Monday, April 19, 2010

उद्धरण का समाजशास्त्र

कहीं पढ़ा नहीं है, सुना है किसी से कि किसी पुस्तक पर चर्चा चल रही थी। एक वक्ता ने उद्धरण की अधिकता को उसकी खामी बता दी। सभा में नामवर सिंह जी भी थे। महाजनो येन गतः स पन्थाः-यह तो शास्त्रोक्त है। ‘सिंह’ हैं तो लीक छोड़कर ही चलेंगे। वे तो अपना शास्त्र खुद गढ़ने में विश्वास रखते हैं, इसलिए ‘एकला चलो’ का राग अलापे। कहा, उद्धरण कोई दोष नहीं बल्कि मेरी तो ईच्छा है कि सिर्फ उद्धरणों की एक किताब लिखूं। सिर्फ दूसरों की बातें हों जिसमें। अपनी कुछ भी नहीं। जितनी और जैसी जानकारी है, नामवर जी की वह ईच्छा अब तक पूरी न हो सकी। हां, कई साल पहले गुणाकर मुले को उस दिशा में कुछ कदम आगे बढ़ते पाया था। कोई दस-बारह साल पहले पटने की ए.एन. सिन्हा इन्स्टीच्यूट में राहुल सांकृत्यायन पर कोई कार्यक्रम था। गुणाकर जी को उसमें अपना पर्चा पढ़ना था। मैं श्रोता था वहां। मुझे लगा, गुणाकर मुले के आलेख में अंग्रेजी भाषा के केवल दो शब्द हैं-‘कोट’ एवं ‘अनकोट’। कहने की जरूरत नहीं कि बाकी के लगभग सारे शब्द राहुल जी के रहे होंगे। पर्चा वितरित न हो पाने की वजह से दुविधा आज तक कायम है। हालांकि केवल इन दो शब्दों का ही उच्चारण गुणाकर मुले ने इतनी नाटकीयता के साथ किया था कि उनकी पाठ-शैली आज तक मुझे अद्वितीय लगती है।
जानकीवल्लभ शास्त्री को लिखे हुए निराला के पत्रों को राजकमल प्रकाशन ने ‘निराला के पत्र’ नाम से प्रकाशित किया है। इसमें भी एक तरह से उद्धरणों की भरमार है। रामविलास जी का मानना है कि ‘रटनेवाला विद्वान उद्धरण ज्यादा देता है, उन्हें समझता कम है।’ (निराला की साहित्य साधना-3, पृष्ठ 39)। जानकीवल्लभ शास्त्री को रटने की घातक/मारक बीमारी थी। ‘‘ ‘चयनिका’ (रवीन्द्रनाथ ठाकुर की चुनी हुई कविताओं का संग्रह) की भांति ‘गोल्डेन ट्रेजरी’ भी घोंट डाली थी’’। (निराला के पत्र, पृष्ठ 28) शास्त्री जी में अंग्रजी भाषा को लेकर एक हीन भावना घर कर गई थी। दरअसल वे अंग्रेजी पढ़ना चाहते थे, दो साल तक इसके लिए उन्होंने प्रयत्न भी किया, ‘‘नान मेट्रिक बाबुओं के दरवाजे-दरवाजे मारा फिरा’’ (उपर्युक्त, पृष्ठ 140), किन्तु सफलता न मिली। ‘‘गांव के दो-एक रईसों ने पिताजी की गरीबी पर तरस खाकर मुझे अंग्रेजी न पढ़ाने की सलाह दी।’’ (उप.) रईसों की इसी ‘‘दुष्ट सम्मति’’ की वजह से शास्त्री जी अंग्रेजी-ज्ञान से वंचित रह गये। ‘अंग्रेजी की पढ़ाई न कर पाने पर अंग्रेजी कविता के उद्धरणों द्वारा अपना ज्ञान प्रदर्शित करने का लोभ ऐसे विद्वान संवरण नहीं कर पाते।’ (निराला की साहित्य साधना-3, पृष्ठ 39)। ‘निराला के पत्र’ में संस्कृत उद्धरणों की अपेक्षा अंग्रेजी के उद्धरण अधिक हैं, इसका यही कारण है।’ (उप.)
उद्धरण की-खासकर अंग्रेजी उद्धरण की बीमारी कुछ नये हिंदी विद्वानों को अपनी चपेट में ले चुकी है। मेरे पास नंदकिशोर नवल द्वारा संपादित पत्रिका ‘कसौटी’ के कुछ अंक (4, 5, 7, 8 एवं 10) हैं। केवल अंक-10 को छोड़कर प्रायः सर्वत्र ही अपूर्वानन्द जी के लेख फैले हुए हैं। अंक-4 में उनका लेख ‘समकालीन कहानी: यथार्थ से स्वप्न तक’ शीर्षक से मुद्रित है। इसमें उनके अंग्रेजी ज्ञान का जलवा नहीं है। अंक-5 में ‘सामाजिक मूल्यांकन और डा. रामविलास शर्मा की आलोचना’ शीर्षक लेख की शुरुआत ही रेमंड विलियम्स की ‘पौलिटिक्स एंड लैटर्स’ से होती है। बीच में भी यत्र-तत्र अंग्रेजी की छौंक लगाने की भरपूर कोशिश है। अंक-7 में ‘आलोचना का दायित्व: कुछ पुराने विचार’ नाम से लेख प्रकाशित है। लेख की शुरुआत अशोक वाजपेयी एवं नामवर सिंह के ‘सटीक’ उद्धरणों से होती है। गनीमत कि ये मूल हिन्दी में हैं। अपूर्वा जी का वश चलता तो उसका भी अंग्रेजी उल्था ही प्रस्तुत करते। हालांकि इसकी क्षतिपूर्ति उन्होंने आगे जाकर कर ली है। देर आए, दुरुस्त आए! पृष्ठ 50 में जॉन मकगावन के हवाले से जेमसन को उद्धृत किया है। ठीक अगली ही पंक्ति में सीधा जेमसन को दे मारा। दूसरे का बोझ भला जॉन मकगावन आखिर कितना और कबतक ढोते?फिर विशुद्ध हिंदी के विद्वानों को ज्यादा-से-ज्यादा अंग्रेजी नामों से परिचय भी तो अभीष्ट था। कहना होगा कि पृष्ठ 50-51 जेमसनमय है। अंक-8 में बाबा नागार्जुन पर लेख है-‘दबी दूब का रूपक’। संस्कृत और पालि के विद्वान बाबा को अंग्रेजी से मुठभेड़ कराई गई है, वह भी गैरों के बहाने-‘इस संदर्भ में किपलिंग के ऊपर इलियट की यह टिप्पणी देखने योग्य है।’ देखने योग्य तो नन्ददुलारे वाजपेयी की टिप्पणी भी है-‘ हिन्दी वाले अधिकतर अंगरेजी साहित्य की चर्चा अपनी धाक जमाने के लिए ही करते हैं...।’ और बात है कि यह टिप्पणी पंत के संदर्भ में की गई थी।

No comments:

Post a Comment