Wednesday, May 25, 2011

कविता मरसिया नहीं होती

‘गंगा-तट ’ की चर्चा धूमिल भी न होने पाई थी कि ज्ञानेन्द्र पति का संग्रह ‘संशयात्मा ’ पाठकों के बीच आ धमका। ज्ञानेन्द्र पति की कविताओं से गुजरना किसी अत्यंत ही समृद्ध संग्रहालय से गुजरना है, जिसमें संसार की लगभग तमाम चीजों के बारे में ब्यौरे भरे होते हैं। साहित्य के सुधी पाठकों के लिए ये ब्यौरे अनावश्यक और अरोचक हो सकते हैं, किंतु मुझे खासे महत्वपूर्ण लगते हैं। हमारे आसपास की बहुत-सी चीजें लुप्त हो चुकी हैं और बहुत-सी लुप्तप्राय हैं। अगर कोई कवि उसकी फेहरिस्त तैयार कर रहा हो तो यह काम महत्वपूर्ण है। कोई भी पढ़ा-लिखा आदमी संग्रहालय के अवदान को कम करके नहीं देख सकता। कवि का यह कर्म उन रचनाकारों के लिए भी ‘काम’ का है जो ‘यादों से रचा गांव’ पढ़कर गांवों की दुरवस्था पर विलाप करते हैं। लेकिन सवाल है कि एक रचनाकार क्या महज संकलनकर्ता है ?

प्रेमचंद ने कभी कहा था कि साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। समकालीन हिंदी कवियों को (अपवाद यहां भी हैं), और विशेष तौर से ज्ञानेन्द्र पति को पढ़ते हुए प्रेमचंद पर अविश्वास करने को जी चाहता है। प्रायः प्रत्येक समाज एक संक्रमणशील समाज होता है जिसमें पुरानी चीजें टूटती हैं और नई चीजें शक्ल अख्तियार करती हैं। एक रचनाकार से अपेक्षा की जाती है कि वह सामाजिक परिवर्तन की दशा-दिशा की सही पहचान रखे।

मुक्तिबोध ने जैसाकि लिखा है, किताब की समीक्षा करना आग से खेलना है। ज्ञानेन्द्र पति की कविताओं पर लिखते हुए किसी को भी इस खतरे का सामना करना पड़ सकता है। वजह यह है कि उनकी कविता भाषा और शिल्प में, अथवा कह लीजिए कि अपनी बुनावट में जितनी ही सुघड़, बेजोड़ और उन्नत है, विचार की दृष्टि से उतनी ही लचर, कमजोर और कई दफा प्रतिगामी भी हैं।

जहां तक भाषा की बात है, कविता में तत्सम शब्दों का बाहुल्य है। यद्यपि ठेठ देसी शब्दों की भी कमी नहीं खलती। कहीं-कहीं तो ज्ञानेन्द्र पति विल्कुल ही शब्दान्वेषी हो उठते हैं और नये शब्द तक गढ़ डालते हैं-तत्सम और देसी शब्दों का अपूर्व गंठजोड़! इनकी शब्द और बिम्ब-योजना तक पर इनके कुलीन मन की छाया आ घिरती है-

‘दस कोस दूर शहर से आनेवाला सर्कस का प्रकाश-बुलौआ

तो कब का मर चुका है

कि जैसे गिर गया हो गजदन्तों को गँवाकर कोई हाथी।’

‘यहां गजदन्तों को गंवाकर कोई हाथी’ का जो बिम्ब है वह कवि के मिजाज को, उसके सामंती संस्कार को स्पष्टतः रेखांकित करता है। संग्रह में कवि इसी मनोजगत से बिम्ब ग्रहण करता है। शायद यही वह चीज है जो कवि को दबे-कुचले लोगों के साथ जुड़ने में बाधा पैदा करती है-

‘सभ्यता के इस तरफ सूअरों के साथ खेलने के लिए छोड़ दिए गए बच्चे

जिनके तन में केवल आंखें चमकती हैं

मानव-शिशु की आंखों की तरह

अहो! कि जिनसे

मिलकर झुक जाती हैं आंखें।’

गनीमत है कि इस असंवेदनशील समय में कवि को इसका बोध तो है!

संग्रह का एक बड़ा हिस्सा ‘शोकगीत’ और ‘विदागीत’ से भरा है। कई कविताओं के शीर्षक भी ठीक-ठीक शोकगीत और विदागीत से बनते हैं। ‘ओ ओ आ-आ का विदागीत’, ‘मूर्धन्य ष के लिए एक विदा-गीत’ तथा ‘बचे हुओं के लिए शोकगीत’ आदि कविताएं इसी श्रेणी की हैं। जो कविताएं इनसे बच जाती हैं उनमें स्मृति अपनी पैठ बना लेती है। जैसे ‘एक पट्ट की स्मृति में’ और फिर ‘कुम्हरार: एक सभ्यता के खंडहर में भटकते हुए।’ कवि का मन सभ्यता के खंडहरों में ही रमता है। एक कविता है ‘गांव का घर’। यह घर किसी सभ्यता के खंडहर से कम नहीं है। कविता में जिस घर का वर्णन कवि करता है, वह निस्संदेह उसका अपना पुस्तैनी घर है-

‘वह सीमा

जिसके भीतर आने से पहले खांसकर आना पड़ता था बुजुर्गों को

खड़ाऊँ खटकानी पड़ती थी खबरदार की

और प्रायः तो उसके उधर ही रुकना पड़ता था

एक अदृश्य पर्दे के पार से पुकारना पड़ता था।’

आलोक धन्वा इसीलिए बड़ा कवि है कि उसके पास समय का विवेक है। ‘वे घर की जंजीरों’ को भी देख पाते हैं। ज्ञानेन्द्र पति को अगर ये जंजीरें दिखी होतीं या उसका ‘अहसास’ होता तो शायद गांव के उस घर के लिए इस कदर का प्यार न उमड़ता! ज्ञानेन्द्र पति को शायद यह मालूम नहीं है कि कविता मरसिया नहीं होती।

Tuesday, April 26, 2011

समय मुर्दागाड़ी नहीं होता


निर्मला पुतुल की छिटपुट कविताओं ने मुझे काफी प्रभावित किया था। ठीक-ठीक शब्दों में बयान करूं तो वह आकर्षण लगभग सम्मोहन जैसा था; किंतु संग्रह पढ़कर मुझे अपनी राय में थोड़ा संशोधन करना पड़ा। अब मुझे उनकी कविताओं में अंतर्निहित खतरे भी साफ-साफ नजर आने लगे हैं। वैसे, पुतुल की कविताओं की जो रचनात्मक प्रतिबद्धता और ईमानदारी है, मैं निस्संदेह उसका कायल हूं।

लगभग दो-तीन वर्ष पहले इतिहासकार रोमिला थापर की एन.सी.आर.टी. द्वारा छठवीं कक्षा के लिए प्रकाशित पुस्तक 'प्राचीन भारत' पढ़कर मैं सन्न रह गया था। उक्त पुस्तक में रोमिला थापर ने लिखा हैधन्य हैं आदिवासी जिन्होंने आदिम संस्कृति और संरचना को अपने मूल रूप में बरकरार रखा जिससे इतिहासकारों को अध्ययन हेतु आवश्यक स्रोत उपलब्ध हो सके।वाह! कैसी अद्भुत सोच है यह। हम अपने बौद्धिक आत्मिक विकास के लिए किसी खास जाति अथवा समुदाय के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से अविकसित बने रहने की आकांक्षा पाले रहते हैं। यह हैसभ्य समाजका संस्कृति-विमर्श ! मुझे दुख है कि निर्मला पुतुल भी जाने-अनजाने ही सही, ‘भलेमानुषोंकी कुछ इसी तरह की सदास्था और सदिच्छा की शिकार होती हैं। वे लिखती हैंबाजार की तरफ भागते/सबकुछ गड्डमड्ड हो गया है इन दिनों यहां/उखड़ गये हैं बड़े-बड़े पुराने पेड़/और कंक्रीट के पसरते जंगल में/खो गयी है इसकी पहचान।मैं बगैर किसी लाग-लपेट के कहूं कि कवयित्री यहां आदिवासी संस्कृति के जिन प्रतीक-चिह्नों की बात करती हैं वे बहुत ही स्पष्ट अर्थों में एक अविकसित समाज के अवशेष हैं। विकास की प्रक्रिया में उनके विलुप्त होते जाने पर इस तरह अविवेक के आंसू बहाना आदिवासी समाज संस्कृति का रक्षक अथवा शुभचिंतक होना नहीं कहा जा सकता। दरअसल हमारा समाज और पूरी दुनिया का प्रत्येक समाज इस कबीलाई समाज की मंजिल को (हालांकि आदिवासी समाज को उन अर्थों में कबीलाई समाज नहीं कहा जा सकता) पारकर ही आधुनिक/उत्तर आधुनिक समय में आया है। भारत में बौद्ध धर्म की पूरी लड़ाई वैदिक संस्कृति के विरुद्धबाजारको स्थापित करने अथवा समर्थन करने की है। वेदकालीन भारत में सूदखोरी एवं वेश्यावृत्ति एक अनैतिक कर्म थी; पहली बार बौद्ध धर्म ही ने इसे मान्यता प्रदान की। ये दोनों ही मूल्य शहरी समाज के अर्थात् बाजार-केंद्रित अर्थतंत्र के उत्पाद थे। तत्कालीन समाज में बौद्ध धर्म का शायद यह एक सार्थक हस्तक्षेप था। एक लगभग अपरिवर्तनशील संस्कृति की अवधारणा के बारे में बात करते हुए हम अक्सर ही उसके अवश्यंभावी खतरों की तरफ से अपनी आंखें मूंद लेते हैं। परिवर्तनशील समय और समाज में अपरिवर्तनीय संस्कृति एवं पहचान की कल्पना वैज्ञानिक विश्वासों के साथ की जा सकती है क्या ? आदिवासी संस्कृति की मूल पहचान को बनाये रखने की निर्दोष (?) चिंता निर्मला पुतुल के संग्रह की केंद्रीय समस्या लगती है। कवयित्री के अनुसार, ‘उतना भी बच नहीं रह गयावह’/संथाल परगना में /जितने/की उनकी/संस्कृति के किस्सेऔर फिर, कायापलट हो रही है इसकी/तीर-धनुष -मादल-नगाड़ा-बांसुरी/सब बटोर लिये जा रहे हैं लोक संग्रहालय/समय की मुर्दागाड़ी में लादकर।निर्मला जी को अब कौन समझाए कि समयमुर्दागाड़ीनहीं होता। समय को समझने पर अलबत्ता रचना बहुत जल्द मुर्दा हो जाएगी।

निर्मला पुतुल की कविताओं का मूल स्वर विद्रोह का है। यह विद्रोह बहुआयामी है। 'ग्लोबल' और 'श्रेष्ठ संस्कृति' के विरुद्ध स्थानीय संस्कृति का विद्रोह तो कहीं मर्द-मर्दवादी संस्कृति के विरुद्ध नारी अस्मिता का विद्रोह।अपने घर की तलाश मेंजो कविता है वह इसी विद्रोह-भाव से लिखी गई है। पुरुष के घर में एक स्त्री अपने होने का प्रमाण ढूढ़ती है, अपना अर्थ खोजती है-‘धरती के इस छोर से उस छोर तक/मुट्ठी भर सवाल लिये मैं/ दौड़ती-हांफती-भागती/तलाश रही हूं सदियों से निरंतर/अपनी जमीन, अपना घर/अपने होने का अर्थ!!’ स्त्री का यह संघर्ष सभ्यता की शायद पहली और अंतिम कहानी है। कवयित्री की तेज निगाहें इस विडंबना को रेखांकित किये बगैर नहीं रहतीं किस्त्री स्वयं में घर की तरह रहती हुई दरअसल घर से बाहर रहती है।पुरुष-प्रधान समाज में आत्म-निर्वासन झेलती एक स्त्री का दुख है यह।

निर्मला पुतुल की कविताओं में दुख एक कौंध पैदा करता है क्योंकि दुख से मुक्ति की बेचैनी है यहां, उसके लिए कठोर संघर्ष है। यहांधान रोपती पहाड़ी स्त्री/रोप रही है अपना पहाड़-सा दुख/सुख की एक लहलहाती फसल के लिए।इतना ही नहीं, ‘पहाड़ तोड़ती तोड़ रही है/पहाड़ी बंदिश और वर्जनाएं।निर्मला के समवय कवि संजय कुंदन के यहां वर्जनाएं टूटती नहीं, कई बार मजबूत अवश्य होती हैं। उन्हें तो आदमी से ज्यादा ईश्वर पर भरोसा है जबकि पुतुल कहती हैंमत ब्याहना उस देश में/जहां आदमी से ज्यादा/ईश्वर बसते हों।

प्रकाशनः जन विकल्प , जुलाई, 2007