Friday, October 8, 2010

ये परंपरागत साधु नहीं हैं


कहानी का मैं अच्छा पाठक अपने को नहीं मानता. कविताओं की तुलना में यह अधिक समय लेती है. फिर इसमें पात्रों की अधिकता भी मेरे अंदर कुछ गड्डमड्ड पैदा कर जाती है. लेकिन हां, कहानी अगर अच्छी लगी तो पढ़े बिना भी नहीं रहा जाता. कविता अगर गड़बड़ भी हो तो एक पठन-वाचन तो किया ही जा सकता है. कहानी के साथ यह सुविधा नहीं है, अतः प्रारंभ में ही कहानी अगर कुछ-कुछ ‘अकहानी’ जैसी लगी तो बिना अतिरिक्त श्रम किये छोड़ बैठता हूं. ऐसा होने-करने का एक संभव कारण शायद यह भी रहा है और जिसकी शिकायत सुवास कुमार ने भी दर्ज की है कि श्आजकल के कथाकार ‘कहानी कहने’ की बनिस्बत ‘कहानी में कहने’ को ज्यादा उपयोगी मानते हैं. या यह भी संभव है कि वे कहानी कहना जानते ही न हों.श् लेकिन इधर मैंने प्रतिभा राय का कहानी-संग्रह ‘निरुत्तर ’ पढ़ा जिसमें मुझे कहानी कहने की कला के दर्शन हुए. हाल की 'हंस ' में प्रकाशित सृंजय की कहानी ‘माप ’ (हंस में छपे पत्र के बाद इसकी मौलिकता संदिग्ध है) एवं भालचन्द्र जोशी की 'दोआबा ' में प्रकाशित कहानी ‘राजा गया दिल्ली’ उल्लेखनीय कहानी कही जा सकती है. हां, एक नाम और मैंने इधर पाया. कुछ ही दिनों पहले हरिओम की कहानी ‘भैया राम’ ‘आजकल ’ के किसी अंक में पढ़ी थी. कहिए कि मैंने पूरी पढ़ी थी. पूरी कहानी पढ़ना मेरे लिए किसी चुनौती से कम नहीं है. कुमार मुकुल जब दिल्ली वापस जाने लगे तो हरिओम का कहानी-संग्रह ‘अमरीका मेरी जान’ (अंतिका प्रकाशन) मेरे पास छोड़ते गये. ‘भैया राम’ (‘भैया राम’ एक असामान्य व्यक्ति की कहानी है जिसका मानसिक विकास नहीं हो सका है और इसीलिए वह अपने-आप को लेकर भी कई तरह के भ्रमों/वहम के बीच जीता है) मैंने पहले ही पढ़ रखी थी. वह कहानी मुझे पसंद भी थी, इसलिए कहिए कि उसके प्रभाव में मैंने उनका संग्रह पढ़ना शुरू किया। ‘भैया राम’ को छोड़कर सारी कहानियां मैं एक सांस में पढ़ गया। मतलब कि उसे खत्म करने के बाद ही मैंने किसी दूसरी किताब की तरफ ध्यान बंटाया. संभव है कि आलोचक इसे बेहतर कहानी का प्रमाण न मानें लेकिन मैं आश्वस्त हूं. मेरा पाठक-मन कहता है कि जो किताब आपसे पढ़वा ले, एक बेहतर किताब की पहली अनिवार्य शर्त तो पूरी कर ही ले जाती है. इस नाते मैं हरिओम की कहानियों को बेहतर कहानी मानने की छूट हासिल करता हूं.

‘भैया राम’ की ही तरह ‘लबड्डा’ कहानी भी एक असामान्य पात्र को केन्द्र में रखकर रची गई है. ‘लबड्डा’ दरअसल अवध प्रदेश की एक झगड़ालू स्त्री की कहानी है. वह अपने ज्यादातर काम बाएं हाथ से करती थी. ऐसी औरत को गांव में ‘लबड़ी’ या ‘लबड्डी’ कहा जाता था. लेकिन लबड्डा सिर्फ़ अपने वाम-हस्ता होने के कारण लबड्डा नहीं थी वह वाममार्गी भी थी. मर्दों के समाज में मर्दों के बनाए-सुझाए सीधे रास्तों से उलट चलने की इच्छा और हिम्मत रखने वाली. पुरुष-प्रधान समाज ने एक स्त्री को ‘पुरुषोचित मान’ यूँ हीं नहीं दिया था-‘लबड्डा के सामने किसी भी मर्द की जबान तो क्या धोती भी खिसक जाती थी.’ लेकिन उसके अंदर एक संवेदनशील दिल भी था. स्त्री चर्चा में लबड्डा ने एक दिन कहा, ‘हे रे बहिनी! बुढ़िया के जाने के बाद बुढ़वा दिन भर उल्लू की तरह दीवार ताकत रहा. मरा तो उसके शरीर और मन को शांती ही मिली होगी. मगर बुढ़वा के जाने से अब घर कूकुर जस काटत है.’ (पृष्ठ ५१) दरअसल लबड्डा और भैया राम जैसे चरित्र की असामान्यता की वजह समाज और पारिवारिक संबंधों में मौजूद हैं
कहना न होगा कि इस संग्रह में कुल दस कहानियां हैं जिनमें पांच कहानियां ‘आम भारतीय मुसलमानों के जीवन के सच को सामने लाने’, साम्प्रदायिकता की समस्या के मूल कारणों की खोज करने, और बेहद ‘संवेदनशील तरीके से उनकी चेतना पर छाये खौफ और गहरी तकलीफ को समझने’ की कोशिश करती हैं। इन कहानियों का परिवेश अलग-अलग है. लेकिन सारे मुस्लिम पात्र एक-सा दर्द झेल रहे हैं, परायेपन और घृणा का दर्द.’ एक असुरक्षा बोध के साथ.

संग्रह की पहली कहानी ‘मियां’ है. यह अपने गांव के परिवेश में रहमत तेली बन चुके रहमत मियां की कहानी है. यानी कि वे मुसलमान थे . लेकिन चूँकि कई पीढ़ी से वे तेल पेरने का काम करते चले आ रहे हैं, इसलिए, रहमत तेली हुए. यानी पेशे से वे तेली हैं. सुनने में यह बात थोड़ी असहज, अजीब भले लगती हो किन्तु यह एक वास्तविकता है. यह कहानी सधी हुई भाषा में चुपके से, बगैर किसी सूत्र का दामन पकड़े गांव के सांप्रदायीकरण की बात दिखाती है. सामान्य जीवन में, गांव की संस्कृति में हिन्दू-मुसलमान का कोई भेद नहीं है. रहमत मियां कब नमाज अदा करते हैं, किसी को कुछ नहीं मालूम. इतना ही कि वे कहीं किसी समय पढ़ लेते होंगे. इस कहानी को पढ़ते हुए मुझे भीष्म साहनी का उपन्यास ‘तमस’ याद आता रहा. उस उपन्यास में भी गांव के सारे ही लोग, चाहे वे किसी भी जाति या सम्प्रदाय के क्यों न हों, आपस में सहानुभूति तथा प्रेम के साथ जीना चाहते हैं. उनको भय है तो सिर्फ बाहरी लोगों से. और सच में होता भी यही है-जब तक बाहर से दंगाई नहीं आते हैं, हरनाम सिंह मजे में अपनी दूकान चला रहा होता है. गांववालों को उनसे कोई शिकायत नहीं है, बल्कि उनके साथ लोगों की सहानुभूति भी है. गांव की जनता उन्हें बार-बार यही कहती है कि ‘तुम्हें खतरा तभी हो सकता है जब बाहरी लोग यहां आ जाएंगे.’ ‘मियां’ कहानी में हरिओम ने यही बताया है कि एक दिन गांव में कुछ साधु आते हैं. ये और बात है कि ‘ऐसे साधू पहले गांव में कभी नहीं आए. बिल्कुल नई उम्र हैं...खास बात तो यह कि उनके पास न तो भजन-कीर्तन का कोई सामान है और न ही भीख का झोला.’ ये परंपरागत साधु नहीं हैं. इन्हीं साधुओं ने पहली बार रहमत तेली को रहमत मियां कहा-‘रहमत के कानों ने ऐसी आवाज और ऐसा सम्बोधन पहली बार सुना था. आमतौर पर रहमत के घर आने वाले सीधे दालान तक पहुंच कर रहमत को पुकारते थे और रहमत बैठे-बैठे ही बात करते थे पर इस सम्बोधन में ऐसा कुछ था कि रहमत खड़े हो गए. वे जानते थे कि मियां मुसलमान को कहते हैं और यह भी कि वह तेली से पहले मुसलमान हैं. खड़े वह इसलिए हुए कि इस सम्बोधन से उन्हें पता चल गया था कि उनके दरवाजे पर गांव के बाहर का कोई व्यक्ति खड़ा है’ (पृष्ठ 17). कहानी का क्लाइमेक्स ही अंत है-‘न जाने रहमत को क्या सूझा उन्होंने पूछ लिया, ‘‘काम क्या है भइया?’’ तीसरे ने बेलाग कहा, ‘‘हमें शाम तक एक सौ आठ छोटे त्रिशूल चाहिए.’’(वही).

संग्रह की दूसरी कहानी ‘जय हिन्द’ है. यह एक ऐसे निम्न मध्यवर्गीय परिवार की कहानी है जो पलायन और विस्थापन का दर्द लिये कस्बे में जीवन-यापन करने को अभिशप्त है. कहानी गांव से शुरू होती है. इस कहानी का पात्र बब्बू है. वह मुसलमान है लेकिन जूते गांठने का काम कर अपने परिवार का भरन-पोषण करता है. आर्थिक विकास की आंधी ने उनके इस पुश्तैनी/परंपरागत हूनर को जीविकोपार्जन के लिए अपर्याप्त/अनुपयोगी साबित कर दिया. नतीजतन काम की तलाश में वे एक कस्बे में आ पहुंचे जहां कई पुरानी और चिर स्थायी समस्यायों के साथ ‘विस्थापन और परायेपन’ का दर्द भी घुल-मिल गया. बब्बू अक्सर कहते, ‘अपनी पुश्तैनी जमीन को छोड़कर कोई कहीं जाय, कितनी ही मौज कर पर रहता पराया का पराया ही है.’ (जय हिन्द, पृष्ठ १९). बब्बू की ‘पहचान’ एक ‘मुसलमान’ की थी क्योंकि वे ‘जिस देश-समाज में रहते थे वहां जात-पात, पहचान और नाम आसानी से नहीं बदलते थे.’ इस कस्बे में बब्बू के बेटे बन्ने की अपनी निराली जिंदगी भी शुरू होती है. बन्ने बेहद सीधे-साधे, भोले-भाले, किसी को नुकसान न पहुंचाने वाले, किसी का कोई भी काम करने को तैयार रहने वाले चरित्र हैं. लेकिन जो सिर्फ इस कारण मार दिए जाते हैं कि वे मुसलमान हैं. लेकिन बन्ने की जो दिनचर्या थी उसमें इस ‘पहचान’ की कोई भूमिका न थी. देश के अन्य शहरों की तरह वहां भी बाबा का एक आश्रम था. ‘बन्ने मुहल्ला-सड़क घूमते हुए और कहीं रुकते रहे हों या नहीं, आश्रम अवश्य पहुँचते थे.’ जो इस बात को खोलती है कि साम्प्रदायिक दंगों में अक्सर बन्ने जैसे निर्दोष लोग ही मारे जाते हैं। बन्ने इस कहानी का एक ऐसा पात्र है जो जीवन जीने के ‘अनिवार्य’ छल-छद्म हैं, उससे भी वाकिफ नहीं है. बन्ने के जीवन में एक भयावह रात आयी और उसे मृत्यु की गोद में सुला गयी. अचानक ‘रात में शहर के एक कोने से धुआँ उठा और आसमान अजूबे शोर में घुल गया. रात गरम हो उठी थी. छतों पर सोनेवाले घरों की खिड़कियों से हवा की पीली गंध महसूस कर रहे थे’ (पृष्ठ 26). कहानी की अंतिम पंक्ति- ‘यह शायद पहली बार था कि इतने ढेर सारे अफसरों की मौजूदगी के बावजूद बन्ने ने ‘जयहिन्द’ नहीं कहा, विशेष महत्व रखती है. यह बन्ने के साथ ‘जय हिन्द’ की भी हत्या थी शायद.

ये धुंआ धुंआ अंधेरा, जो छात्र राजनीति, आजादख्याल मुस्लिम नवयुवती नसीम के जीवन-प्रश्न तथा सांप्रदायिक दंगों के दौरान अखबार और खबरिया चौनल की ‘भाषायी भूमिका’ पर टिप्पणी से शुरू होती है-‘‘कहीं एक ट्रेन में लगी आग से कुछ लोग मरे थे और फिर ‘स्वाभाविक प्रतिक्रियास्वरूप’ हजारों लोग क़त्ल कर दिए गए थे.’’ लेकिन कहानी का अंत सांप्रदायिक कत्लेआम की पृष्ठभूमि में एक पराजयबोध में होता है. बीच में कहानी कई अन्य चीजों को भी अनावृत करती है. इस कहानी के पात्रों में अनीस, नसीम तथा जयराज हैं. अनीस और नसीम मुसलमान हैं और जयराज गांव से शहर गया हुआ हिंदू. जयराज अभी अपने धार्मिक संस्कारों से मुक्त नहीं हो सका है जबकि अनीस और नसीम कामरेड हो चुके हैं. कामरेड बनने के लिए वर्जनाओं और पुराने संस्कारों से मुक्त होना होता है. शायद सिगरेट-शराब की भी कोई भूमिका हो. अनीस के कमरे में ‘फर्श पर दरियाँ बिछी हुई थीं जिनपर अनीस के अलावा अक्सर कुछ अजनबी चेहरे लेटे-बैठे, सिगरेट फूंकते मिलते थे.’(पृष्ठ ९३). एक दिन ‘नसीम ने दो-तीन कश लेते हुए सिगरेट जयराज की तरफ बढ़ाई ...जयराज ने न में सिर हिलाया.’ जयराज के इनकार पर अनीस तिलमिला-सा गया. उसे लगा जैसे जयराज ‘क्रांति’ से ‘मुख मोड़ रहा हो. अतएव उसने चुटकी ली, ‘’ले लो यार. कैसे कामरेड हो. इतनी बड़ी पेशकश ठुकरा रहे हो. आखिर कब तक दकियानूस मजहबी संस्कारों का लबादा ढोओगे.’’(पृष्ठ ९६). कहानी का अंत जयराज की सिगरेट की लत के साथ होता है. शायद इसका कोई सांकेतिक प्रयोग हो.

यह भी सही है कि अनीस, नसीम और जयराज देश-समाज की मुक्ति की चिंता में व्यस्त तो थे लेकिन आपस में एक-दूसरे से सब अलहदा थे. बहुत कम जानते थे एक-दूसरे की ‘निजी’ जिंदगी और परिवार के बारे में. जयराज को ‘याद नहीं कि नसीम या अनीस में से किसी ने कभी अपने घर-परिवार के बारे में कोई बात की हो. उनकी चिंताओं में उनके परिवार की चिंताएं कभी शामिल देखी नहीं जयराज ने.’ कहना न होगा कि दो कामरेड (नसीम और जयराज) जो एक दूसरे को चाहते हैं, उनके बीच भी एक अजीब-सी दूरी है कि जब मुस्लिम धर्मावलंबियों का कत्लेआम होता है, उनकी बस्तियां जलाई जाती हैं, औरतों के साथ बलात्कार होता है, और खुद नसीम की बस्ती भी इससे नहीं बच पाती, तब दोनों अपनी अपनी जिंदगियों में अकेले रह जाते हैं. दुखद है कि ऐसी ही दूरी पार्टी कार्यालयों से लेकर पोलितब्यूरो के कामरेडों तक पसरी हुई है.

साम्प्रदायिकता की समस्या को समझने की कोशिश इस कहानी की मूल चिंता में शामिल लगती है. नसीम ने जयराज से कभी कहा था, ‘कॉमरेड ! जब तक यह मजहब और धर्म की घुट्टी हमारी दादी-नानियां और पंडित-मौलवी बच्चों को पिलाते रहेंगे, फिरकापरस्ती का यह सियासी तमाशा चलता रहेगा. ये मदारी इसी तरह डमरू बजाते रहेंगे और जनता जमूरे की तरह नाचती रहेगी’(पृष्ठ १०४-०५). लेकिन साम्प्रदायिकता के असली कारण धार्मिक न होकर आर्थिक-राजनीतिक हैं- इस बात का अनावरण करती कहानी है ‘अमरीका मेरी जान’. कहानीकार ने बड़ी बारीकी से दिखाने की कोशिश की है कि धर्मनिरपेक्ष सरकार के अहम प्रतिनिधि माने जानेवाले विधायक अपनी चुनावी राजनीति/रणनीति की सफलता के लिए आम हिंदू-मुसलमान की सोयी धार्मिक चेतना को हवा देने से बाज नहीं आते. वे दोनों ही संप्रदायों के स्थानीय नेताओं (आफताब मियां व परताप) का इस्तेमाल करते हुए अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति करते हैं. जब लोगों की धार्मिक चेतना जग जाती है तो जनता के साथ ही पुलिस बल भी धार्मिक उन्माद का शिकार हो जाता है. सिपाही पाण्डेय का ‘सोया हिंदू मन’ जब जगता है तो मुसलमानों के प्रति अपनी घृणा को सम्पादित तक करने की जरूरत महसूस नहीं करता. वह कितनी सहजता से, और कैसी ‘टिपिकल’ भाषा में अपनी नफरत जाहिर करता है, वह देखने लायक है-‘जयहिंद सर ! कुछ खास नहीं सर ! अब पूजा पाठ करने पर भी मुल्लों को मिरची लगती है.’ (पृष्ठ ११९ ).

यह सिर्फ़ कहानी की बात नहीं है. यानी इस महज कहानी की काल्पनिक बात कहकर ख़ारिज नहीं कर सकते. यदि हम सरकारी आंकड़ों का ही यकीन करें तब भी हम यही पाएंगे कि ‘सन १९८० के बाद हर दंगे में मरनेवालों में ज्यादातर मुसलमान थे. न सिर्फ ज्यादा बल्कि अधिकतर मामलों में तो तीन-चौथाई से भी ज्यादा. इनमें पुलिस कार्यवाही भी अधिकतर मुसलमानों के खिलाफ ही हुई. अर्थात् जिन दंगों में मरनेवाले अधिकतर मुसलमान थे उनमें भी पुलिस की गाज उन्हीं पर गिरी. मतलब ज्यादा मुसलमान गिरफ्तार हुए, अधिक तलाशियां भी उन्हीं के घरों की हुईं और उन दंगों में भी जहां मरनेवाले तीन-चौथाई से अधिक मुसलमान थे; वहां भी अगर पुलिस ने गोली चलायी तो उनके शिकार भी मुख्य रूप से मुसलमान ही हुए’ (विभूति नारायण राय, राष्ट्रीय सहारा, २४ जुलाई २०१०). इसीलिए डॉक्टर रामविलास शर्मा की कहीं पढ़ी यह बात कि ‘राज्य को धर्मनिरपेक्ष नहीं, असाम्प्रदायिक होना चाहिए’ बार-बार याद आती है.

4 comments:

  1. Sar ye Lekhak ki samiksha hai kya?

    ReplyDelete
  2. इत्ता सब कुछ जानने के लिए अभी मुझे और बड़ा होना होगा.

    'पाखी की दुनिया' में भी आपका स्वागत है.

    ReplyDelete
  3. aam aadmi ke jazbaat ko kaise istemaal kiya jata hai, aur voh kis tarah khel ka hissa ho jata hai ise achchhe tareeqe se ujagar karti kahaniyaN.
    saadhuvaad is koshish ko jaari rakhiye,inshaAllah vo subah kabhi to hogi ki awam in baatoN ko jaan-samajh legi.shukriya.

    ReplyDelete
  4. समीक्षा संतुलित है लेकिन कोई आवश्यक पक्ष छूटा नहीं है.साम्प्रदायिकता पर पुनर्विचार हर कोण से आवश्यक है और वह कहानियों की भावभूमि में भी है और समीक्षा में भे इस प्रसंग को बहुत अच्छी तरह उठाया गया है.यह बात खटकती है कि समीक्षा में प्रकाशक,प्रकाशन वर्ष और मूल्य का कहीं उल्लेख नहीं है.ऐसी सूचना पुस्तक खरीद कर पढने वालों के लिए उपयोगी रहती है .

    ReplyDelete