Monday, April 19, 2010

उद्धरण का समाजशास्त्र

कहीं पढ़ा नहीं है, सुना है किसी से कि किसी पुस्तक पर चर्चा चल रही थी। एक वक्ता ने उद्धरण की अधिकता को उसकी खामी बता दी। सभा में नामवर सिंह जी भी थे। महाजनो येन गतः स पन्थाः-यह तो शास्त्रोक्त है। ‘सिंह’ हैं तो लीक छोड़कर ही चलेंगे। वे तो अपना शास्त्र खुद गढ़ने में विश्वास रखते हैं, इसलिए ‘एकला चलो’ का राग अलापे। कहा, उद्धरण कोई दोष नहीं बल्कि मेरी तो ईच्छा है कि सिर्फ उद्धरणों की एक किताब लिखूं। सिर्फ दूसरों की बातें हों जिसमें। अपनी कुछ भी नहीं। जितनी और जैसी जानकारी है, नामवर जी की वह ईच्छा अब तक पूरी न हो सकी। हां, कई साल पहले गुणाकर मुले को उस दिशा में कुछ कदम आगे बढ़ते पाया था। कोई दस-बारह साल पहले पटने की ए.एन. सिन्हा इन्स्टीच्यूट में राहुल सांकृत्यायन पर कोई कार्यक्रम था। गुणाकर जी को उसमें अपना पर्चा पढ़ना था। मैं श्रोता था वहां। मुझे लगा, गुणाकर मुले के आलेख में अंग्रेजी भाषा के केवल दो शब्द हैं-‘कोट’ एवं ‘अनकोट’। कहने की जरूरत नहीं कि बाकी के लगभग सारे शब्द राहुल जी के रहे होंगे। पर्चा वितरित न हो पाने की वजह से दुविधा आज तक कायम है। हालांकि केवल इन दो शब्दों का ही उच्चारण गुणाकर मुले ने इतनी नाटकीयता के साथ किया था कि उनकी पाठ-शैली आज तक मुझे अद्वितीय लगती है।
जानकीवल्लभ शास्त्री को लिखे हुए निराला के पत्रों को राजकमल प्रकाशन ने ‘निराला के पत्र’ नाम से प्रकाशित किया है। इसमें भी एक तरह से उद्धरणों की भरमार है। रामविलास जी का मानना है कि ‘रटनेवाला विद्वान उद्धरण ज्यादा देता है, उन्हें समझता कम है।’ (निराला की साहित्य साधना-3, पृष्ठ 39)। जानकीवल्लभ शास्त्री को रटने की घातक/मारक बीमारी थी। ‘‘ ‘चयनिका’ (रवीन्द्रनाथ ठाकुर की चुनी हुई कविताओं का संग्रह) की भांति ‘गोल्डेन ट्रेजरी’ भी घोंट डाली थी’’। (निराला के पत्र, पृष्ठ 28) शास्त्री जी में अंग्रजी भाषा को लेकर एक हीन भावना घर कर गई थी। दरअसल वे अंग्रेजी पढ़ना चाहते थे, दो साल तक इसके लिए उन्होंने प्रयत्न भी किया, ‘‘नान मेट्रिक बाबुओं के दरवाजे-दरवाजे मारा फिरा’’ (उपर्युक्त, पृष्ठ 140), किन्तु सफलता न मिली। ‘‘गांव के दो-एक रईसों ने पिताजी की गरीबी पर तरस खाकर मुझे अंग्रेजी न पढ़ाने की सलाह दी।’’ (उप.) रईसों की इसी ‘‘दुष्ट सम्मति’’ की वजह से शास्त्री जी अंग्रेजी-ज्ञान से वंचित रह गये। ‘अंग्रेजी की पढ़ाई न कर पाने पर अंग्रेजी कविता के उद्धरणों द्वारा अपना ज्ञान प्रदर्शित करने का लोभ ऐसे विद्वान संवरण नहीं कर पाते।’ (निराला की साहित्य साधना-3, पृष्ठ 39)। ‘निराला के पत्र’ में संस्कृत उद्धरणों की अपेक्षा अंग्रेजी के उद्धरण अधिक हैं, इसका यही कारण है।’ (उप.)
उद्धरण की-खासकर अंग्रेजी उद्धरण की बीमारी कुछ नये हिंदी विद्वानों को अपनी चपेट में ले चुकी है। मेरे पास नंदकिशोर नवल द्वारा संपादित पत्रिका ‘कसौटी’ के कुछ अंक (4, 5, 7, 8 एवं 10) हैं। केवल अंक-10 को छोड़कर प्रायः सर्वत्र ही अपूर्वानन्द जी के लेख फैले हुए हैं। अंक-4 में उनका लेख ‘समकालीन कहानी: यथार्थ से स्वप्न तक’ शीर्षक से मुद्रित है। इसमें उनके अंग्रेजी ज्ञान का जलवा नहीं है। अंक-5 में ‘सामाजिक मूल्यांकन और डा. रामविलास शर्मा की आलोचना’ शीर्षक लेख की शुरुआत ही रेमंड विलियम्स की ‘पौलिटिक्स एंड लैटर्स’ से होती है। बीच में भी यत्र-तत्र अंग्रेजी की छौंक लगाने की भरपूर कोशिश है। अंक-7 में ‘आलोचना का दायित्व: कुछ पुराने विचार’ नाम से लेख प्रकाशित है। लेख की शुरुआत अशोक वाजपेयी एवं नामवर सिंह के ‘सटीक’ उद्धरणों से होती है। गनीमत कि ये मूल हिन्दी में हैं। अपूर्वा जी का वश चलता तो उसका भी अंग्रेजी उल्था ही प्रस्तुत करते। हालांकि इसकी क्षतिपूर्ति उन्होंने आगे जाकर कर ली है। देर आए, दुरुस्त आए! पृष्ठ 50 में जॉन मकगावन के हवाले से जेमसन को उद्धृत किया है। ठीक अगली ही पंक्ति में सीधा जेमसन को दे मारा। दूसरे का बोझ भला जॉन मकगावन आखिर कितना और कबतक ढोते?फिर विशुद्ध हिंदी के विद्वानों को ज्यादा-से-ज्यादा अंग्रेजी नामों से परिचय भी तो अभीष्ट था। कहना होगा कि पृष्ठ 50-51 जेमसनमय है। अंक-8 में बाबा नागार्जुन पर लेख है-‘दबी दूब का रूपक’। संस्कृत और पालि के विद्वान बाबा को अंग्रेजी से मुठभेड़ कराई गई है, वह भी गैरों के बहाने-‘इस संदर्भ में किपलिंग के ऊपर इलियट की यह टिप्पणी देखने योग्य है।’ देखने योग्य तो नन्ददुलारे वाजपेयी की टिप्पणी भी है-‘ हिन्दी वाले अधिकतर अंगरेजी साहित्य की चर्चा अपनी धाक जमाने के लिए ही करते हैं...।’ और बात है कि यह टिप्पणी पंत के संदर्भ में की गई थी।

Tuesday, April 13, 2010

अम्बेदकर की इतिहास दृष्टि

जो पीढ़ी इतिहास में हस्तक्षेप नहीं करती, इतिहास निश्चय ही उसका अनादर कर बैठता है। इसलिए इतिहास को प्रभावित करनेवाले गांधी, नेहरु और अम्बेदकर सभी इतिहास की नवीन व्याख्या प्रस्तुत करते हुए इसकी धारा को मोड़ने की कोशिश करते हैं। वे इतिहास की उन धारणाओं, स्थापनाओं से भी टकराते हैं जो समाज को गति प्रदान करती हैं। ‘इतिहास में व्यक्ति की भूमिका’ सदैव विवाद के केन्द्र में रही है। खासकर मार्क्स द्वारा इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या पेश किये जाने के बाद विवाद और भी गहराता नजर आया है। इस सवाल ने अम्बेदकर को भी खासा परेशान किया था। वे लिखते हैं, ‘क्या इतिहास महापुरुषों का जीवन-चरित्र होता है ? यह प्रश्न प्रासंगिक भी है और महत्त्वपूर्ण भी। क्योंकि यदि महापुरुष इतिहास के निर्माता नहीं तो कोई कारण नहीं कि हम सिनेमा के सितारों से अधिक ध्यान उनकी ओर दें।’ (अम्बेदकर वाङ्मय, खंड,1, पृष्ठ 225)। आगे अम्बेदकर इस संबंध में अब तक दिए गए विचारों का एक वर्गीकरण तैयार करते हैं-‘कुछ लोग ऐसे हैं जो इस बात पर जोर देते हैं कि एक व्यक्ति कितना भी महान हो, समय ही उसका सृजनहार है, समय ही उसको बनाता है समय ही सब कुछ करता है। वह कुछ नहीं करता है।’ (वही, पृष्ठ 255)। अम्बेदकर अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए कहते हैं, जिन लोगों का यह विचार व मत है, मेरे विचार से वे इतिहास की गलत व्याख्या करते हैं।’
अम्बेदकर ने इतिहास के सिद्धांतकारों का जो वर्गीकरण किया है उसके अनुसार अगर मानंे तो ‘ऐतिहासिक परिवर्तनों के संबंध में तीन अलग-अलग मत रहे हैं। हमारे पास इतिहास के ऑगेस्टेनियन सिद्धांत हैं जिसके अनुसार इतिहास केवल एक दैवी योजना की अभिव्यंजना है। इसके अंतर्गत मानव जाति को युद्ध तथा पीड़ा झेलते हुए उस समय तक निरंतर बने रहना है जब तक वह दैवी योजना कयामत के दिन पूरी न हो सके। बर्कले का मत है कि इतिहास की रचना भूगोल तथा भौतिकी ने की है। कार्ल मार्क्स ने तीसरा मत प्रतिपादित किया है। उसके अनुसार इतिहास आर्थिक शक्तियों का प्रतिफल है। इन तीनों में से कोई भी यह स्वीकार नहीं करता कि इतिहास महापुरुषों की जीवनी होता है।’ (वही, पृष्ठ 255)। आगे वे और स्पष्ट करते हैं ‘जहां तक बर्कले और मार्क्स का संबंध है, यद्यपि उनके कथन में सत्यता है, परंतु उनके मत पूर्ण सत्य को निरूपित नहीं करते। उनका यह मत बिल्कुल गलत है कि इतिहास के निर्माण में व्यक्ति से इतर शक्तियां ही सब कुछ होती हैं और व्यक्ति का उसे बनाने में कोई हाथ नहीं होता है।’ वही। अम्बेदकर अपना फैसला सुनाते कहते हैं, ‘व्यक्ति से इतर शक्तियां एक निर्धारी कारक होती हैं इससे इनकार नहीं किया जा सकता। परंतु यह बात भी स्वीकारी जानी चाहिए कि व्यक्ति से इतर शक्तियों का प्रभाव व्यक्ति पर निर्भर करता है।’ (वही)।
इतिहास के निर्माण में व्यक्ति की भूमिका को रेखांकित करने के क्रम में अम्बेदकर, कार्लाइल की पंक्ति उद्धृत करना नहीं भूलते। ‘जरूरी नहीं कि कोई युग नष्ट-भ्रष्ट हो ही, यदि वह पर्याप्त महान एवं विद्धान व्यक्ति को प्राप्त कर ले। यदि समय की सही मांग को पहचानने वाले ज्ञान चक्षु हों, उसे सही मार्ग दिखाने का साहस एवं शौर्य हो तो किसी भी युग का उद्धार हो सकता है।’ (वही, पृष्ठ 255) अम्बेदकर के अनुसार यह उनलोगों के लिए एक बिल्कुल निर्णायक उत्तर प्रतीत होता है, जो इतिहास को बनाने में मनुष्य को कोई स्थान देने से इनकार करते हैं। मनुष्य इतिहास के निर्माण का एक साधन है और पर्यावरण संबंधी शक्तियों के, चाहे दैवी हों या सामाजिक, भले ही सर्वप्रथम हों, पर वे अंतिम चीज नहीं हैं। (वही, पृष्ठ 256)। कोई अल्पज्ञात ही कहेगा कि मार्क्स परिवर्तनकारी शक्तियों में व्यक्ति की भूमिका स्वीकार नहीं करते। अलबत्ता ‘दैवी शक्तियों’ पर तो स्वयं इतिहास का भी कोई वश नहीं होता!
इतिहास की अपनी अवधारणा में नेहरु, अम्बेदकर के उलट मार्क्स के ज्यादा करीब हैं और कार्लाइल व हीगेल से कोसों दूर। सन् 1928 में नेहरु ने इतिहास को परिभाषित करते हुए लिखा, ‘इतिहास युद्धों एवं योद्धाओं की कहानी नहीं है। यह हमें कुछ चुनिंदा लोगों के ही बारे में नहीं बताता बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि किसी भी देश में आमजन की स्थिति क्या है। सच्चा इतिहास आमजन का इतिहास होता है जिनके श्रम से किसी देश की महान सभ्यता की नींव पड़ती है। (वी.सी.पी.चौधरी, सेक्यूलरिज्म वर्सस कम्युनलिज्म, पृष्ठ 112)। नेहरु के लिए महापुरुषों के जन्म की घटना भी कोई चमत्कार नहीं है। वे बहुत साफ समझते हैं कि असाधारण समय में अत्यंत साधारण मनुष्य भी कैसे असाधारण हो जाते हैं। नेहरु ने इंदिरा को पत्रों के माध्यम से यह बात तब समझाई थी जब वह महज दस साल की बच्ची थी।
अम्बेदकर ने जिस चीज को समझने के लिए अधिक श्रम और समय दिया है, वह है भारत की जाति व्यवस्था। जाति व्यवस्था को समझने के लिए उन्हें वर्ण व्यवस्था से भी टकराना पड़ा। फलतः कुछ अत्यंत ‘मौलिक’ बातें ढूंढ़ निकाली। उनका मानना है कि ‘जाति का आधारभूत सिद्धांत वर्ण के आधारभूत सिद्धांत से मूल रूप में भिन्न है, बल्कि मूल रूप से परस्पर विरोधी है। पहला सिद्धांत गुण पर आधारित है। यह सारी गड़बड़ी जाति व्यवस्था की है वर्ण व्यवस्था की नहीं।’ शायद इसीलिए अम्बेदकर ‘आदर्श वर्ण व्यवस्था’ को स्थापित करने की बात करते हैं। ‘उसके उद्येश्य से वर्ण व्यवस्था की स्थापना के लिए पहले जाति व्यवस्था को समाप्त करना होगा।’( अम्बेदकर वाङ्मय, खंड,1, पृष्ठ 81)। अम्बेदकर के इस पेंच को थोड़ा ढीला करने के लिए हम यहां महज इतना भर जोड़ देना आवश्यक समझते हैं कि ‘चूंकि वर्ण व्यवस्था में, कल्पित श्रम विभाजन में आरंभ से ही उसके वंशानुगत रूप पर जोर दिया गया, इसलिए वर्ण से जाति का भी बोध हो सकता था और इन दोनों शब्दों का प्रयोग एक दूसरे के स्थान पर भी हो सकता था। बंगाल से प्राप्त दसवीं सदी के एक ताम्रपत्र लेख में उल्लिखित बृहच्छत्रिवण्ण (एक ऐसा गांव जिसमें छत्तीस वर्ण के लोग रहते हैं) नामक गांव से पता चलता है कि आम व्यवहार में इन दोनों शब्दों का प्रयोग बिना किसी भेदभाव के किया जाता था।’ (पुष्पा नियोगी, ब्राह्मणिक सेट्लमेंट्स इन डिफरेंट सब डिवीजन्स ऑफ बंगाल, पृष्ठ 55)। वर्ण और जाति व्यवस्था में सम्मिलित लोगों की दृष्टि में इन दोनों शब्दों के समानार्थी होने से संकेत मिलता है कि वर्ण और जाति दो भिन्न प्रणालियां नहीं बल्कि एक ही प्रणाली थे। और यह तो सर्वविदित ही है कि स्वयं हिन्दू आज भी, जाति प्रथा के वर्ण से लेकर, समाजशास्त्रियों की भाषा में बात करें तो ‘उपजाति’ तक के सभी स्तरों के लिए जाति शब्द का ही प्रयोग करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि वेदोत्तर काल के बौद्ध तथा ब्राह्मण साहित्य में बार-बार उल्लिखित जाति शब्द का मतलब आवश्यक रूप से यह नहीं निकालना चाहिए कि वर्ण व्यवस्था में समाये मूल्यों और व्यवहारों से भिन्न प्रकार के मूल्यों और व्यवहारों पर आधारित कोई जाति व्यवस्था ई. सन् के आरंभ से कुछ सदी पूर्व काम कर रही थी।
अम्बेदकर यह भी कहते हैं कि ‘गुण के आधार पर चातुर्वर्ण्य को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अनर्थकारी नामों से रखना -जिनसे जन्म के आधार पर सामाजिक विभाजन का संकेत मिलता है, समाज के लिए फंदे की तरह है।’( अम्बेदकर वाङ्मय, खंड,1, पृष्ठ 81)। लेकिन दुर्भाग्य है कि इसी फंदे को अपनाकर बौद्ध धर्म क्रांतिकारी हो जाता है अथवा यों कहें कि वर्ण व्यवस्था में विश्वास रखते हुए भी बौद्ध धर्म की क्रांतिकारी भूमिका कायम रहती है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है और अब किसी से छिपा भी नहीं है कि एक गंभीर बहस (आत्मचिन्तन) के बाद गौतम बुद्ध ने क्षत्रिय वर्ण में जन्म लिया। यह और बात है कि यह बहस कहीं बाहर समाज में नहीं बल्कि बुद्ध के अंतर्मन में चली। जातक कथाओं के अध्ययन से साफ पता चलता है कि बुद्ध ब्राह्मण एवं क्षत्रिय कुल में ही जन्म लेना श्रेयस्कर मानते थे। ब्राह्मण-क्षत्रिय कुल के अनुसार क्षत्रिय कुल लोकमान्य है, इसलिए श्रेष्ठ है। क्षत्रियत्त्व की श्रेष्ठता से अम्बेदकर भी खासे प्रभावित लगते हैं। कहना न होगा कि अपनी पुस्तक में अम्बेदकर शूद्र को क्षत्रिय साबित करने में काफी श्रम और समय लगाते हैं। इस तथ्य से कि बुद्ध ने वर्णक्रम को स्वीकार किया है, अम्बेदकर अनजान नहीं हो सकते।
लेकिन कहना पड़ेगा कि अम्बेदकर को इतिहास का अज्ञान (अ-ज्ञान) है। वे कहते हैं, ‘ऐसा प्रतीत होता है कि चातुर्वर्ण्य के समर्थकों ने यह नहीं सोचा कि उनकी इस वर्ण व्यवस्था में स्त्रियों का क्या होगा? क्या उन्हें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-चार वर्णों में विभाजित किया जाएगा या उन्हें अपने पतियों का दर्जा प्राप्त कर लेने दिया जाएगा ? यदि स्त्री का दर्जा शादी के बाद बदल जाएगा तो चातुर्वर्ण्य का क्या होगा अर्थात क्या किसी व्यक्ति का दर्जा उसके गुण पर आधारित होना चाहिए। इस स्थिति में चातुर्वर्ण्य के समर्थकों को स्वीकार करना होगा कि उनकी वर्ण व्यवस्था स्त्रियों पर लागू नहीं होती।’ (वही, पृष्ठ 83)। अम्बेदकर को यह कैसे मालूम नहीं हो सकता कि संपूर्ण हिन्दू शास्त्र (मनुस्मृति विशेष रूप से) में स्त्रियों की गिनती शूद्रों के साथ होती रही है। क्या यह भी किसी को बताने की जरूरत है कि शूद्र की अयोग्ताएं स्त्री की भी अयोग्यताएं हैं। शूद्र और स्त्री भारतीय संस्कृति में वेदपाठ एवं अन्य धार्मिक अधिकारों के मामले में समान रूप से उपेक्षित और वंचित रहे हैं। क्या कोई बता सकता है कि जनेऊ पहनने का अधिकार शूद्र एवं स्त्री में किसे प्राप्त है। संस्कृत नाटकों में स्त्री और शूद्र क्या समान रूप से ‘हीन’ (अपभ्रंश) भाषा का प्रयोग करते नहीं पाये जाते ? इतिहास के ये तथ्य अम्बेदकर के लिए किसी ‘काम’ के साबित नहीं होते। उन्हें तो कबीर की फटकार भी सुनाई नहीं देती-‘‘मोटी जनेऊ ब्राह्मण पेठो, ब्राह्मणी को नहीं पहनाई। जनम जनम को भई वो सूदा, उने परस्यो तने खाई।।’’ कारण शायद यह रहा हो कि स्वयं बुद्ध ने ही स्त्रियों का घोर विरोध कर डाला था। अम्बेदकर में बुद्ध के खिलाफ जाने की हिम्मत न थी। विरासत का तिरस्कार! बौद्ध धर्म-दर्शन शायद अम्बेदकर के लिए ‘डूबते को तिनके का सहारा’ जैसा था।
अम्बेदकर का मानस पूर्वग्रह से ग्रस्त है, इसलिए कई चीजों से जान-बूझकर बचने की कोशिश करता है, पीछा छुड़ाने की शैली में। इसलिए अवैज्ञानिक नतीजे निकाल लेता है। वे कहते हैं, ‘भारतीय इतिहास में केवल एक ऐसा काल है, जिसे स्वतंत्रता, महानता और गौरवपूर्ण युग कहा जाता है। वह युग है मौर्य साम्राज्य। सभी युगों में देश में पराभव और अन्धकार छाया रहा है। लेकिन मौर्य काल में चातुर्वर्ण्य को जड़ मूल से समाप्त कर दिया गया था। मौर्य युग के शूद्र जिनकी संख्या काफी थी, अपने असली रूप में सामने आए और देश के शासक बन गए। इतिहास में पराभव और अंधकार का युग वह था जब चातुर्वर्ण्य देश के अधिकांश भाग में अभिशाप बनकर फैल गया।’ (वही, पृष्ठ 86)। कहना होगा कि मौर्य काल से संबंधित जितने भी देशी-विदेशी विद्वान हैं, चाणक्य से लेकर मेगास्थनीज तक-किसी ने भी चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के लोप की बात न कही है। मौर्य काल का वैभव और उसकी महानता, देशी शूद्रों और कलिंग-युद्ध में लाखों की संख्या में बंदी बनाये गये दासों से पैदा हुई, जिन्हें कृषि-दासों में परिणत कर बड़े-बड़े राजकीय फार्मों में लगाया गया। अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि मौर्यों के पास सबसे बड़ी सेना, सबसे बड़ी नौकरशाही और साथ ही सबसे बड़ी गुप्तचर व्यवस्था थी। शायद यही कारण है कि प्राचीन भारत के इसी ‘महान’ युग में किसानों से टैक्स की अधिकतम दर वसूल की जाती थी। किसान शोषण से तंग आकर गांव तक छोड़ देने को मजबूर थे। तक्षशिला के किसानों ने बिंदुसार एवं अशोक, दोनों ही महान मौर्य शासकों के काल में विद्रोह किया था। चाणक्य राजकोष भरने के लिए सही-गलत कई आश्चर्यजनक तरीके बताता है। वह ‘अर्थशास्त्र’ में लिखता है कि जरूरत पड़ने पर राजा देवताओं की मूर्त्तियां बनवाकर बाजार में बेचे, जनता की धार्मिक भावना का दोहन करे, अंधविश्वास पैदा करे। फिर भी अम्बेदकर के लिए मौर्य काल महान काल है क्योंकि उनकी दृष्टि व्यक्ति से बनती है, समय और समाज की भौतिक सामाजिक परिस्थितियों से नहीं। और फिर शायद इसलिए भी कि इस युग में चातुर्वर्ण्य समाप्त हो गया था, कि शूद्र अपने ‘असली’ (बतौर शासक) रूप में सामने आए थे।

Tuesday, April 6, 2010

श्रम की गांठ से उपजी कविताएं


अपनी पीढ़ी के एक कवि की चर्चा धूमिल की पंक्ति से शुरू करने के लिए विज्ञजन से क्षमा की आशा रखता हूं। ‘कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है।’ मैं इसे थोड़ा सुधारकर कहना चाहता हूं कि ‘आदमी’ होना कविता लिखे जाने की पहली और अनिवार्य शर्त है। व्यक्तित्व के फ्रॉड से ‘बड़ी’ कविता नहीं लिखी जा सकती। बड़ी कविता से मेरा मतलब महान कविता से कतई नहीं है। बड़ी कविता अपनी संपूर्ण रचना-प्रक्रिया में ‘जेनुइन’ होती है। यहां रचना-प्रक्रिया का उल्लेख अकारण नहीं है। समीक्ष्य काव्य-संग्रह ‘परिदृश्य के भीतर’ के कवि को मैंने पूरे एक दशक तक (यह क्रम अब भी जारी है) जाना और ‘झेला’ है। एक ईमानदार और मुखर आदमी को ‘झेलना’ सहज और आसान नहीं होता। इस कवि को मैंने जब भी अपने पास पाया-उसे बोलता-बड़बड़ाता हुआ ही पाया। इतने दिनों तक चप्पलें साथ चटखाने (घसीटने) के बाद मैंने यही महसूस किया कि ‘चुप्पी उसके लिए मौत से भी ज्यादा त्रासद और भयावह है।’
‘परिदृश्य के भीतर’ में सन् 1988 से 99 तक की कुल इक्यानवे कविताएं शामिल हैं। इन तमाम कविताओं का प्रथम पाठक/श्रोता होने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है। इसलिए इन कविताओं की रचना-प्रक्रिया में आनेवाली एक-एक चीज से परिचित हूं। कइयों के तो मुझे दृश्य तक याद हैं कि किन परिस्थितियों में वह कविता जन्म ले रही थी। कहना होगा कि कुमार मुकुल की कविताओं का क्षितिज काफी विस्तृत है। घर-परिवार और आस-पास की चीज से लेकर अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य तक इनकी कविताओं में सहज भाव से शामिल होते हैं। इनकी कविता सोमालिया की दैन्य स्थिति से शुरू होती है और पहाड़, पत्नी से होती हुई महानगरीय जीवन से पलायन करती संवेदना तक को अपना निशाना बनाती है। प्रकृति पर इनके पास सबसे अधिक कविताएं हैं मानो वह उनकी मुट्ठी में हो।
‘सोमालिया’ संग्रह की सबसे छोटी कविता है, लेकिन इस छोटी-सी कविता के माध्यम से कवि विश्वव्यापी ‘कुलीन’ और बर्बर संस्कृति का सबसे अधिक प्रत्याख्यान करती है। पूंजीवाद के भ्रष्टतम रूप ने पूरी मानवीय संवेदना को किस हद तक अमानवीय बना डाला है,उसके पूरे अर्थशास्त्र को इन दो पंक्तियों की कविता से जाना जा सकता है। कविता की पूरी विकास-यात्रा को समझने के लिए इसको उद्धृत करना अत्यंत अनिवार्य है;
‘मुट्ठी भर
अन्न के लिए
गोलियां
मुट्ठी भर
और सभ्यता के कगार पर
आ पहुंचे हम।’

इसे उद्धृत करने का एकमात्र कारण यह नहीं है कि यह छोटी है और ऐसा करना मितव्ययी होना अथवा सुविधाजनक है, बल्कि यह संग्रह की कविता एवं कुमार मुकुल की चेतना का प्रस्थान-बिंदु है। यहां से मुकुल की कविता के कैनवास खुलते हैं।
इस ‘कुलीन’ और बर्बर संस्कृति का रक्तबीज है महान औद्योगिक क्रांति के गर्भ से उपजी बाजार की फासीवादी संस्कृति। उपभोक्तावाद ने हमारी तमाम संवेदना को ग्रस रखा है और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की शक्ल में नव-फासीवादी ताकतें हमारे बीच फिर से पसरने लगी हैं। एक ईमानदार और संवेदनशील कवि भला इस अमानवीय, त्रासद स्थिति को अपनी नियति मानकर चुप कैसे बैठा रह सकता है। उसके पास इतने तफसील हैं इसके कि वह पूरी विनाशलीला को बगैर किसी धुंध के साफ-साफ देख रहा है। संग्रह की दूसरी कविता ‘कउआ’ इसी सत्य को उद्घाटित करती है। कउए को शायद पता नहीं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कितना खाद्य-अखाद्य बना डाला है। किसी को अलग से बताने की जरूरत शायद ही अब शेष हो कि प्रति-वर्ष लाखों की संख्या में गायों का निधन पॉलिथीन खाने से हो रहा है और हमारी अत्यंत ‘सहनशील’ हिंदू सभ्यता कुछ भी कर पाने में असमर्थ साबित हो रही है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन को आये दिन सरकारी वक्तव्यों में जिस तरह पेश किया जा रहा है,लगता है, यह कोई महान् उपलब्धि हो। पचास वर्षों से अधिक के आजाद भारत के इतिहास में गुलामी की याद अब भी ताजा है और कवि की सचेत आंखें उसके फैलते जाल को अपनी पराधीनता का तंबू मान रही हैं। कहना होगा कि भारत में अंग्रेजों का आगमन एक विशुद्ध व्यापारिक कंपनी के रूप् में हुआ था लेकिन धीरे-धीरे देशी निजामों की अदूरदर्शिता और सामान्य जन की ‘कोउ नृप होहिं हमें का हानि’ वाली मुद्रा की वजह से शासक बन बैठे थे। आज स्थिति उससे दो कदम आगे तक जा चुकी है जब हम खुद उसके आने का जश्न मना रहे हैं और सारी दुनिया के सामने दांतें निपोरकर अपना अहोभाग्य बता रहे हैं। सूत्र रूप में यह कहना होगा कि कवि अपने दैनिक जीवन में गांधीवादी शैली से काम चलाते हैं। अपने आस-पास अभावों की एक दुनिया सृजित कर।
कुमार मुकुल से असहमति की गुंजाइश तब होती है जब वे कहते हैं,
‘संस्कृतियों के
इतने रंग-बिरंगे टीलों को छोड़
गंगा की ओर मुंह किए
कहां भागा जा रहा है कउवा।’

हमारे प्यारे कवि के लिए शहर संस्कृति के रंग-बिरंगे टीले से ज्यादा कुछ भी नहीं है। ‘कउवा’ मुकुल की अकेली कविता नहीं है जिसमें शहर के प्रति उपेक्षा का भाव है बल्कि संगह की जिस किसी कविता में भी शहर आता है,वह हीनता-बोध और अपराध-बोध की भावना से ग्रस्त होता है और कवि की कुपित संवेदना का शिकार होता है। इस प्रसंग में कवि की भिन्न-भिन्न कविताओं से चुनी गई पंक्तियों को यहां रखने की अनुमति चाहूंगा। ‘मर्यादाएं हम तोड़ेंगे’ कविता की अंतिम पंक्तियां कुछ इस तरह की हैं,
‘बंदरों-भालुओं से अंटी अयोध्या को
पीटेंगे बांधकर

इसी कंकरीट के जंगल में।’
ऐसा कहते हुए कवि अयोध्या की संपूर्ण ऐतिहासिक गरिमा और उससे जुड़ी हमारी जातीय स्मृतियों को एक गैर-जरूरी चीज साबित कर डालता है। एक और कविता है जिसका शीर्षक है-‘प्यार में’। कविता यों शुरू होती हैः
‘प्यार में महानगरों को छोड़ा हमने
और कस्बों की राह ली
अमावस को मिले हम और
आंखों के तारों की रोशनी में
नाद के चबूतरे पर बैठे हमने
दूज के चांद का इंतजार किया
और भैंस की सींग के बीच से
पश्चिमी कोने पर डूबते चांद को देखा।’
इससे पहले कि मैं कुछ कहूं कवि अपनी ‘पुतैये’ कविता का स्मरण करे। क्या शहर इतना अमानवीय है कि प्यार करने के लिए अब किसी को कस्बों की राह थामनी होगी ? कवि स्वयं लिखता है;
‘महानगर में अब भी तीखा है महुआ
अब भी सुंदर हैं लड़कियां यहां।’
कवि को शायद इस बात का अंदाजा हो कि कस्बों में जो प्रेम-संबंध हैं, जीवन का जो माधुर्य है, उसकी रक्षा के लिए लाखों मजदूर और भिन्न-भिन्न पेशों की चाह लिए नौजवान प्रति-वर्ष किसी-न-किसी शहर को अपना गंतव्य बनाते हैं। यहां उनके हाथों को काम और गांवों में चल रहे/पल रहे प्रेम-संबंधों को खुराक की नमी मिलती है।
शहर के प्रति कवि का जो नजरिया है वह ऐतिहासिक विकास की गलत समझ से बना लगता है। बाजार-संस्कृति का विरोध करने का यह मतलब कतई नहीं होता कि आप प्रगति ही के महत्व को नकार दें। शहर सिर्फ विषैला सर्प नहीं है जो हमेशा फन काढ़े बैठा हो कि कब आदमी आये और उसे डंस लें। अज्ञेय के यहां शहरों के लिए तिरस्कार का भाव है और गांवों का चित्रण ऐसा करते हैं मानों वहां हमेशा ‘ढोल और मादल’ बजते हों। कवि केदारनाथ सिंह के लिए शहर वैसी जगह है जहां इच्छाएं पलती हैं। अब इस सवाल का जवाब तो कुमार मुकुल ही देंगे कि क्या शहरों में स्वयं इसका विरोध करनेवाले कवि और लेखक नहीं बसते ? आपके पास आंकड़ों की कमी नहीं, और आप बता सकते हैं कि शहरों से गांवों के लिए दया की भीख मांगनेवाले कितने गंवई कवि हैं जिन्हें हम भी जानते हों। क्या हम इस बात को कहने का साहस कर सकते हैं कि कविता के जन्म लेने से पाठकों तक लाने का सारा कारोबार इन्हीं नगरों-महानगरों में अंजाम पाता है। हमारे ज्ञान को दुरुस्त करनेवाली कौन-सी किताब और ‘कठिन वक्त की कविता’ की कौन-सी पत्रिका है जिसके कारखाने गांव में हैं ?
शहरों का इतिहास हमारी प्रगति की कहानी कहता है जिसमें लाखों-करोड़ों मजदूरों का श्रम लगा है। संस्कृति के इन टीलों को निर्मित करने में हमारे फौलादी हाथ काम आये हैं। इन्हीं टीलों में किताबों से अंटे तंग से तंग कमरे में अरुण कमल जैसे सुकवि की आत्मा बसती है। उसके एक कोने में सूर्य की तरह उद्भाषित होता पितरिया लोटा भी होता है।
इसी प्रसंग से संबंधित ‘चबूतरा’ शीर्षक की दो कविताएं भी चर्चा की खासतौर से अपेक्षा रखती हैं। इसमें भी कुएं के माध्यम से गांव और शहर (माफ कीजिए, कवि इसे महानगर कहता है) की आत्मा का हमें फर्क बताया गया है। एक कुआं कवि के गांव में है जिसके
‘चबूतरे के पास ही
मेंहदी लगी थी
जो आज तक हरी है
दिन में जिस पर लंगोट सूखते हैं
और रात में उगते हैं सफेद सपने।’

आगे
‘एक कुआं है
महानगर में भी
बिना चबूतरे के
उसके निकट जाने पर ही
पता चलता है कि कुआं है।’

और ऐसा शायद इसलिए है कि ‘महानगर’ के कुएं के लिए कवि की कोई स्मृति नहीं है। इस कुएं के पास कवि ने शाम भी न गुजारी होगी, रात की कौन पूछे। इसीलिए कवि और उनके वर्ग के लोगों के लिए इसका महातम साल में केवल एक बार छठ के अवसर पर जगता है। लेकिन चाय की गुमटीवाला ऐसा नहीं सोचता जिसकी चाय के लिए पानी इसी कुएं से जाता है। सुबह-सुबह कुछ दूधिए भी अपना गेरू वहीं धोते हैं। भिखमंगे भी भरी दोपहरी में वहीं नहाते हैं। कवि को शायद यह मालूम हो कि यह मुहल्ला शहर का वह हिस्सा है जिसका शहरीकरण होना अभी बाकी है। पड़ोस के कई भूखंड अब भी खाली पड़े हैं जिनमे बिल्लियां चूहों के साथ बेखौफ खेलती हैं। जैसे ही अगहन में धान पकते हैं कि उसकी एक लरछी अपनी चोंच में दबाए गौरैया कवि के घर में दाखिल हो जाती है। लेकिन कवि हैं कि
‘कंक्रीट के इस जंगल में
मौसम की निर्जनता
मुझे ही नहीं
इस घरेलू चिड़िया को भी खलेगी।’

कविता का पैरा अभी खत्म भी न होने पाया कि कवि की राय महानगर को लेकर बदल जाती है। वे लिखते हैं, ‘इस नये बसते शहर के पड़ोस में धान की फसल कटेगी।’ शहर के गिर्द फसल की हरियाली हो तो कवि को भला क्या उज्र!
कुमार मुकुल की कविता की विशेषता इस बात में है कि बड़ी-से-बड़ी बात को कम-से-कम शब्दों में कह डालती है। इस लिहाज से संग्रह में कई ऐसी कविताएं हैं जिनमें स्थितियों का ऐसा जबर्दस्त चित्रण है कि एक साथ भाव के कई स्तर खुलते हैं। सामंती व्यवस्था और मानसिकता के विरुद्ध चल रहे नक्सलबाड़ी आन्दोलन को कवि दृश्य-चित्रण प्रस्तुत कर शब्दों की कितनी मितव्ययिता प्रदर्शित करता है-इसका बेहतर नमूना पेश करती है ‘पुतैये’ कविता। कविता की पंक्तियां कुछ इस तरह हैं;
‘यूं चरमराया तो था बांस की चांचर का दरवाजा
प्रतिरोध किया था जस्ते के लोटे ने
ढनमनाया था जोर से
चूल्हे पर पड़ा काला तावा भी
खड़का था
नीचे गिरते हुए।’

कितने कम शब्द और कहने के लिए कितनी बड़ी बात। कविता की इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मुझे अनायास शमशेर की ‘उषा’ कविता की याद हो आई। अद्भुत चित्रात्मकता इन दोनों कविताओं की जान है। ऐसे ही विरल अवसर के लिए एंगेल्स ने कभी लिखा था कि विचार जितने ही छिपे हों लेखक के लिए उतना ही अच्छा है। क्या इन कविताओं में विचार छिप सके हैं ? एंगेल्स की इस उलटबांसी( ?) का कई जनवादी आलोचक तक ने अर्थ लगाया कि विचार कविता के लिए उपयुक्त नहीं है!
कवि जब अपनी दैनिक जिंदगी में बातचीत या बहसों में होता है तो सीधे हमला करता है लेकिन कविताओं में कई बार प्रकारांतर से चीजों को बे-पर्द करता है। एक कविता ‘बाई जी’ शीर्षक से है जो दरअसल पत्नी को संबोधित करके लिखी गई है। इस कविता के माध्यम से कवि ने घर के सामंती ढांचे की विद्रूपताओं को दिखाने की कोशिश की है। यह घर जिसे हमने सभ्यता-संस्कृति के विकास की एक खास अवस्था में गढ़ा था,आज इस बीसवीं शती के अंतिम दौर में भी एक स्त्री के अस्तित्व को लील जाना चाहता है। संस्कृति की सुरक्षा में खड़ी की गईं ये दीवारें एक स्त्री के गुनगुनाने मात्र से कैसे बेतरह कांपने लगती हैं। जिस भयावह स्थिति की ओर कुमार मुकुल ने ईशारा किया है, उसी भयावहता को दूर तक तानते हुए आलोक ने लिखा है घर की जंजीरें कितनी बड़ी दिखायी देती हैं जब कोई लड़की घर से भागती है। यहां नाटकीयता थोड़ी ज्यादा है।
मुकुल जी का संग्रह इस कारण से भी महत्वपूर्ण है कि वह श्रम की महत्ता को सीधे-सीधे स्थापित करता है। पूरा संग्रह ऐसी पंक्तियों से भरा है जो श्रम की दुनिया से कवि के जुड़ाव को प्रदर्शित करती है। निम्न मध्यवर्ग का वह तबका जो महान श्रम से जुड़ा नहीं होता शीघ्र ही अवसाद के गहरे अंधेरे में चला जाता है। बारी-बारी से तमाम चीजों की अर्थवत्ता समाप्त होने लगती है। श्रम हमें ऐसे अवसाद से बचाता है और व्यक्तित्व को एक दृढ़ आधार प्रदान करता है। इसीलिए हमारे कवि के जीवन में अवसाद पल-दो-पल की चीज है। उदासी डरावनी नहीं है बल्कि एक ‘धारदार हीरा’ है। कवि गहरे आत्मविश्वास से कहता है, ‘उदासी आंखों में पैठ गयी तो
सोचता हूं दौड़ूं और उदासी को
पीछे छोड़ दूं।’

ऐसा वही कह सकता है जिसमें काम करने की अदम्य लालसा हो। मुझे नेहरु की याद आती है जब वे कहते हैं, ‘शायद मुझे एक उड़ाका होना चाहिए था-इसलिए कि जब जिन्दगी का धीमापन और उदासी मुझ पर छाये, तो मैं उड़कर बादलों के कोलाहल में समा जाता।’ विज्ञजन कहेंगे, यह तो एक तरह का रोमान है। सही है; किन्तु यह जीवन और श्रम के महान उद्येश्यों से पैदा हुआ है। मुकुल की कविताएं श्रम की गांठ से उपजी कविताएं हैं।