिन और जोखिम का भी हो सकता है। निराला जिन्दगी भर अपने व्यक्तित्त्व और लेखन दोनों से ही अतिवादी प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करते रहे। निराला की साहित्य साधना के प्रकाशन के बाद तो यह जोखिम और भी बड़ा हो गया है। एक नये आलोचक के लिए निराला के साथ-साथ रामविलास शर्मा भी चुनौती बनकर आते हैं।
 
डा. रेवतीरमण के लिए निराला वैसा मूर्त्तिशिल्पी है जो रोज अपनी मूर्त्ति गढ़ता है और अगले दिन उसे तोड़ डालता है। निराला की यह क्रांतिकारी चेतना है जो परंपरा से दो-दो हाथ लड़ना जानती है। लेकिन आलोचक को माया मिली न राम। न तो वे निराला की कोई मूर्त्ति गढ़ पाये और नहीं किसी मूर्त्ति को तोड़ ही पाये। इसका श्रेय भी डा. रामविलास शर्मा को ही जाता है। उन्हीं की आलोचना में पहली बार निराला एक व्यक्तित्त्व ग्रहण करते हैं। लेकिन दुख कि आलोचक उसमें अपना मन आरोपित कर देता है-एक मार्क्सवादी मन, जो वेदांती की पीड़ा से कलुषित है। निराला के चिंतन में वेदांत कहां प्रतिक्रियावादी भूमिका में है और कहां प्रगतिशील-इसकी खोज-खबर रामविलास जी ने नहीं ली। गुरु-शिष्य परंपरा का शायद यही तकाजा रहा हो। डा. रेवतीरमण के साथ तो रामविलास जी वाली बाध्यता न थी। हां, शायद निराला के जानकीवल्लभ शास्त्री के साथ मधुर संबंध थे और रेवतीरमण निराला निकेतन ‘शिष्यवत्’ आते-जाते रहे हैं। निराला पर लिखने का यह भी एक प्रभावी कारण बनता है।
 
निराला में एक साधारण आदमी के कई दुर्गुण थे। अपनी आलोचना उन्हें भी पसंद न थी। वे बड़बोलापन के भी शिकार थे। कई बार उनकी कविताएं भी बड़बोलेपन की शिकार हुईं। ‘कुकुरमुत्ता’ एक अच्छा उदाहरण है। शुरू से ही निराला में एक कॉम्प्लेक्स था। पंडित नेहरु और रविन्द्रनाथ टैगोर के बारे में उनकी धारणा इसका प्रमाण है। आज की स्थिति में निराला की कविताएं एक विमर्श की मांग करती हैं जो व्यक्ति-पूजा और श्रद्धांजलि की भावना से रहित हो। ज्यादा घर्षण से चंदन की शीतलता भी खो जाती है।
 
पुनश्च, डा. रेवतीरमण की भाषा आलोचना की भाषा न होकर अध्यापक की हो चली है। अलबत्ता इस अगंभीर माहौल में उनकी भाषा की शुद्धता खलने लगती है।                                                                                

स्रोतः लोक दायरा, अंक 4, जून 2002 

Tuesday, August 17, 2010

भारतीय समाज को समृद्ध करती हिंदी

‘देशकाल’ नाम से पहले हिन्दी की एक पत्रिका निकली और अब ‘देशकाल’ प्रकाशन से एक किताब आई है जिसका शीर्षक है ‘हिन्दी नई चाल में ढली’। इसके संपादक हैं-पुरुषोत्तम अग्रवाल एवं संजय कुमार। पुस्तक में विनय कंठ, फ्रंचेस्का ओरसिनी, कृष्ण कुमार, प्रियदर्शन, अनिल चमड़िया, सुधीश पचौरी जैसे दर्जन भर लेखकों के आलेख संकलित हैं।

हिन्दी भाषा के निर्माण के बारे में चलनेवाली बहसें महज भाषा तक ही महदूद नहीं रही हैं, बल्कि ये आलोचना, इतिहास, परंपरा, विज्ञान, शिक्षा एवं मीडिया इत्यादि के सवालों से भी टकराती रही हैं। यह किताब इन्हीं सवालों को उठाने और उनके उत्तर तलाशने की कोशिश करती है। कुछ मौलिक सवालों से दो-चार होती यह पुस्तक हमें हिन्दी भाषा के इतिहास और वर्तमान से परिचित कराती है।

आलोच्य पुस्तक में कुल तेरह लोगों के लेख शामिल हैं। इसकी सबसे महत्त्वपूर्ण और दिलचस्प विशेषता यह है कि पुस्तक में प्रकाशित लेखों के रचनाकार विभिन्न पेशों से संबंधित हैं जिनके विविध अनुभवों से इसके कैनवस को एक खुला विस्तार मिलता है। यह विशुद्ध साहित्य की दृष्टि से लिखी गई किताब नहीं है बल्कि इसमें समाज के विभिन्न तबकों के जीवन को हिन्दी किस रूप में समृद्ध कर रही है, इस लिहाज से भी देखने की कोशिश हुई है।

पुस्तक के प्रथम आलेख ‘1857 और हिन्दी नवजागरण’ में पुरुषोत्तम अग्रवाल ने एक पुराना सवाल उठाया है कि ‘क्या सचमुच हिन्दी नवजागरण 1857 में व्यक्त जागरण की ही अगली ऐतिहासिक अवस्था है ? क्या सचमुच हिन्दी नवजागरण 1857 की राजनीति और उसकी संवेदना से प्रेरणा लेता है ?’ आगे उन्होंने अपने आलेख की दिशा स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ‘साहित्यिक नवजागरण 1857 की राजनैतिक-सांस्कृतिक संभावनाओं के फलीभूत होने को सूचित करता है या 1857 की संभावनाओं के त्रासद विघटन को ?’ अपने इस आलेख में पुरुषोत्तम अग्रवाल, डा. रामविलास शर्मा की मूल स्थापना कि ‘हिन्दी नवजागरण में देशभक्ति एवं राजभक्ति का अंतर्विरोध झलकता है’, से पीछा छुड़ाकर अलग होने की कोशिश करते हैं लेकिन वे इस दिशा में दूर तक नहीं जा पाते। अलबत्ता इस बेचैनी में वे कुछ वैसे नवीन साक्ष्यों की चर्चा करते हैं जिससे अंतर्विरोध वाली बात ज्यादा प्रामाणिक हो उठती है।

हिन्दी निर्माण और राष्ट्र की अवधारणा’ नामक अपने लेख में विनय कंठ की स्थापना है कि जिस वर्ग ने हिन्दी भाषा के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है वह साधारणतः मध्यवर्ग कहला सकता है।’यह वर्ग स्वाधीनता संघर्ष के काल में आन्दोलन की अगली कतार में था। इस वर्ग के कुछ लोग एक ओर सत्ता में अवस्थित थे तो बहुसंख्यक सत्ता विरोधी राजनीति में थे। वे यह भी मानते हैं कि हिंदी के विकास में उनलोगों की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण बनी जिनका राष्ट्रवाद भारतीय परंपरा के अधिक निकट था-चाहे वे तिलक, मालवीय, गांधी सरीखे राजनीतिक व्यक्ति हों या महावीर प्रसाद द्विवेदी, निराला, प्रेमचंद जैसे साहित्यसेवी। पुस्तक में हिन्दी का जोरदार समर्थन करनेवालों के बीच प्रचलित राष्ट्रवाद में हिन्दू राष्ट्रवाद का तेवर भी कभी-कभी दीख जाता है।’ इस मसले पर अगर थोड़ा रूककर विचार किया गया होता तो शायद विनय कंठ और पुरुषोत्तम अग्रवाल दोनों को ही एक नई रोशनी में चीजों को देखने की सुविधा प्राप्त हो जाती। कहना न होगा कि भारत में मध्यवर्ग का स्वतंत्र विकास नहीं हो सका जिस तरह से इंग्लैंड और दूसरे औद्योगिक देशों में संभव हुआ। हमारे देश में मध्यवर्ग जमींदारों-किसानों के बीच से पैदा हुआ। कहिए कि अंग्रेजी पढ़ा-लिखा जमींदार वर्ग ही मध्यवर्ग में तब्दील होता गया, उसका कायांतरण न हुआ। इसलिए भारतीय मध्यवर्ग के संस्कार विशुद्ध किसानी संस्कारों के बहुत पास-पास दीखते हैं। मध्यवर्ग के निर्माण की प्रक्रिया भी अपने देश में बहुत धीरे-धीरे और देर से शुरू हुई इसलिए उसके अंतर्विरोधों को दबाया नहीं जा सका। 1857 के विद्रोह की असफलता के पीछे मध्यवर्ग का ढुलमुल रवैया एक प्रमुख कारक की तरह था। कारण शायद यह था कि साम्राज्यवाद के साथ उसकी अभी सीधी टकराहट न हुई थी, उसका अंतर्विरोध तीखा और उग्र न हुआ था। हिन्दी नवजागरण में देशभक्ति और राजभक्ति का जो अंतर्विरोध झलकता है, उसकी शायद यही पृष्ठभूमि थी।

भारतीय नवजागरण दरअसल अपने यहां हिन्दू नवजागरण और मुस्लिम नवजागरण की शक्ल में हुआ। हिन्दी-उर्दू का विवाद इसका एक आवश्यक प्रतिफल की तरह है। हिन्दी-उर्दू का यह विरोध विशेष रूप् से स्कूली बच्चों के लिए शाश्वत सत्य जैसा है। स्कूलों में पढ़ाई जानेवाली पाठ्य पुस्तकें भी इससे बाहर नहीं हैं। कृष्ण कुमार हिन्दी पाठ्य पुस्तकों की गंभीर छानबीन के आधार पर यह कहने की स्थिति में होते हैं कि ‘भाषा का शिक्षण बिम्ब निर्माण और कल्पित सृष्टि में रमने की सामर्थ्य पैदा करने की जगह आनुष्ठानिक उच्चार की ट्रेनिंग बन जाता है, यही हमारी लाखों कक्षाओं में हिन्दी की घंटी में रोज घटनेवाली सांस्कृतिक दुर्घटना है।’

यह कहना कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दी का शिक्षक अगर वर्ग में उर्दू शब्दों का सहज प्रयोग भी करता है तो छात्र कह उठता है-‘श्रीमान! आप उर्दू शब्दों का इतना अधिक प्रयोग क्यों करते है ?’ कुल मिलाकर पुस्तक हिन्दी के अतीत और भविष्य के कई स्तरों को लेकर सोचने की एक दिशा हमें देती है।                                                                 

प्रकाशन: न्यूजब्रेक, 3 जून 2001.    

Monday, August 16, 2010

फिरकापरस्त क्यों भड़कते हैं ‘तमस’ से

भीष्म साहनी एक अच्छे साहित्यकार हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं में सामाजिक समस्याओं से जुड़ने की कोशिश की है। इनकी रचनाओं में हमें विचार या यों कहें कि एक प्रकार के गंभीर दर्शन का आभास होता है। कुछ हिन्दी के आलोचकों द्वारा यह कहे जाने पर कि रचनाओं में विचार से परहेज होना चाहिए, आपने कहा था कि अगर रचनाओं से विचार को निकाल दिया जाये तो शेष बच ही क्या जायेगा। भीष्म साहनी की रचनाओं में इन्हीं विचारों की झलक देखने को मिलती है।
 
ऐसे में साम्प्रदायिकता पर भीष्म साहनी की कलम का चल जाना कोई अनहोनी बात नहीं है। साम्प्रदायिकता पर कुछ भी लिखना इनके लिए एक अनिवार्य शर्त थी। जैसाकि भीष्म साहनी ने इस बात का जिक्र किया है, पंजाबी होने के नाते दंगा पर लिखना इनके लिए जरूरी हो गया था। यह देखकर पाठक यह समझने की भूल न कर बैठें कि पंजाबी अक्सरहां साम्प्रदायिक होते हैं, बल्कि सच्चाई यह है कि पंजाबियों के लिए दंगा करना एक नयी बात है। फिर पंजाब में दंगा हो और भीष्म साहनी की कलम उस पर न चले, एक आश्चर्यजनक बात हो सकती है।
 
भीष्म साहनी ने अपने उपन्यास ‘तमस’ में दंगा की पोल खोलने की कोशिश की है। यह उपन्यास आज से लगभग बारह वर्ष पहले लिखा गया था। इसने एक हद तक दंगा एवं साम्प्रदायिकता को किसी भी प्रकार के पक्षपात तथा पूर्वाग्रह से दूर हटकर दिखाया है। इसमें साम्प्रदायिक सद्भाव स्थापित करने की कोशिश की गई है। ‘तमस’ खासकर स्वतंत्रता प्राप्ति के समय के दंगे को लेकर लिखा गया है। ‘तमस’ को लोगों ने सिर्फ साहित्य तक ही सीमित करके देखने की कोशिश की है। यह एक बहुत बड़ी भूल साबित हो सकती है। ‘तमस’ का आधार कुछ वास्तविक घटनाएं हैं और कुछ भीष्म साहनी के जीवन के सच्चे अनुभव। इसे स्वतंत्रता प्राप्ति के समय के इतिहास से जोड़कर देखना ज्यादा उचित होगा। मेरा तो मानना है कि ‘तमस’ न सिर्फ साहित्य की एक कृति है बल्कि इतिहास भी है।
 
आखिर ‘तमस’ में कौन वैसी चीज है जो सम्प्रदायवादियों को नागवार लगती है। इसकी वजह यह है कि ‘तमस’ तमाम साम्प्रदायिक ताकतों को बेनकाब करता है। ‘तमस’ एक इतिहास भी है। ऐसे इतिहास पर साम्प्रदायिकों का हमला होना स्वाभाविक है।
 
‘तमस’ भारतीय इतिहास की एक सच्ची घटना है। इसमें स्वतंत्रता प्राप्ति के समय के राष्ट्रीय कांग्रेस की समझौतापरस्त नीति को रेखांकित करने की कोशिश की गई है। ‘तमस’ का जनरैल जो सच्चा देशभक्त है जो हिन्दुस्तान की एकता एवं अखंड़ता को अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता है, कहता है कि कांग्रेस पार्टी समझौता में विश्वास करती है। साम्प्रदायिकता के लिए कांग्रेस को भी उसने जिम्मेदार ठहराया। सचमुच अगर इसका सबूत इतिहास के पन्नों से लेने की कोशिश की जाए तो हमें यह मालूम होगा कि स्वतंत्रता के समय की कांग्रेस का चरित्र कुछ इसी तरह का था। कांग्रेस इस समय साम्प्रदायिकता से संघर्ष नहीं समझौता करने की स्थिति में थी। जाहिर है, ‘तमस’ एक इतिहास है।
 
मुख्य रूप से इसमें साम्प्रदायिकता की मूल जड़ को खोजने की कोशिश की गई है। अंग्रेजी राज को भी साम्प्रदायिकता के लिए दोषी साबित किया गया है। अंग्रेजी राज के सरकारी अफसरों ने अनेक जगहों पर दंगा भड़काया। ऐसा देखा गया है कि अंग्रेजी राज में साम्प्रदायिक तनाव बढ़े हैं। यह सच है लेकिन ‘तमस’ का उद्येश्य यहीं आकर समाप्त नहीं हो जाता है। अंग्रेजी राज तो साम्प्रदायिक तनाव का एक अमली उपकरण मात्र है।
 
‘तमस’ को मार्क्सवाद से जोड़कर देखने की जरूरत है। इसमें लेखक ने दंगा के कारणों में सामाजिक-आर्थिक कारण को महत्वपूर्ण बताया है। दंगा का कारण धर्म नहीं है बल्कि सत्य तो यह है कि दंगा शुरू हो जाने पर इसे मुख्य कारण के रूप में भोली जनता के सामने पेश किया जाता है। मसीत के सामने सूअर मरवाकर रखनेवाला कोई हिन्दू नहीं बल्कि वह मुसलमान ही है। जाहिर है, दंगा का आर्थिक कारण होता है, धर्म तो हाथी के सिर्फ दो दिखावटी बड़े दांत है।
 
‘तमस’ का संकेत कुछ और है। इसमें वर्ग संघर्ष है। आम जनता चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान चैन की जिंदगी जीना चाहती है। हर हिन्दुस्तानी मुसलमान अपना घर छोड़ते यही सोच रहा था कि वह इसे सदा के लिए थोड़े ही छोड़ रहा है। जाहिर है, आम जनता साम्प्रदायिक नहीं होती शांति चाहती है।
 
गांव के सारे लोग चाहे वे किसी भी जाति या सम्प्रदाय के क्यों न हों, आपस में सहानुभूति तथा प्रेम के साथ जीना चाहते हैं। उनको भय है तो सिर्फ बाहरी लोगों से। और सच होता भी यही है-जबतक बाहर से दंगाई नहीं आते हैं हरनाम सिंह मजे में अपनी दूकान चला रहा है। गांववालों को उनसे कोई शिकायत नहीं है बल्कि उनके साथ लोगों की सहानुभूति भी है। गांव की जनता उन्हें बार-बार यही कहती है कि तुम्हें खतरा तभी हो सकता है जब बाहरी लोग यहां आ जाएंगे। संक्षेप में, जनता शांति के पक्ष में है।
 
तब यह प्रश्न करना जायज हो जाता है कि दंगा होता क्यों है ? इसका जवाब हमें ‘तमस’ में मिलता है। इसमें यह स्पष्ट दिखाया गया है कि आदमी को कत्ल करने से ज्यादा मकानों को लूटा जाता है। यह सब वैसे लोग करते हैं जिनका एकमात्र उद्येश्य लोगों को लूटना होता है। स्पष्ट है, साम्प्रदायिकता धर्म और सम्प्रदाय का नहीं आर्थिक हितों का सवाल है। संक्षेप में, साम्प्रदायिक दंगा वर्ग संघर्ष का एक विकृत रूप है जिसे रेखांकित करना ‘तमस’ का एकमात्र उद्येश्य है।                         
प्रकाशन: जनशक्ति,  29 फरवरी 1988।

Sunday, August 15, 2010

टेक्स्ट बुक और साम्प्रदायिकता --डॉ अखिलेश कुमार

डॉ अखिलेश कुमार
भारत में जनतांत्रिक शासन व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर देनेवाली सरकार विरोधी शक्तियों में साम्प्रदायिकता का जहर कितना कड़वा है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। वर्षों से सुरसा के समान मुँह  बाये इन साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ सामाजिक एवं प्रशासनिक धरातल पर कदम उठाये गये हैं किंतु वे ताकतें अब भी भारतीय जनमानस को कुरेद रही हैं। जब भारत अंग्रेजी शासन के अधीन था, और उन दिनों जब साम्प्रदायिक दंगे होते थे तो हम यह कहकर साम्प्रदायिकता की समझ पर पर्दा डाल देते थे कि वह शासकों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का परिणाम है। फ्रांसिस रॉबिंसन ने ठीक ही कहा है कि उन दिनों यह फैशन था कि हर बुराई के पीछे शासक वर्ग की भूमिका प्रमाणित कर इतिहासकार असली स्वरूप से वंचित हो जाते थे। आज तो कोई विदेशी शासक नहीं है, फिर आजादी के बाद लगभग प्रति वर्ष साम्प्रदायिक दंगे क्यों ?

साम्प्रदायिकता के अनेक चेहरे हैं। उन्हें बेनकाब करने के लिए उनके कारणों की सही समझ एक अनिवार्य शर्त है। उन परिस्थितियों की खोज करना नितांत आवश्यक है जिससे साम्प्रदायिक चेतना को फलने-फूलने का अवसर मिलता है।

साम्प्रदायिक भावना के विकास में कई एक कारक सहायक हैं जिनमें स्कूल तथा कॉलेज के छात्रों को पाठ्य पुस्तक के रूप में परोसी गयी चीजें तथा शिक्षकों के अपने पूर्वग्रह और उनके पढ़ाने के अंदाज से जाने या अनजाने एक ऐसी रुझान पैदा हो जाती है जिससे साम्प्रदायिक शक्तियां और मजबूत होती हैं। उनकी जड़ें और भी गहरी उतरती जाती हैं। ध्यातव्य है कि शिक्षा के माध्यम से विकसित हो रहे साम्प्रदायिक दुराग्रहों से समाज के वैसे वर्ग बचे रह जाते हैं जो शिक्षा पाने में असमर्थ हैं। यही कारण है कि साम्प्रदायिक चेतना मध्य वर्ग की विशेषता है किंतु गरीब किसान, मजदूर एवं खोमचे उठानेवालों में साम्प्रदायिकता का सर्वथा अभाव है।
जिस तरह से परिवार तथा समाज में पल-बढ़कर एक बच्चा ‘हिन्दू’, ‘मुसलमान’,  ‘सिख’ या ‘ईसाई’ बन जाता है, ठीक उसी तरह पाठ्य पुस्तकों में वर्णित भ्रामक सामग्रियों से भी। लाला लाजपत राय अपने बचपन के दिनों की याद करके ‘आत्मकथा’ में लिखते हैं, ‘इतिहास की एक पुस्तक ‘‘वक्त-ए-हिन्दू’’ जो उस वक्त सरकारी स्कूलों में पढ़ाई जाती थी, ने मुझमें यह भाव भर दिया कि मुसलमान शासकों ने हिन्दुओं पर काफी सितम ढाये। परिणामतः बचपन के पालन-पोषण से इस्लाम के प्रति जो सद्भाव मैंने हासिल किये थे, वे अब घृणा में परिणत हो रहे थे।’

साम्प्रदायिक चेतना के विकास में ये पाठ्य पुस्तकें जितनी प्रभावी हो रही थीं, उनके खिलाफ लड़ाई छेड़ने के लिए भी यह उतनी ही प्रभावी हो सकती थीं। इसमें विश्वास करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था, ‘भारत में तब तक स्थायी प्रेम धार्मिक समुदायों के संबंध में स्थापित नहीं हो सकता जब तक कि इतिहास की पाठ्य पुस्तकों से इतिहास के विकृत अंश को हटा न दिया जाये।’

बदलते हालात को मद्देनजर रखते हुए हाल के वर्षों में समाज वैज्ञानिकों द्वारा साम्प्रदायिकता को शिकस्त देने के लिए मनोवैज्ञानिक धरातल पर काम हुए हैं। मनोवैज्ञानिक परिस्थितियां किस तरह के भाव पैदा करती हैं, इन बातों से स्पष्ट हो सकता है। एक व्यक्ति से मैंने पूछा-क्या आप हिन्दू और इस्लाम को अलग मानते हैं ? उस व्यक्ति ने बेहिचक जवाब दिया-बिल्कुल !  क्योंकि हिन्दू जो काम करते हैं, मुसलमान सब उसके उल्टा करते हैं। जैसे, हिन्दू सूर्य की पूजा तो मुसलमान चांद की। हिन्दू मुर्दे को जलाते हैं तो मुसलमान गाड़ते हैं, आदि आदि। किंतु वे यह नहीं समझ पाते कि दोनों की भौतिक परिस्थितियां भिन्न रही हैं। आर्य ठंडे प्रदेश से आये, इसलिए वे सूर्य की उपासना करते हैं क्योंकि इससे गर्मी मिलती है। मुसलमान अरब प्रदेश से आये जहां गर्मी अधिक है। उन्हें शीतलता चाहिए थी, लिहाजा उन्होंने चन्द्रमा को अधिक महत्व दिया। हिन्दुओं में शव को गाड़ने, जलाने से लेकर पानी में प्रवाहित कर देने तक की सारी प्रथाएं विद्यमान हैं। अतः दोनों में कोई मौलिक अंतर नहीं है।

इतिहास की अधिकतर पुस्तकों में महमूद गजनी को इस्लाम धर्म के प्रचारक-प्रसारक के रूप में वर्णित किया गया है। किंतु मुख्यतः वह लुटेरा था, उसे अपने साम्राज्य-विस्तार के लिए सम्पत्ति चाहिए थी जो उस वक्त मंदिरों में उपलब्ध थी। उसने विशुद्ध आर्थिक कारणों से मंदिरों को लूटा, तबाह किया-धार्मिक कारणों से नहीं। औरंगजेब के संबंध में यह चर्चा इतिहास की अधिकतर पुस्तकों में है कि उसने हिन्दुओ पर ‘जजिया’ कर लगा दिया किंतु ‘जकात’ की चर्चा नहीं होती जो मुसलमानों पर लगा था। संक्षेप में, यह कहना अधिक तर्कसंगत होगा कि औरंगजेब मूलतः एक शासक था और उसका मकसद था धन प्राप्त करना, प्रजा पर शासन करना आदि।

इतिहास को विकृत करके पेश करने की परंपरा उस औपनिवेशिक शासन व्यवस्था की देन है जो ‘फूट डालो और राज करो’ की नींव पर आधारित थी। आजादी के बाद भी कुछ भारतीय इतिहासकारों के बीच ऐसी धारणा पलती-बढ़ती रही है जो औपनिवेशिक सांस्कृतिक विरासत के रूप में आज भी जीवित है। जनवरी 87 के जनशक्ति में ‘इतिहास में लिखी काल्पनिक कथाएं’ शीर्षक से श्री बी. एन. पांडेय का एक लेख आया था। श्री पांडेय इतिहास की एक पुस्तक का हवाला देते हुए कहते हैं कि मैंने उस किताब का टीपू सुल्तान संबंधी अध्याय खोला जिसमें लिखा था कि ‘तीन हजार ब्राह्मणों ने केवल इसलिए आत्महत्या कर ली कि सुल्तान उन्हें जबरन मुसलमान बनाना चाहता था।’ उक्त पुस्तक के लेखक एक सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा. हरप्रसाद शास्त्री हैं। श्री पांडेय ने शास्त्री जी से इस संबंध में जांच-पड़ताल की तो उत्तर मिला कि यह बात उन्होंने मैसूर गजट से ली है। किंतु मैसूर गजट में ऐसी कोई बात नहीं है। जाहिर है, डा. शास्त्री की किताब पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा तथा उत्तर प्रदेश के दसवें वर्ग के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती है। 1972 में तीन हजार ब्राह्मणों की झूठी कहानी उत्तर प्रदेश में जूनियर हाई स्कूल के पाठ्यक्रम में भी मौजूद थी। ऐसी परिस्थिति में अगर साम्प्रदायिक दुराग्रह बढ़ते हों तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

इन तमाम परिस्थितियों को देखने के बाद यह भी सोचना आवश्यक है कि क्या साम्प्रदायिक चेतना से मुक्त साहित्य एवं इतिहास की पुस्तकें इस समस्या का पूर्णतः सफाया कर देंगी ?

पाठ्य पुस्तकों के साथ-साथ शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। शिक्षक, जो कि पाठ्य पुस्तकों एवं बच्चों के बीच एक आवश्यक माध्यम हैं, उनसे भी जाने-अनजाने में इस तरह की चेतना को बढ़ावा मिल जाता है। यहां मेरा उद्येश्य शिक्षकों की नकारात्मक भूमिका को दिखाना नहीं है और न तो इसके लिए शिक्षक को पूर्णतः जिम्मेवार ठहराना। ध्यान देने की बात है कि एक शिक्षक भी समाज की देन है। समाज के एक अणु के रूप में उनका विकास भी एक ‘हिन्दू’, ‘मुसलमान’, ‘सिख’ या ‘ईसाई’ के रूप में हुआ है। किसी के माथे पर तिलक है तो किसी की लम्बी दाढ़ी। एक हिन्दू हैं तो दूसरे मुसलमान। जब तक यह फर्क नहीं मिट जाता तब तक पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष शिक्षा की कामना हम नहीं कर सकते।

बचपन से जो चीजें घुट्टी के साथ पिलायी जाती हैं, उसका असर जीवन पर्यंत बना रहता है। महज पांच-सात वर्ष के बच्चों को जाति एवं धर्म से परिचय करा दिया जाता है। उन्हें ठोक-पीटकर एक खास जाति और धर्म के घेरे में जकड़ दिया जाता है। जब एक बार रंग चढ़ जाता है तो जीवन पर्यंत उससे उबर पाना मुश्किल सा हो जाता है। एक दिन की घटना याद करूं कि एक मित्र ने मुझसे कहा कि ‘आप बिल्कुल मुसलमान लगते हैं।’ मैंने प्रतिवाद किया। पुनः मेरी चेतना लौटी और मैं इस निष्कर्ष पर पहुचा कि मुसलमान दिखना कोई खराबी नहीं है। ऐसा इसलिए हुआ कि घर, परिवार, समाज सबों ने जाने या अनजाने में कोशिश की थी कि मैं एक खास जाति, एक खास धर्म के सदस्य के रूप में पलूं-बढ़ूं। आज तो दीवारों पर ये नारे भी दिखाई पड़ते हैं-‘गर्व से कहो कि हम हिन्दू हैं।

जब तक यह होता रहेगा साम्प्रदायिक सद्भाव स्थापित नहीं हो सकेगा। अतः साम्प्रदायिकता के खिलाफ बुद्धिजीवियों को एकजूट होकर लड़ाई शुरू करने की आवश्यकता है। प्रशासनिक कदम नाकामयाब रहे हैं। अतः आज इससे मुकाबला करने के लिए, मात देने के लिए बौद्धिक जागरण की जरुरत है। यही मरीज की तीमारदारी है।                                  
प्रकाशन -- जनशक्ति, 19 जून 1989।     

Thursday, August 12, 2010

अस्मिता की खोज है भाषा

कर्मेन्दु शिशिर
‘दरअसल भाषा का सवाल कभी सिर्फ भाषा का सवाल वहीं होता। वह अपनी बुनियाद में ही किसी राष्ट्र की और उसकी अस्मिता का सवाल होता है।’ कोई भी भाषा कभी अकेले नहीं हुआ करती है। एक भाषा की मुक्ति का अर्थ है उससे जुड़ी लगभग सभी भाषाओं की मुक्ति। यह सिर्फ भाषा का ही नहीं बल्कि जनबोलियों की अस्मिता और सुरक्षा का भी सवाल है। मातृभाषा में राष्ट्र की आकांक्षा की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है। राष्ट्र को पराधीन बनानेवाली अर्थात् साम्राज्यवादी ताकतें सर्वप्रथम मातृभाषा का नाश करती हैं। अतएव साम्राज्यवादी संस्कृति की जड़ें खोदने में मातृभाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।

भारतवर्ष के इतिहास में हिंदी भाषा का आंदोलन हमारे स्वाधीनता आंदोलन से अभिन्न रूप में जुड़ा हुआ है। स्वतंत्रता आंदोलन के लगभग सारे नेताओं ने राष्ट्रीयता के उदय एवं विकास में हिंदी की गौरवपूर्ण भूमिका को समझा था। गांधी से लेकर जगदीशचन्द्र बसु जैसे वैज्ञानिक तक ने हिंदी भाषा को अपनी आत्मा के रूप में स्वीकार किया था। आज जब हम आजाद हैं फिर भी अपनी भाषा को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, लगता है ऐसी ही स्थिति है शायद। हिंदी-उर्दू विवाद को एक गंभीर राष्ट्रीय बहस का रूप दिया जा रहा है। मजे की बात तो ये है कि इस बहस में साहित्यकारों की तुलना में ज्यादा दिलचस्पी राजनीतिज्ञ ले रहे हैं, जिनके लिए भाषा और धर्म महज इस्तेमाल की चीज हैं।

ऐसी विषम परिस्थिति में जब कोई साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिका, जिसका भाषा समस्या से गहरा ताल्लुक है, हस्तक्षेप करती है तो विभ्रम यथार्थ में बदलने को बाध्य होता है। इलाहाबाद जैसे सांस्कृतिक धरोहर वाले शहर से प्रकाशित ‘कथ्य रूप’ ने साहित्यकारों, राजनीतिज्ञों, संस्कृतिकर्मियों एवं वैज्ञानिकों द्वारा समय-समय पर हिंदी के बारे में उद्धृत उनके विचारों को संकलित कर एक महत्त्वपूर्ण काम किया है। इस पुस्तिका के संपादक चर्चित युवा कथाकार कर्मेन्दु शिशिर हैं। कहना न होगा कि कर्मेन्दु शिशिर के लिए भाषा का सवाल एक बुनियादी सवाल है। वे उससे हमेशा टकराते रहे हैं। भाषा समस्या पर इनके विचारों को ‘पहल’ ने भी एक स्वतंत्र पुस्तिका के रूप में जारी की थी, जो साहित्यकारों के बीच इस दौरान चर्चा में रही।

‘निज भाषा’ की महत्ता को भारतेन्दु ने भी गंभीरता से महसूस किया था। उन्होंने कहा-‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।’ इसी ‘निज भाषा’ के नशे में खोकर कभी गांधीजी ने भी कहा था, ‘दुनिया से कह दो कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता।’ गांधीजी भली-भांति समझते थे कि जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की सारी शक्ति नहीं आ जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाये जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया मार्ग नहीं मिल सकता।’ भाषा की एकता को वे राष्ट्रीय एकता के रूप में लेते थे। गांधीजी जोर देकर कहते थे कि ‘जबतक कांग्रेस यह निश्चय न कर ले कि उसका सारा काम-काज हिंदी में और उसकी प्रांतीय संस्थाओं का प्रांतीय भाषाओं में ही होगा, तब तक वास्तविक रूप में हम जनसम्पर्क स्थापित नहीं कर सकते। राष्ट्रीय एकता हासिल करने का यह एक बहुत जबर्दस्त साधन है और जितना दृढ़ आधार होगा, उतनी ही प्रशस्त हमारी एकता होगी।’ दरअसल, रूस में राज्यक्रांति मातृभाषा पर विशेष बल की वजह से ही हुई।

श्रीपाद अमृत डांगे के लिए ‘अंग्रेजी भारतीय संस्कृति के विनाश की भाषा है। अंग्रेजी उत्पीड़न की भाषा है, अंग्रेजी दासता की भाषा है, अंग्रेजी वह भाषा है जिसने अभिव्यक्तशील भारत को नष्ट किया।’ डांगे मानते हैं कि अंग्रेजी ने हम पर हमला न किया होता तो आज हम कहीं बेहतर स्थिति में होते। लोगों की आम धारणा है कि हमारे देश में राष्ट्रीयता के उदय एवं विकास में अंग्रेजी शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। किंतु डांगे हमेशा कहा करते थे कि ‘मुझे अपनी भाषा पर अभिमान है, मुझे अपने देश पर अभिमान है, लेकिन मैं यह नहीं सुनना चाहता कि प्रगतिशील साहित्य अंग्रेजी से आता है।’

क्रांतिकारियों में भगत सिंह ने भाषा समस्या पर विस्तार से विचार किया है। उनके लिए साहित्य की उन्नत्ति देश की उन्नत्ति है। भाषा एवं साहित्य की महत्ता को ध्यान में रखते हुए भगत सिंह ने यहां तक कहा कि रूसो, वॉल्टेयर के साहित्य के बिना फ्रांस की राज्यक्रांति घटित न हो पाती।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. जयंत नार्लीकर विज्ञान हिंदी में पढ़े थे। बच्चे जिस भाषा में विचार करते हैं, उसी भाषा में विज्ञान पढ़ाना चाहिए क्योंकि विज्ञान सोचने-समझने की चीज है, रटने की नहीं।

इसके अलावा इसमें आचार्य बिनोवा भावे, जगदीशचन्द्र बसु, तिलक, राजगोपालाचारी एवं रवीन्द्रनाथ टैगोर के भी विचार संकलित हैं।

इन तमाम लोगों के विचारों को जानने के बाद हिंदी भाषा और साहित्य की समृद्ध परंपरा की याद हो आती है। डा. रामविलास शर्मा का मानना है कि हिंदी भाषा जितने बड़े क्षेत्र में बोली जाती है, उससे बड़े क्षेत्र में केवल अंग्रेजी, चीनी और रूसी बोली जाती है। जनसंख्या की दृष्टि से अंग्रेजी बोलनेवाले अधिक हैं, उनके बाद दूसरा नंबर हिंदी का है। इस प्रकार जातीयता की दृष्टि से हिंदी बोलनेवालों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। इस विशाल हिंदी भाषी के जनसमूह का जातीय गठन, उसका सांस्कृतिक अभ्युत्थान, उसके साहित्य की प्रगति की महत्त्वपूर्ण कड़ी है, वह समूची मानवता के संदर्भ में भी सही है।                                                                                                     
प्रकाशन: हिन्दुस्तान (दैनिक), पटना, 25 जून 1992।  

Friday, August 6, 2010

कठिन है भगवतशरण पर लिख पाना



डा. खगेन्द्र ठाकु की इस स्वीकारोक्ति से किभगवतशरण उपाध्याय पर लिख पाना एक कठिन काम है’, अधिकतर विद्वान सहमत होंगे। हालांकि खगेन्द जी के लिए, ‘यह आश्चर्यजनक है कि जिस भगवतशरण उपाध्याय ने इतना विशाल साहित्य रचा, उनके बारे में प्रायः नहीं लिखा गया है’, किंतु मेरे लिए इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है। दरअसल, उपाध्याय जी काविशाल साहित्यही उन पर लिखे जाने में बाधा उपस्थित करता है। आज के उत्तर-आधुनिक समय में सब कुछ पढ़ने और विशाल साहित्य रचने को प्रतिभा नहीं माना जाता। इस विशेषीकरण के दौर में ऐसे विद्वानों के लिए कोईखानानहीं बना होता जिसमें उन्हें डालकरखपायाजा सके। आज के समय का पहला सवाल होता है कि आप साहित्यकार हैं, इतिहासकार हैं अथवा कोई समाजशास्त्री हैं। अगर आपका ज्ञान इस तरह के खानों में बंटा है तब तो ठीक वरनाअनुपयोगीऔरअप्रासंगिकहैं। आज के पाठक सुकरात, चाणक्य या मार्क्स के जमाने केपिछड़ेदिमागवाले नहीं हैं कि आप अपना सारा ज्ञान उन्हीं के सम्मुख झाड़ दें। अगर आपहिन्दी साहित्यके विद्यार्थी हैं और अगर संस्कृत एवं अंग्रेजी के लेखकों को पढ़ लिया तो माफी मांगनी पड़ सकती है। खगेन्द्र ठाकुर नेसाहित्य अकादमीके लिए भगवतशरण उपाध्याय पर विनिबंध लिखकर निश्चय ही परंपरा की लीक छोड़ी है। शायद दूसरेधर्मभ्रष्टोंको भी इससे बल मिले।

लेखक ने इस छोटी-सी पुस्तिका (वैसे पुस्तिका छोटी ही होती है!) में भगवतशरण उपाध्याय के विशाल साहित्य को भरसक समेटने की कोशिश की है। मूल्यांकन बहुत ही यथार्थपरक और आलोचकीय दृष्टि से संपन्न है। उपाध्याय जी की जीवनी से लेकर इतिहास, संस्कृति एवं आलोचना के प्रतिमान तक पर रोशनी डाली गई है। यहां तक कि संस्कृत साहित्य में उपाध्याय जी का जो अवदान है, उसकी भी समीक्षा उन्होंने प्रस्तुत की है। कुछ स्थापनाओं को, स्थानाभाव की वजह से छोड़ देना पड़ा होगा। विशेषकर भाषा विज्ञान का क्षेत्र-जिसमें गंभीर काम के लिए रामविलास शर्मा पढ़े और जाने जाते हैं, उपाध्याय जी कई सूत्र छोड़ गए हैं। डा. रामविलास शर्मा को पढ़ते हुए दृष्टि अगर उपाध्याय जी तक फैलाई जाए तो हिन्दी में भाषा-विज्ञान के विकास को समझने में आसानी हो सकती है। खासकर, भाषा-विज्ञान में मार्क्सवाद की जो भूमिका है, उसे पहचानने तथा रेखांकित करने में सहूलियत हो सकती है। संस्कृत और प्राकृत की जो बहस है उसमें उपाध्याय जी पूरी प्रामाणिकता के साथ प्राकृत को मूल भाषा सिद्ध करते हैं और संस्कृत को उसकाविकसितरूप मानते हैं

समाज विज्ञान और विशेषकर इतिहास लेखन के क्षेत्र मेंनीचे से इतिहास’ (हिस्ट्री फ्रॉम बिलो) का जो राग अलापा जाता है, खगेन्द्र ठाकुर ने ठीक ही उसका श्रेय उपाध्याय जी को दिया है। फर्क सिर्फ इतना है कि इतिहासकार स्थितियों का चित्रण कर अपना दायित्व पूरा हुआ मान बैठता है जबकि उपाध्याय जी आज के शोषितों, पीड़ितों एवं दलितों और वंचितों को नया जीवन पाने के लिए संघर्ष करने की चेतना भी देते हैं। इस तरह इतिहास के अध्ययन और साहित्य के लेखन की प्रक्रिया में मानवीय संवेदना को केन्द्र में रखना उपाध्याय जी की विशिष्टता है।
उपाध्याय जी की ही तरह खगेन्द्र ठाकु की द्वन्द्वात्मक इतिहास दृष्टि कहीं-कहीं मलिन हो जाती है। एक जगह वे लिखते हैंमनुष्य अतीत का पुनर्निर्माण नहीं कर सकता है।सच्चाई यह है कि इतिहास दृष्टि में बदलाव के साथ-साथ अतीत के बारे में हमारी धारणाएं भी बदलती हैं और प्रत्येक बार एक दूसरा ही अतीत हमारी आंखों के सामने जीवित होता रहा। अतीत लगातार बदलता रहा, क्योंकि बदले हुए वर्तमान के उद्येश्य दूसरे थे, बिल्कुल नये प्रयोजन थे। कुछ दिनों पहले तक बख्तियार खिल्जी द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय को आग लगाकर जला डालने की बात इतिहास का रटा-रटाया तथ्य थी। आज इसकी निस्सारता से इतिहास का एक सामान्य विद्यार्थी भी परिचित है। इसलिए, बदले हुए वर्तमान में अतीत अपरिवर्तित कैसे रह सकता है।
प्रकाशन: सम्प्रति पथ, दिल्ली, नवंबर-दिसंबर 2005, पृष्ठ 79-80।

Tuesday, July 27, 2010

पंकज की कविता में दलित विमर्श

इतिहास और समाजशास्त्र में अवधारणात्मक परिवर्तन से साहित्य के मानदंडों अथवा प्रतिमानों में भी महान फेरबदल होते देखे जाते हैं। मार्क्सवादी इतिहास-लेखन ने ‘नीचे से इतिहास’ लिखने की परिपाटी की अच्छी शुरुआत की थी और अभिजातवर्गीय दृष्टिकोण की कई मान्यताओं की कई असंगतताएं भी उद्घाटित की थीं। इसके ठीक बाद ‘सबाल्टर्न स्टडीज’ के उद्घोषकों ने इसे भी अपर्याप्त बताते हुए ‘निम्नवर्गीय प्रसंग’ की खोज-बीन जारी की और इतिहास-लेखन की ‘केन्द्रीय सत्ता’ पर धावा बोला। फलतः इतिहास गढ़नेवालों की एक बड़ी फौज इतिहास रचने के पुनीत कर्म में भागीदार हुई और नये-नये विमर्श शुरू हुए। कहना होगा कि इतिहास-लेखन के इस नये ‘ट्रेंड’ के तहत इतिहास में स्त्रियों एवं दलितों की भूमिका को रेखांकित किया गया। यह समाज का वैसा तबका था जो अब तक इतिहास की मुख्यधारा से अलग-थलग नजर आता रहा था। विडंबना कहिए कि इतिहास के समय को सबसे जयादा प्रभावित करनेवाला बहुसंख्यक वर्ग हाशिए पर फेंक दिया गया था और जिसे कई बार अपने अस्तित्व की रक्षा तक की लड़ाई लड़नी पड़ रही थी।
युवा कवि पंकज कुमार चौधरी का कविता-संग्रह उस देश की कथा ऐसे ही अनगिनत संघर्षों की कहानी कहता है। कभी नारीवादी आन्दोलन के शुरुआती दौर के प्रवक्ताओं ने यह कहते हुए कि अब तक के सारे फैसले स्वयं अपराधियों द्वारा लिखे गये फैसले हैं, इतिहास-लेखन को कठघरे मे खड़ा कर डाला था। आज वही आक्रामक मुद्रा हम दलित विमर्श में पाते हैं जो अब तक के संपूर्ण इतिहास-लेखन को शक की दृष्टि से देखता है। उसकी स्थापना है, अब तक का रचा गया सारा साहित्य सवर्णों का साहित्य है। शायद इसीलिए ऐसे साहित्य का परिचयात्मक ‘नोट्स’ लिखते हुए सवर्ण साहित्यकार (अगर ऐसा कुछ होता है) अतिरिक्त सावधानी दिखाते हुए यह टिप्पणी टांक देना भी मुनासिब समझता है कि ‘...लेकिन मैं पंकज को दलित कवि कहकर प्रस्तुत नहीं कर रहा हूं क्योंकि कोई कवि दलित और दमित नहीं होता।’ फिर भी खगेन्द्र जी, आपकी यह टिप्पणी अविश्वसनीय ही रहेगी क्योंकि ‘सवर्णों’ के लेखन को ‘वे’ खुफिया विभाग की रणनीति से ज्यादा कुछ भी नहीं मानते। संभव है, ऐसी समझ के पीछे उनके अंदर का ‘विद्रोह’ ज्यादा ‘विवेक’ कम हो।

सोवियत संघ की नवंबर क्रांति को छोड़ दें तो अब तक के इतिहास के संपूर्ण कालखंड में शासक वर्ग हमेशा ही अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधि वर्ग रहा है एवं सत्ता पर काबिज रहने के लिए वर्गीय विचारधारा के प्रचार हेतु ‘महान’ हथकंडे काम में लाते रहे हैं। शासक वर्ग की संस्कृति के आवश्यक उपादान तैयार करने में इतिहास के हाशिए पर रहनेवाले इन्हीं वर्गों का ‘गुलाम श्रम’ लगता है लेकिन हर बार उन्हें इस बात का अहसास करा दिया जाता है कि चिंतन-दर्शन की विशाल और ‘महान’ परंपरा कायम करने की मानसिक कूवत अथवा क्षमता का उनमें सर्वथा अभाव रहा है। आर्यों के आगमन से अंग्रेजों के भारत छोड़ने तक की इतिहास-यात्रा में गढ़ा गया यह सबसे बड़ा झूठ है। कवि पंकज ने अपनी पहली कविता ‘वे जब-जब राजपथ की ओर मुड़े’ में इसी ‘झूठा-सच’ का पर्दाफाश है, ‘वे जब-जब राजपथ की ओर मुड़े/उनके बारे में प्रचार किया गया कि/उनके पास हाथ तो हो सकते हैं/पर खोपड़ी कहां।’
कहना होगा कि आर्य जब भारत में आए तो खानाबदोश और बर्बर थे। वे अपने साथ कोई संस्कृति लेकर न आए थे। इसलिए भारत में उनका आगमन द्रविड़ों की संस्कृति की तुलना में एक पिछड़ा कदम था। आर्यों का पहला कबीला/जत्था जिन इलाकों में पसरा वहां उन्हें अनार्यों के साथ तीखा संघर्ष करना पड़ा। अनार्यों में दो का नाम लेते हुए आर्य अपने प्रारंभिक साहित्य में अत्यधिक घृणा का प्रदर्शन करते हैं। ये दो मुख्यतः पणि एवं दास थे। डा. रामविलास शर्मा ने भाषा वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर हमें बतलाया है कि हाथ से काम करनेवाले मूलतः दास कहलाए। संस्कृत में ‘हस्त’ एवं ‘हस्तकर्म’ जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति पर गौर करें तो दासों के प्रति आर्यों की ‘स्वाभाविक’ घृणा को समझा जा सकता है। पणि नाम भी आर्य प्रतीत नहीं होता, परंतु इससे व्युत्पन्न कई महत्वपूर्ण शब्द संस्कृत में और इससे बाद की भारतीय भाषाओं में आ गये हैं। हिन्दी का ‘बनिया’ शब्द संस्कृत के ‘वणिक्’ से बना है, परंतु इस वणिक के लिए हमें पणि के अलावा अन्य कोई ‘मूल’ स्रोत हमें अबतक ज्ञात नहीं है। संस्कृत का पण शब्द सिक्के का सूचक है, और क्रय-विक्रय तथा व्यापार की सामान्य वस्तुएं पण्य कहलाती हैं। पणि शब्द का अर्थ मैकडॉनल एवं कीथ ने ‘वेदिक इंडेक्स’ में अंग्रेजी के बेकनॉट से लगाया है जिसका अर्थ सूदखोर होता है। इतिहासकार कोसांबी का मत है कि प्राचीनतम भारतीय सिक्कों के भारमान ठीक वही हैं जो कि मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक वर्ग के वजनों के हैं, और ये ईरान अथवा मेसोपोटामिया में प्रचलित मानकों से भिन्न हैं। ऐसा लगता है कि कुछ सिंधुजनों ने आर्यों की लूट-खसोट से अपने को बचा लिया, और इस प्रकार व्यापार व उत्पादन की पुरानी परंपरा जारी रखी।
ठीक आर्यों की तरह अंगेजों का प्रभु वर्ग जब भारत आया तो अपने कंधे पर एक ‘नैतिक बोझ’ भी ढोता आया। उसने कहा कि भारतीयों का अपना कोई इतिहास नहीं है। इसलिए उनका नैतिक दायित्व बनता था कि असभ्य और जाहिल भारतीयों को सभ्यता-संस्कृति की चाशनी चटाएं। एक बहुप्रचारित झूठ को उसने प्यारा-सा और मोहक नाम दिया-‘गोरी/सभ्य जातियों का भार।’ कवि पंकज कुमार चौधरी को मिथ्या प्रचार के संपूर्ण इतिहास का ज्ञान है, इसलिए वे हमें सचेत करते पूछते हैं-‘वे कौन थे/और किनके बारे में प्रचार करते आ रहे थे/आखिर उनका मकसद क्या था ?’ ऐसे सवाल इतिहास के हरेक दौर में उठते रहे हैं लेकिन उनको समय-समय पर गीता जैसे महान ग्रंथों की अबूझ भाषा से चमत्कृत किया जाता रहा है।

शोषण-शासन की इस प्रक्रिया को अविच्छिन्न बनाये रख पाने में धर्म ने सबसे बड़ी और सबसे कारगर भूमिका अदा की है। शासक वर्ग ने श्रमजीवी जनता को जाति से लेकर गोत्र तक में बांट डाला। धीरे-धीरे जाति और गोत्र निम्न वर्ण के लोगों के लिए गाली की तरह प्रयुक्त होने लगे जबकि सवर्णों को जाति और गोत्र ‘राष्ट्रीय गर्व’ की तरह रटाये जाते रहे। मुझे याद है कि दूसरी जमात में पढ़ते समय एक शिक्षक को जब मैं अपना गोत्र-नाम न बता पाया था तो उसने किस तरह हिकारतभरी नजरों से देखा था। जाति और गोत्र के संस्कार में रंगे उस शिक्षक के दिमाग में कुछ ऐसा भाव था मानो ‘मैं किस परिवार का और कैसा जंतु हूं जिसे इतिहास के इतने बड़े कालखंड में हासिल की गई महान उपलब्धि का भान तक नहीं है।’ पंकज कुमार की कविता ‘गोत्र’ में दलितों की यही ‘अक्षमता/अयोग्यता’ सवाल बनकर खड़ी हो जाती है। पूजा कराते पुरोहित जब अपने दलित यजमान से गोत्रनाम लेने को कहता है तो एक सन्नाटा पसर जाता है। लगता है जैसे उसने इतिहास के सबसे भयानक और त्रासद हादसे की याद दिला दी हो।
‘श्राद्ध का भोज’ कविता में पंकज ने जाति एवं धर्म की रूढ़ियों को चित्रित करने की कोशिश की है। कवि ने गांव के श्राद्ध-भोज की एक सच्ची तस्वीर खींची है। गांवों में जैसाकि ऐसे मौकों पर हमेशा ही होता है, सवर्णों एवं अवर्णों की अलग-अलग पांत बैठती है। गांव के सवर्ण अरबिन्द के लिए ‘अरबिन्द बाबू’ और ‘राजा भाई जी’ जैसे संबोधनों का प्रयोग है। अवर्ण पात्रों के नाम अकलूआ, चट्टूआ, बिसेसरा आदि हैं। जाति एवं सामाजिक व्यवस्था से हमारी भाषा कैसे प्रभावित होती है, कवि ने इसका खास ध्यान रखा है। कैसे एक ही व्यक्ति जो खाद्य-सामग्री परोसनेवाला है, अरबिन्द बाबू से पूछते हुए ‘सब्जी’ शब्द का प्रयोग करता है जबकि अकलूआ, चट्टूआ, बिसेसरा से पूछते हुए ‘तरकारी’ शब्द से ही काम चलाता है। जो व्यक्ति भाषा की गहरी समझ और संवेदना रखता है, पंकज की कविता में इन चीजों पर गौर करेगा। प्रसंगवश, मुझे निराला की कृति ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ की याद आ रही है। बिल्लेसुर, जैसाकि आप सब जानते हैं, विल्लेश्वर है, लेकिन बकरी चरानेवाला (बकरिहा) होने की वजह से लोगों की जुबान पर चढ़ नहीं पाता।
अमानवीय जाति-व्यवस्था का विरोध जितना हो कम है। लेकिन पंकज का विरोध एक सीमा के अंदर का है। जो अवर्ण श्राद्ध-भोज में सम्मिलित हैं वे सामाजिक रूढ़ियों से लड़ते नहीं दिखते, वे अपने स्वयं के अपमान से ज्यादा क्षुब्ध लगते हैं। यह क्षोभ है जाति व्यवस्था में सम्मानजनक स्थिति का न होना। निश्चित रूप से ‘मोक्ष’ और ‘पितरों’ की आत्मा की शांति की भाषा बोलनेवाला दलित क्रांतिकारी भूमिका का निर्वाह नहीं कर सकता। संग्रह की एक कविता है ‘दूसरा भगत सिंह’। इसमें एक अत्यंत सामान्य वय-बुद्धि के एक लड़के का वर्णन है जिसका आदर्श शाहरुख खान है। एक खास तरह की अराजकता है उसके जीवन में, लेकिन कोई वैचारिक चेतना जनित नहीं है। वह ‘हथियारों’ की बातचीत में महज शरीक ही नहीं होता बल्कि उसके रखे जाने की आवश्यकता भी महसूस करता है। कवि उसमें भगत सिंह की छवि देखता है और नव-वर्ष की बधाई देता है। कवि-मुख सेः ‘भूखा रह जाता है छौड़ा/पर मन छोटा नहीं करता है छौड़ा/हम सब दिन क्या ऐसे ही रहेंगे/कहता है छौड़ा/मेरे भी दिन घूरेंगे कहता है छौड़ा।’ यह एक अवसरवादी चरित्र है जो एक अकेले व्यक्ति के जीवन की बेहतरी के सपने देखता है। लगभग इसी प्रसंग की एक दूसरी कविता ‘एक तटस्थ दार्शनिक’ है जिसमें कवि ने अपनी कवि-विरादरी का उपहास किया है। यह मध्यवर्गीय चरित्र की गड़बड़ी लगती है।

पंकज ने ‘चोर और चोर’ कविता में चोरों की दो कोटियां निर्मित की हैं। शायद कोई सुविधा का ख्याल रहा हो। प्रथम कोटि का चोर वह प्राणी है जो सामान्य स्तर की चोरी करता है लेकिन पकड़ा जाता है। लात-घूसों का भी ‘शिकार’ होना पड़ता है। कवि को निस्संदेह इस चोर से गहरी सहानुभूति है। सहानुभूति का असर देखिए-‘और उसे बीच चौराहे पर/उस रोड़े और पत्थर बिछी हुई पर/बूटों की नोक पर/फुटबॉल की तरह उछाल दिया जाता था।’ आगे की कुछ पंक्तियां इस तरह हैं; ‘तत्पश्चात उसकी फ्रैक्चर हो चुकी देह पर/बेल्टों की तड़ातड़ बारिश शुरू कर दी जाती थी/उसे लातों, घुस्सों, मुक्कों, तमाचों/रोड़े और पत्थ्रों से पीट-पीटकर /अंधा, बहरा, गूंगा और लूला बना दिया गया था/उसे बांसों और लकड़ियों से भी डंगाया जा रहा था/उसके ऊपर लोहे की रॉडों का ताबड़तोड़ इस्तेमाल करके /उसके दिमाग को सुन्न कर दिया गया था/और उससे भी नहीं हुआ/तो उसके लहूलुहान मगज पर/चार बोल्डरों को पटक दिया गया।’ कवि इतना भाव-विह्वल है कि हड्डी की जगह देह फ्रैक्चर हो रही है। शायद ऐसे ही समय के लिए मुक्तिबोध ने लिखा था कि भावना बच्चा है, अगर उसे आदमी नहीं बना सकते तो उसकी हत्या कर डालो। लेकिन हमारे कवि को यह पसंद नहीं और वे लोकतंत्र व मानवाधिकार की दुहाई देते हैं:‘दुनिया के सबसे बड़े और महान लोकतंत्र में/मानवाधिकार का साक्षात उल्लंघन हो रहा था।’ कवि का सारा गुस्सा दूसरी कोटि के चोर के खाते में जाता है; ‘और ऐन उसी रोज एक चोर और पकड़ाया था/जो राष्ट्र का खरबों रुपया डकार गया था/पर उसके लिए एयर-कंडिशंड जेल का निर्माण हो रहा था।’ प्रथम कोटि के चोर के लिए कवि सहानुभूति का ठोस आधार गढ़ता है। जरा गौर करें-‘पूस का महीना था/और पूरबा सांय-सांय करती हुई/बेमौसम की बरसात झहरा रही थी/जो जीव-जन्तुओं की हड्डियों में छेद कर जाती थी।’
पंकज उपेक्षित लोगों की आवाज उठाना चाहते हैं लेकिन एक खास तरीके से। वर्ण-व्यवस्था में एक खास वर्ग के लिए जगह तलाशता हुआ। लेकिन इन उपेक्षितों में भारतीय स्त्री नहीं है। संभव है कि यह एक संयोग हो। लेकिन है यह दुखद संयोग ही। कबीर की निम्नलिखित पंक्ति पंकज का दूर तक पीछा करेगी-
मोटी जनेऊ ब्राह्मण पेठो,
ब्राह्मणी को नहीं पहनाई। जनम-जनम को भई वो सूदा, उने परस्यो तने खाई।।