Thursday, September 16, 2010

हिन्दी उपन्यासों के नायक किताबें क्यों नहीं पढ़ते ?

सुरेन्द्र स्निग्ध

विडंबना कहिए कि हिन्दी पाठक के हाथों में किताब देर से पहुंचती है, समीक्षा पहले। ऐसे में पाठक बेचारा आग्रह से मुक्त होकर रचना का आस्वाद लेने से वंचित रह जाता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ। सुरेन्द्र स्निग्ध का उपन्यास ‘छाड़न’ प्रशंसा से उद्बुद्ध माहौल में हाथ लगा। कई ख्यात हस्तियां तारीफ के पुल बांध चुकी थीं। मित्रों में पंकज कुमार चौधरी ने इस पुस्तक को पढ़ने के लिए प्ररित किया। उनका ख्याल था कि रेणु के ‘मैला आंचल’ के बाद यह अपने तरह का पहला उपन्यास है। पूर्णिया जिला इसकी पृष्ठभूमि है और उसका सामाजिक विन्यास इसका कथा विन्यास है। किंतु मैं स्पष्ट शब्दों में कहूं कि ‘छाड़न’ पढ़कर मुझे वैसा कुछ भी नहीं दिखा जैसा साहित्य के ‘महारथियों’ को दिखा। वैसे भी, मुझे तो ‘दृष्टि-दोष’ की शिकायत है!

समीक्ष्य पुस्तक को पढ़ते हुए मेरे दिमाग में पहला सवाल यही उठा कि क्या यह उपन्यास ही है ? उपन्यास का उद्भव पूंजीवादी समाज की निरंतर बढ़ रही जटिलताओं को चित्रित करने हेतु ही हुआ था। इसलिए एक उपन्यास में समाज के ब्यौरे भरे होते हैं और भाषा चित्रात्मक होती है। चित्रात्मकता भाषा के आलंकारिक मात्र होने से संभव नहीं होती बल्कि इसमें जीवन-स्थितियों के चित्र होने चाहिए। कोई भी समाज कई स्तरों पर विभाजित होता है। आप कह ले सकते हैं कि एक समाज में कई-कई समाज होते हैं और यह समाज विकास की मुख्यधारा को निदेशित करते हुए अपने अंतर्विरोधों को भी प्रकट करता है।

टी. एस. एलिएट के शब्दों के सहारे कहा जा सकता है कि एक नया रचनाकार पुरानी व्यवस्था में परिवर्तन लाता है-कुछ जोड़ता है या घटाता है। व्यवस्था में अपनी जगह बनाने के लिए एक रचनाकार की न्यूनतम शर्त है यह। ठीक इसी प्रकार की स्थिति का सामना रचना को भी करना पड़ता है। रचना को अपनी परंपरा से बहस करनी होती है। बहस की इस पूरी प्रक्रिया के दौरान रचना अपना ‘अन्वेषित ज्ञान’ स्थापित करने की कोशिश करती है। रचना का यह अपना ‘अन्वेषित ज्ञान’ ही है जो पाठक को पुरानी दुनिया से एक नई दुनिया में लाती है। और इसीलिए एक रचना की पहली और अंतिम कसौटी भी यही है कि उसे पढ़कर पाठक बदला हुआ महसूस कर रहा है अथवा नहीं। यह बदलाव कोई जरूरी नहीं कि ज्ञान या सूचना के स्तर पर ही हो बल्कि यह हमारी संवेदना को भी बदल सकता है। एक पाठक के नाते मैं ऐसा कह सकने की स्थिति में नहीं हूं कि उक्त रचना मुझे बदल सकी है। पाठक का कायांतरण हुए बगैर रचना अपने उद्येश्यों की पूर्ति नहीं कर सकती। हालांकि विज्ञजन कहेंगे कि कभी-कभी बातों को दोहराने का भी अपना एक खास महत्व है। फिलहाल इस बात से असहमत होने का कोई लाभ नहीं दिखता।

विचार को रचना के भीतर से झांकना चाहिए। परंतु इसका निर्वाह कठिन है। सुरेन्द्र स्निग्ध का लेखक जब असमर्थ होता है तो एक राजनीतिक विश्लेषक की भाषा का प्रयोग करता है। नमूने के तौर पर आप देख सकते हैं, ‘सिक्का बदल गया था। धरमपुर के सारे जमींदार, जो अंग्रेजों की दलाली करते थे, अब कांग्रेस पार्टी के नेता हो गये थे। लंकाशायर के बने हुए कपड़ों की जगह इनलोगों ने खादी वस्त्र धारण कर लिया और अपने सिरों पर गांधी की दुपल्ली टोपियां पहन लीं’ (पृष्ठ 106)। पूरी किताब लेखक की ऐसी भाषा से आक्रांत है। एक उपन्यासकार को उपन्यास और रिपोर्ट की भाषा का अंतर बरकरार रखना चाहिए। एकाध जगह तो वे भाषा के व्यूह में ऐसे फंस जाते हैं कि अपना उद्येश्य तक को अभिव्यक्त कर पाने में अक्षम साबित होते हैं। वे लिखते हैं, ‘नछत्तर मालाकार जिस तरह धमदाहा और भवानीपुर के इलाके के अन्याय के खिलाफ एक नायक के रूप में विख्यात हो चुके थे, उसी तरह सोहन शर्मा ढोलबज्जा, लौआलगाम और रूपौली के दक्षिण-पश्चिम के इलाके के लोगों के बीच एक ऐसे नायक के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे जिसकी लड़ाई नछत्तर मालाकार की लड़ाई से सर्वथा अलग किस्म की थी’ (पृष्ठ 92)। एकाध जगह तो ‘मजदूरिन औरतें’ (पृष्ठ 100) जैसे शब्द का गलत प्रयोग भी है। संभव है कविता में आपको इस तरह की छूट मिल जाये लेकिन गद्य की प्रकृति ऐसा करने से भरसक रोकेगी। और हिन्दी का एक अध्यापक तो इसे माफ करने से रहा!  

सुरेन्द्र स्निग्ध, नक्षत्र मालाकार और सोहन शर्मा के अंतर को स्पष्ट करते कहते हैं, ‘एक अंग्रेजी सत्ता से टकरा रहा था, दूसरा टकरा रहा था अंगरेजों के खैरख्वाह स्थानीय जमींदारों से’ (पृष्ठ 104)। सोहन शर्मा की खुद की बातों पर विश्वास करें तो लेखक की टिप्पणी पर सहज ही अविश्वास होगा-‘जब भी कोई एक भूमिहार हमारे हाथों मारा जाता है, लगता है हम एक जग्गन सिंह को मार रहे हैं। हमने कसम खायी है कि इस इलाके के एक-एक भूमिहार को मार देंगे। हम अपनी आजादी अपने ही ढंग से प्राप्त करेंगे’ (पृष्ठ 92)। 

सामाजिक विद्रूपता को चित्रित करने के लिए लेखक ने यौन शोषण और बलात्कार जैसी घटनाओं को अत्यंत सरलीकृत ढंग से पेश किया है। प्रकाशन जगत की ऐसी कोई मजबूरी रही हो शायद! अपनी संपूर्ण प्रक्रिया में यौन शोषण की घटनाएं अव्यावहारिक और अवैज्ञानिक लगती हैं। ऐसी घटनाओं को चित्रित करती भाषा लेखक की यौन कुंठा को उजागर करती है-‘अचानक सिवसिंह ने गितिया की दोनों टांगों को और फैला दिया था और अपनी पूरी ताकत के साथ अपने को झोंक दिया था गितिया के अक्षत अंगों में।’ कहीं-कहीं आवेश में लेखक सुध-बुध खो बैठता है और अवैज्ञानिक बातें गढ़ लेता है-‘जिस दिन से सिवसिंह ने गितिया के कुंवारेपन को भंग किया था उसी दिन से गुमसुम पड़ी रहती गितिया। अब हर रात शिवसिंह बेखटके दोनों के साथ संभोग करता था।’ ऐसा नहीं माना जा सकता कि शिवसिंह की उम्र का लेखक को अंदाजा न हो। बल्कि यह अतृप्त यौन लालसा ही है जो लेखक के सिर चढ़कर बोलती है।

यह उपन्यास बिहार में कम्युनिस्ट आंदोलन में आए विचलनों की भी चर्चा करता करता है लेकिन बहुत ही हड़बड़ी में। लेखक आनन-फानन में कम्युनिस्ट पार्टियों के अंदर व्याप्त भ्रयटाचार को दिखाकर अपनी छुट्टी ले लेता है। इन आंदोलनों में लोगों ने जो कुर्बानियां दी हैं, लेखक को शायद पता नहीं। या फिर ये तथ्य लेखक के पूर्व नियोजित फैसले को बाधित कर सकते थे। इतिहास बोध के बगैर इतिहास को छेड़ना खतरनाक हो सकता है। कहना होगा कि इस उपन्यास में कई तरह के राजनीतिक  आंदोलनों का चित्रण-विश्लेषण है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से किसी भी आंदोलन का नायक किताबें अथवा पत्रिकाएं पढ़ता नहीं दिखता। मेरी एक पुरानी जिज्ञासा है कि हिन्दी उपन्यासों के नायक किताबें क्यों नहीं पढ़ते ? 

3 comments:

  1. In 1999 I wrote a Hindi novel 'Atmahatya Se Pahle ' . I don't know whether Raju Ranjan accepts it as a novel or not but the hero of my only Hindi novel reads books .

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  2. बहुत ही अछि जानकारी दी आपने ...लिखते रहे /बिहार का नाम रोशन करते रहे

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  3. बहुत ही अछि जानकारी दी आपने ...लिखते रहे /बिहार का नाम रोशन करते रहे

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