Tuesday, April 13, 2010

अम्बेदकर की इतिहास दृष्टि

जो पीढ़ी इतिहास में हस्तक्षेप नहीं करती, इतिहास निश्चय ही उसका अनादर कर बैठता है। इसलिए इतिहास को प्रभावित करनेवाले गांधी, नेहरु और अम्बेदकर सभी इतिहास की नवीन व्याख्या प्रस्तुत करते हुए इसकी धारा को मोड़ने की कोशिश करते हैं। वे इतिहास की उन धारणाओं, स्थापनाओं से भी टकराते हैं जो समाज को गति प्रदान करती हैं। ‘इतिहास में व्यक्ति की भूमिका’ सदैव विवाद के केन्द्र में रही है। खासकर मार्क्स द्वारा इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या पेश किये जाने के बाद विवाद और भी गहराता नजर आया है। इस सवाल ने अम्बेदकर को भी खासा परेशान किया था। वे लिखते हैं, ‘क्या इतिहास महापुरुषों का जीवन-चरित्र होता है ? यह प्रश्न प्रासंगिक भी है और महत्त्वपूर्ण भी। क्योंकि यदि महापुरुष इतिहास के निर्माता नहीं तो कोई कारण नहीं कि हम सिनेमा के सितारों से अधिक ध्यान उनकी ओर दें।’ (अम्बेदकर वाङ्मय, खंड,1, पृष्ठ 225)। आगे अम्बेदकर इस संबंध में अब तक दिए गए विचारों का एक वर्गीकरण तैयार करते हैं-‘कुछ लोग ऐसे हैं जो इस बात पर जोर देते हैं कि एक व्यक्ति कितना भी महान हो, समय ही उसका सृजनहार है, समय ही उसको बनाता है समय ही सब कुछ करता है। वह कुछ नहीं करता है।’ (वही, पृष्ठ 255)। अम्बेदकर अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए कहते हैं, जिन लोगों का यह विचार व मत है, मेरे विचार से वे इतिहास की गलत व्याख्या करते हैं।’
अम्बेदकर ने इतिहास के सिद्धांतकारों का जो वर्गीकरण किया है उसके अनुसार अगर मानंे तो ‘ऐतिहासिक परिवर्तनों के संबंध में तीन अलग-अलग मत रहे हैं। हमारे पास इतिहास के ऑगेस्टेनियन सिद्धांत हैं जिसके अनुसार इतिहास केवल एक दैवी योजना की अभिव्यंजना है। इसके अंतर्गत मानव जाति को युद्ध तथा पीड़ा झेलते हुए उस समय तक निरंतर बने रहना है जब तक वह दैवी योजना कयामत के दिन पूरी न हो सके। बर्कले का मत है कि इतिहास की रचना भूगोल तथा भौतिकी ने की है। कार्ल मार्क्स ने तीसरा मत प्रतिपादित किया है। उसके अनुसार इतिहास आर्थिक शक्तियों का प्रतिफल है। इन तीनों में से कोई भी यह स्वीकार नहीं करता कि इतिहास महापुरुषों की जीवनी होता है।’ (वही, पृष्ठ 255)। आगे वे और स्पष्ट करते हैं ‘जहां तक बर्कले और मार्क्स का संबंध है, यद्यपि उनके कथन में सत्यता है, परंतु उनके मत पूर्ण सत्य को निरूपित नहीं करते। उनका यह मत बिल्कुल गलत है कि इतिहास के निर्माण में व्यक्ति से इतर शक्तियां ही सब कुछ होती हैं और व्यक्ति का उसे बनाने में कोई हाथ नहीं होता है।’ वही। अम्बेदकर अपना फैसला सुनाते कहते हैं, ‘व्यक्ति से इतर शक्तियां एक निर्धारी कारक होती हैं इससे इनकार नहीं किया जा सकता। परंतु यह बात भी स्वीकारी जानी चाहिए कि व्यक्ति से इतर शक्तियों का प्रभाव व्यक्ति पर निर्भर करता है।’ (वही)।
इतिहास के निर्माण में व्यक्ति की भूमिका को रेखांकित करने के क्रम में अम्बेदकर, कार्लाइल की पंक्ति उद्धृत करना नहीं भूलते। ‘जरूरी नहीं कि कोई युग नष्ट-भ्रष्ट हो ही, यदि वह पर्याप्त महान एवं विद्धान व्यक्ति को प्राप्त कर ले। यदि समय की सही मांग को पहचानने वाले ज्ञान चक्षु हों, उसे सही मार्ग दिखाने का साहस एवं शौर्य हो तो किसी भी युग का उद्धार हो सकता है।’ (वही, पृष्ठ 255) अम्बेदकर के अनुसार यह उनलोगों के लिए एक बिल्कुल निर्णायक उत्तर प्रतीत होता है, जो इतिहास को बनाने में मनुष्य को कोई स्थान देने से इनकार करते हैं। मनुष्य इतिहास के निर्माण का एक साधन है और पर्यावरण संबंधी शक्तियों के, चाहे दैवी हों या सामाजिक, भले ही सर्वप्रथम हों, पर वे अंतिम चीज नहीं हैं। (वही, पृष्ठ 256)। कोई अल्पज्ञात ही कहेगा कि मार्क्स परिवर्तनकारी शक्तियों में व्यक्ति की भूमिका स्वीकार नहीं करते। अलबत्ता ‘दैवी शक्तियों’ पर तो स्वयं इतिहास का भी कोई वश नहीं होता!
इतिहास की अपनी अवधारणा में नेहरु, अम्बेदकर के उलट मार्क्स के ज्यादा करीब हैं और कार्लाइल व हीगेल से कोसों दूर। सन् 1928 में नेहरु ने इतिहास को परिभाषित करते हुए लिखा, ‘इतिहास युद्धों एवं योद्धाओं की कहानी नहीं है। यह हमें कुछ चुनिंदा लोगों के ही बारे में नहीं बताता बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि किसी भी देश में आमजन की स्थिति क्या है। सच्चा इतिहास आमजन का इतिहास होता है जिनके श्रम से किसी देश की महान सभ्यता की नींव पड़ती है। (वी.सी.पी.चौधरी, सेक्यूलरिज्म वर्सस कम्युनलिज्म, पृष्ठ 112)। नेहरु के लिए महापुरुषों के जन्म की घटना भी कोई चमत्कार नहीं है। वे बहुत साफ समझते हैं कि असाधारण समय में अत्यंत साधारण मनुष्य भी कैसे असाधारण हो जाते हैं। नेहरु ने इंदिरा को पत्रों के माध्यम से यह बात तब समझाई थी जब वह महज दस साल की बच्ची थी।
अम्बेदकर ने जिस चीज को समझने के लिए अधिक श्रम और समय दिया है, वह है भारत की जाति व्यवस्था। जाति व्यवस्था को समझने के लिए उन्हें वर्ण व्यवस्था से भी टकराना पड़ा। फलतः कुछ अत्यंत ‘मौलिक’ बातें ढूंढ़ निकाली। उनका मानना है कि ‘जाति का आधारभूत सिद्धांत वर्ण के आधारभूत सिद्धांत से मूल रूप में भिन्न है, बल्कि मूल रूप से परस्पर विरोधी है। पहला सिद्धांत गुण पर आधारित है। यह सारी गड़बड़ी जाति व्यवस्था की है वर्ण व्यवस्था की नहीं।’ शायद इसीलिए अम्बेदकर ‘आदर्श वर्ण व्यवस्था’ को स्थापित करने की बात करते हैं। ‘उसके उद्येश्य से वर्ण व्यवस्था की स्थापना के लिए पहले जाति व्यवस्था को समाप्त करना होगा।’( अम्बेदकर वाङ्मय, खंड,1, पृष्ठ 81)। अम्बेदकर के इस पेंच को थोड़ा ढीला करने के लिए हम यहां महज इतना भर जोड़ देना आवश्यक समझते हैं कि ‘चूंकि वर्ण व्यवस्था में, कल्पित श्रम विभाजन में आरंभ से ही उसके वंशानुगत रूप पर जोर दिया गया, इसलिए वर्ण से जाति का भी बोध हो सकता था और इन दोनों शब्दों का प्रयोग एक दूसरे के स्थान पर भी हो सकता था। बंगाल से प्राप्त दसवीं सदी के एक ताम्रपत्र लेख में उल्लिखित बृहच्छत्रिवण्ण (एक ऐसा गांव जिसमें छत्तीस वर्ण के लोग रहते हैं) नामक गांव से पता चलता है कि आम व्यवहार में इन दोनों शब्दों का प्रयोग बिना किसी भेदभाव के किया जाता था।’ (पुष्पा नियोगी, ब्राह्मणिक सेट्लमेंट्स इन डिफरेंट सब डिवीजन्स ऑफ बंगाल, पृष्ठ 55)। वर्ण और जाति व्यवस्था में सम्मिलित लोगों की दृष्टि में इन दोनों शब्दों के समानार्थी होने से संकेत मिलता है कि वर्ण और जाति दो भिन्न प्रणालियां नहीं बल्कि एक ही प्रणाली थे। और यह तो सर्वविदित ही है कि स्वयं हिन्दू आज भी, जाति प्रथा के वर्ण से लेकर, समाजशास्त्रियों की भाषा में बात करें तो ‘उपजाति’ तक के सभी स्तरों के लिए जाति शब्द का ही प्रयोग करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि वेदोत्तर काल के बौद्ध तथा ब्राह्मण साहित्य में बार-बार उल्लिखित जाति शब्द का मतलब आवश्यक रूप से यह नहीं निकालना चाहिए कि वर्ण व्यवस्था में समाये मूल्यों और व्यवहारों से भिन्न प्रकार के मूल्यों और व्यवहारों पर आधारित कोई जाति व्यवस्था ई. सन् के आरंभ से कुछ सदी पूर्व काम कर रही थी।
अम्बेदकर यह भी कहते हैं कि ‘गुण के आधार पर चातुर्वर्ण्य को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अनर्थकारी नामों से रखना -जिनसे जन्म के आधार पर सामाजिक विभाजन का संकेत मिलता है, समाज के लिए फंदे की तरह है।’( अम्बेदकर वाङ्मय, खंड,1, पृष्ठ 81)। लेकिन दुर्भाग्य है कि इसी फंदे को अपनाकर बौद्ध धर्म क्रांतिकारी हो जाता है अथवा यों कहें कि वर्ण व्यवस्था में विश्वास रखते हुए भी बौद्ध धर्म की क्रांतिकारी भूमिका कायम रहती है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है और अब किसी से छिपा भी नहीं है कि एक गंभीर बहस (आत्मचिन्तन) के बाद गौतम बुद्ध ने क्षत्रिय वर्ण में जन्म लिया। यह और बात है कि यह बहस कहीं बाहर समाज में नहीं बल्कि बुद्ध के अंतर्मन में चली। जातक कथाओं के अध्ययन से साफ पता चलता है कि बुद्ध ब्राह्मण एवं क्षत्रिय कुल में ही जन्म लेना श्रेयस्कर मानते थे। ब्राह्मण-क्षत्रिय कुल के अनुसार क्षत्रिय कुल लोकमान्य है, इसलिए श्रेष्ठ है। क्षत्रियत्त्व की श्रेष्ठता से अम्बेदकर भी खासे प्रभावित लगते हैं। कहना न होगा कि अपनी पुस्तक में अम्बेदकर शूद्र को क्षत्रिय साबित करने में काफी श्रम और समय लगाते हैं। इस तथ्य से कि बुद्ध ने वर्णक्रम को स्वीकार किया है, अम्बेदकर अनजान नहीं हो सकते।
लेकिन कहना पड़ेगा कि अम्बेदकर को इतिहास का अज्ञान (अ-ज्ञान) है। वे कहते हैं, ‘ऐसा प्रतीत होता है कि चातुर्वर्ण्य के समर्थकों ने यह नहीं सोचा कि उनकी इस वर्ण व्यवस्था में स्त्रियों का क्या होगा? क्या उन्हें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-चार वर्णों में विभाजित किया जाएगा या उन्हें अपने पतियों का दर्जा प्राप्त कर लेने दिया जाएगा ? यदि स्त्री का दर्जा शादी के बाद बदल जाएगा तो चातुर्वर्ण्य का क्या होगा अर्थात क्या किसी व्यक्ति का दर्जा उसके गुण पर आधारित होना चाहिए। इस स्थिति में चातुर्वर्ण्य के समर्थकों को स्वीकार करना होगा कि उनकी वर्ण व्यवस्था स्त्रियों पर लागू नहीं होती।’ (वही, पृष्ठ 83)। अम्बेदकर को यह कैसे मालूम नहीं हो सकता कि संपूर्ण हिन्दू शास्त्र (मनुस्मृति विशेष रूप से) में स्त्रियों की गिनती शूद्रों के साथ होती रही है। क्या यह भी किसी को बताने की जरूरत है कि शूद्र की अयोग्ताएं स्त्री की भी अयोग्यताएं हैं। शूद्र और स्त्री भारतीय संस्कृति में वेदपाठ एवं अन्य धार्मिक अधिकारों के मामले में समान रूप से उपेक्षित और वंचित रहे हैं। क्या कोई बता सकता है कि जनेऊ पहनने का अधिकार शूद्र एवं स्त्री में किसे प्राप्त है। संस्कृत नाटकों में स्त्री और शूद्र क्या समान रूप से ‘हीन’ (अपभ्रंश) भाषा का प्रयोग करते नहीं पाये जाते ? इतिहास के ये तथ्य अम्बेदकर के लिए किसी ‘काम’ के साबित नहीं होते। उन्हें तो कबीर की फटकार भी सुनाई नहीं देती-‘‘मोटी जनेऊ ब्राह्मण पेठो, ब्राह्मणी को नहीं पहनाई। जनम जनम को भई वो सूदा, उने परस्यो तने खाई।।’’ कारण शायद यह रहा हो कि स्वयं बुद्ध ने ही स्त्रियों का घोर विरोध कर डाला था। अम्बेदकर में बुद्ध के खिलाफ जाने की हिम्मत न थी। विरासत का तिरस्कार! बौद्ध धर्म-दर्शन शायद अम्बेदकर के लिए ‘डूबते को तिनके का सहारा’ जैसा था।
अम्बेदकर का मानस पूर्वग्रह से ग्रस्त है, इसलिए कई चीजों से जान-बूझकर बचने की कोशिश करता है, पीछा छुड़ाने की शैली में। इसलिए अवैज्ञानिक नतीजे निकाल लेता है। वे कहते हैं, ‘भारतीय इतिहास में केवल एक ऐसा काल है, जिसे स्वतंत्रता, महानता और गौरवपूर्ण युग कहा जाता है। वह युग है मौर्य साम्राज्य। सभी युगों में देश में पराभव और अन्धकार छाया रहा है। लेकिन मौर्य काल में चातुर्वर्ण्य को जड़ मूल से समाप्त कर दिया गया था। मौर्य युग के शूद्र जिनकी संख्या काफी थी, अपने असली रूप में सामने आए और देश के शासक बन गए। इतिहास में पराभव और अंधकार का युग वह था जब चातुर्वर्ण्य देश के अधिकांश भाग में अभिशाप बनकर फैल गया।’ (वही, पृष्ठ 86)। कहना होगा कि मौर्य काल से संबंधित जितने भी देशी-विदेशी विद्वान हैं, चाणक्य से लेकर मेगास्थनीज तक-किसी ने भी चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के लोप की बात न कही है। मौर्य काल का वैभव और उसकी महानता, देशी शूद्रों और कलिंग-युद्ध में लाखों की संख्या में बंदी बनाये गये दासों से पैदा हुई, जिन्हें कृषि-दासों में परिणत कर बड़े-बड़े राजकीय फार्मों में लगाया गया। अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि मौर्यों के पास सबसे बड़ी सेना, सबसे बड़ी नौकरशाही और साथ ही सबसे बड़ी गुप्तचर व्यवस्था थी। शायद यही कारण है कि प्राचीन भारत के इसी ‘महान’ युग में किसानों से टैक्स की अधिकतम दर वसूल की जाती थी। किसान शोषण से तंग आकर गांव तक छोड़ देने को मजबूर थे। तक्षशिला के किसानों ने बिंदुसार एवं अशोक, दोनों ही महान मौर्य शासकों के काल में विद्रोह किया था। चाणक्य राजकोष भरने के लिए सही-गलत कई आश्चर्यजनक तरीके बताता है। वह ‘अर्थशास्त्र’ में लिखता है कि जरूरत पड़ने पर राजा देवताओं की मूर्त्तियां बनवाकर बाजार में बेचे, जनता की धार्मिक भावना का दोहन करे, अंधविश्वास पैदा करे। फिर भी अम्बेदकर के लिए मौर्य काल महान काल है क्योंकि उनकी दृष्टि व्यक्ति से बनती है, समय और समाज की भौतिक सामाजिक परिस्थितियों से नहीं। और फिर शायद इसलिए भी कि इस युग में चातुर्वर्ण्य समाप्त हो गया था, कि शूद्र अपने ‘असली’ (बतौर शासक) रूप में सामने आए थे।

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