Monday, March 29, 2010

लुकाठी किसी को पूछकर नहीं उड़ती

हरेकृष्ण झा की उन्नीस कविताओं का संग्रह ‘धूप की एक विराट नाव’ समकालीन सामाजिक यथार्थ का न सिर्फ एक जीवंत दस्तावेज है बल्कि ऐसा सुस्पष्ट एक्स-रे है जिसे देखकर मरीज की स्थिति का पता लगाने के लिए किसी दक्ष की जरूरत नहीं होती। एक बिल्कुल सामान्य पाठक भी उनकी कविताओं के माध्यम से समाज की विसंगतियों से वाकिफ हो सकता है। जब हम झा जी की कविताओं का विवेचन-विश्लेषण करने बैठते हैं तो कवि त्रिलोचन की कुछ पंक्तियों की याद आती है। झा जी की कविता इतना फैलाव लिये है कि उनकी कविताओं में प्रकृति-चित्रण से लेकर पारिवारिक-सामाजिक संबंधों तक सिमटे चले आये हैं बावजूद इसके उनकी कविता कहीं भी कुरूप या दुरूह बनती नहीं दिखती।
पूंजीवादी संस्कृति ने जिन कुछ महत्वपूर्ण चीजों को क्षति पहुंचायी है उनमें एक मानवीय संवेदना भी है। चारों ओर हिंसा और रक्तपात की बातें ही सुनने को मिलती हैं। संवेदनाहीन मनुष्य पशु की कोटि का होता है। व्यक्ति के सुख-दुख में शरीक होने की बात तो दूर बड़ी से बड़ी संवेदना की घड़ी में भी उसकी आंख गिली तक नहीं होती। लोग अपने-अपने वर्गीय और व्यक्तिगत स्वार्थों की वजह से अंधे और संवेदनशून्य हो गये हैं। ‘अपने ही हाथों से’ कविता में झा जी ने इसी तरह की संवेदनहीनता को लक्ष्य करके लिखा है; ‘अफसोस किया था नर्सों ने/अपने ठंढे सफेद कायदे से। दुख जताया था डाक्टरों ने/सौम्य सलीके से/दवाओं के अधिकारी/दवाओं के व्यापारी/मशगूल थे भंडारों दूकानों में/झुंझलाते हुए म नही मन/कि कुछेक और गहने और बासन/क्यों नहीं हुए उस औरत के पास/साहूकार को बेचने को।’ जाहिर है कि समाज के किसी कोने में महज औपचारिकता भी देखने को आपको न मिलगी, दुख और गम की घड़ी में साथ हो लेना तो कुछ और ही तरह की बात है।
कहने को तो पूंजीवाद की भी एक क्रांतिकारी भूमिका है लेकिन अक्सर होता ऐसा है कि सामंतवाद के साथ वह तीव्र संघर्ष न करके उसके साथ समझौता कर लेता है। भारत के साथ भी यही हुआ। पूंजीवाद ने सामंतवाद के साथ समझौता किया जिसके परिणामस्वरूप सामंती शोषण का स्वरूप समाज में अब तक बरकरार रहा। शोषण के सामंती स्वरूप की विशेषता है कि इसमें स्पष्ट पता नहीं चलता कि कोई है जो उसका शोषण कर रहा है। और फिर उसे इस हद तक ठोक-पीटकर यह वेदवाक्य स्मरण करा दिया जाता है कि वह अपनी गरीबी तथा अशिक्षा के लिए स्वयं जिम्मेवार है। शोषण के सामंती स्वरूपवाली व्यवस्था में किसान अपने को मालिक से अलग नहीं देखता। भोला किसान यह समझता है कि वह मालिक की दया पर ही जीवित है। अगर उसके मालिक उस पर दया दिखाना बंद कर दें तो उसके लिए जीना भी मुश्किल हो जायेगा। कवि ने इसी आशय को स्पष्ट उल्लेख करते हुए लिखा है; ‘तुष्ट हैं बड़े भाई/और कह रहे हैं मुझसे/मुसकाते हुए/कि ठीक है सब कुछ ठीक है /उनके जीवन में/ मालिकों की दया से।’ किसानों की इस तरह की असंगत सोच का एक कारण उनकी राजनीतिक शिक्षा का अभाव भी है। गोदान का होरी भी यह महसूस नहीं करता कि रायसाहब के हाथों उसकी किस्मत गिरबी रखी है। उसे इसका तनिक भी भान नहीं होता।
किसानों के बीच अगर इस तरह की चेतना का प्रसार हो जाये कि उन्हें भी अपने अधिकार लेने का बाजिव हक बनता है तो ये सन्नाटा टूट सकता है। ये मौन एक खास तरह के ध्वंसक विस्फोट में बदल सकता है। शोषकों के दिल दहल जायेंगे। कवि ने उसकी तरफ ईशारा करते हुए फरमाया है; ‘हिलने लगता बीचवाला खंभा/उनके मालिक की हवेली का/थरथराने लगती नीवें/उनके मालिक के आलीशान मकानों की/राजधानी में/और चरमराने लगता/सारा ढांचा उनके चारों ओर के/अंधेरे का/यदि खुश/ न होते बड़े भाई/ सुस्त संतुष्ट/ न होते बड़े भाई।’
अब आप यह पूछ सकते हैं कि किसान आखिर सुस्त-संतुष्ट क्यों बैठे हैं? क्यों नहीं वे अपने मालिकों के खिलाफ बगावत करने की बात सोंचते? इसका जवाब होगा एक बहुत बड़े आतंक और हादसे का डर। चर्बीदार तोंदवाले शोषकों से लड़ाई लेना कोई साधारण बल-बूते की बात नहीं है। जो भी इसके विरोध में जाकर खिलाफ की आवाज बुलंद करने की कोशिश करता है उसे एक बहुत बड़े आतंक और हादसे का दृश्य दिखाकर चुप करा दिया जाता है। न्यूनतम मजदूरी की मांग करनेवाले मजूरों की बस्तियों को एक सांस में जलाकर राख कर दिया जाता है। उसके बीबी-बच्चे जलकर मांस के लोथड़े हो जाते हैं जिससे सिर्फ मुर्दे की सी चिरायंध गंध आती है। कवि हरेकृष्ण झा ने इसी आतंक और खौफ के दृश्य को अपने शब्दों के माध्यम से व्यक्त करने की कोशिश की है- ‘निस्तब्ध रात में/एक राकस/चिकना चुपड़ा खाकर/बाहर आता है अपनी हवेली से/तोशक पर मालिश करवाकर/और दियासलाई की एक तीली/फूस की उजड़ी झोपड़ी में/रगड़ देता है।’
इसके विरोध में जो भी हाथ उठते हैं उनको तोड़ दिया जाता है क्योंकि उसे ये कबूल नहीं है उसके जूठन पर पलनेवाले लोग विरोध में हाथ खड़े करें। उसे लगता है, इनकी औकात ही क्या है जो आन्दोलन का हौआ खड़ा कर उनको डराना चाहते हैं। बस्तियां जलाने के बाद भी चिकना-चुपड़ा खानेवाले राकसों को संतोष नहीं होता तो वे नाटक के दूसरे अंक की तरफ बढ़ते हैं और दे जाते हैं अपने हादसे और आतंक का दूसरा नासूर। ऐसे में कहना होगा कि न्यूनतम मजदूरी की मांग न सिर्फ चार किलो मजदूरी की मांग है बल्कि यह मांग आजादी के मिशन और स्वप्न के साथ जुड़ी हुई है क्योंकि, ‘धाही भरी हवा ही /लोग अब सांस लेना/और छोड़ना नहीं चाहते/भाई मेरे।’
अगर समाज में बहुत दिनों तक किसी तरह का आंदोलन न हो तो शून्यता की स्थिति व्याप्त हो जाती है,एक मौन भरा सन्नाटा भवन की दीवारों पर चिपका रहता है। आंदोलन की सक्रियता तथा उनकी आंतरिक गति में एक खास तरह का शैथिल्य आ जाता है। दरअसल आंदोलन की जो ताकतें हैं वे आपस में विघटित हैं। उनमें न तो एका कायम हो सका है न कोई पॉलिटिकल पार्टी जो अबतक जनक्रांति का नारा देती रही है,लोगों को किसी मुद्दे पर संगठित कर सकी है। अपने देश में आज का किसान प्रेमचंद के जमाने का किसान है। वह अपना घर सुरक्षित देखकर संतोष कर सुख पा लेता है, आश्वस्त हो लेता है। किसानों-मजदूरों की इस एकांतिक प्रवृत्ति को कवि ने लक्ष्य करके लिखा है; ‘अपने घरों के खम्भों और छप्परों/को साबुत देख/आंगन के मुहघर के पास जाकर/दूर उठती लपटों को देखते/अपना मन मना लेते हैं/कि कोई लुकाठी उड़कर/इस ओर नहीं आयेगी/हमारी अपनी सल्तनत कायम ही रहेगी।’ वर्तमान स्थिति पर गौर करने के बाद प्रेमचंद की पंक्ति कि ‘किसान स्वभाव से स्वार्थी होते हैं’ की याद ताजा हो आती है।
दमन और शोषण की अंतहीन प्रक्रिया के बीच से जन्म लेता है तेज गति और धारवाला जनांदोलन। जुल्म और शोषण के हिसाब से ही आंदोलन की गुणात्मक शक्ति तय होती है। शोषक-शासक वर्ग के लोग जनता पर दमन और अत्याचार ढाकर समझते हैं कि उन्होंने एक बड़े आंदोलन के बीज को ही समाप्त कर दिया लेकिन शायद ऐसा सोचते हुए वे भूल कर रहे हैं क्योंकि -‘जिस राख को मरघट की राख/बूझते हैं राकस लोग/वह लोगों की आत्मा के ढिमकों के चारों ओर/जमा होकर/एक एक कोंपड़ हो/सख्त बांस बना रही है।’ ठीक-ठीक कहें तो जमाने ने एकबार पलटा खाया है और शायद बड़े जोर का पलटा खाया है। किसान-मजूर भी अब आजादी और मुक्ति के वातावरण में जीने की अभिलाषा पाले चलते हैं। ये लोग भी अब हरसिंगार और मौलसिरी के फूलों को दोमती अमारती हवा की सांस लेना और छोड़ना चाहते हैं। धमनभट्ठी की हवा में घूंटकर बहत जी लिया। खासतौर से समाज में जब ऐसी स्थिति पैदा हो गई हो तो जनसंघर्ष से जुड़े कवि के लिए यह कतई मुनासिब नहीं होगा कि वह अपने को आंदोलन की मुख्यधारा से काटकर रखे। आंदोलन के साथ उनका कई एक स्तरों पर जुड़ाव होगा। कवि की आंतरिक सक्रियता आंदोलन में शरीक होने के लिए बेचैन करेगी। हरेकृष्ण झा ठीक इसी तरह किसानों-मजूरों की मुक्ति की लड़ाई में अपने को लगानेवाले कवि हैं। कहना होगा कि एक लंबे समय तक कवि ने आंदोलन की दशा-दिशा भी निर्धारित-प्रभावित की है।
फिलहाल किसानों का जो सामंत विरोधी आंदोलन शुरू है उसको कुचलने-दबाने के लिए सामंतों एवं पुलिसबलों की साझोदारी कायम है। इसके अतिरिक्त सामंतों ने किसानों से निबटने के लिए ग्रामीण स्तर पर भूमिपतियों की एक बड़ी फौज खड़ी कर रखी है। अगर बिहार के वर्तमान किसान आंदोलन को गौर से देखा जाये तो स्थिति की तस्वीर कुछ इसी रूप में सामने आती है। कवि इन आपसी गंठजोड़ों को स्पष्टता के साथ देख रहा है-‘और मैं बढ़ता चलूं प्रचंड द्रुतता से/बखारों की लम्बी कतारों की ओर/तोंदों के पीछे छिपे/भालों और बन्दूकों के कतारों की ओर।’
कवि के अंदर एक खास तरह का सपना है-भूमैया, किश्टा गौड़ और भगत सिंह का सपना। इन सपनों को साकार करना चाहता है वह। कवि की धारणा है कि इन सपनों के जयंत अभियान पर निकलने का वक्त आ गया है क्योंकि वातावरण ने मौन भरे सन्नाटे को तोड़ा है। इसलिए भी कि ‘अब तो/एक नन्हा सा बच्चा भी/डंडा लेकर खड़ा हो जाता है।’
9 सितंबर, 1991 को आकाशवाणी, पटना के ‘शतदल’ कार्यक्रम में प्रसारित।

Thursday, March 18, 2010

कविता मरसिया नहीं होती

‘गंगा-तट’ की चर्चा धूमिल भी न होने पाई थी कि ज्ञानेन्द्र पति का दूसरा संग्रह ‘संशयात्मा’ पाठकों के बीच आ धमका। ज्ञानेन्द्र पति की कविताओं से गुजरना किसी अत्यंत ही समृद्ध संग्रहालय से गुजरना है जिसमें संसार की लगभग तमाम चीजों के बारे में ब्यौरे भरे होते हैं। साहित्य के सुधी पाठकों के लिए ये ब्यौरे अनावश्यक और अरोचक हो सकते हैं, किंतु मुझे खासे महत्वपूर्ण लगते हैं। हमारे आसपास की बहुत-सी चीजें लुप्त हो चुकी हैं और बहुत-सी लुप्तप्राय हैं। अगर कोई कवि उसकी फेहरिस्त तैयार कर रहा हो तो यह काम महत्वपूर्ण है। कोई भी पढ़ा-लिखा आदमी संग्रहालय के अवदान को कम करके नहीं देख सकता। कवि का यह कर्म उन रचनाकारों के लिए भी ‘काम’ का है जो ‘यादों से रचा गांव’ पढ़कर गांवों की दुरवस्था पर विलाप करते हैं। लेकिन सवाल है कि एक रचनाकार क्या महज संकलनकर्ता है ?

प्रेमचंद ने कभी कहा था कि साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। समकालीन हिंदी कवियों को (अपवाद यहां भी हैं), और विशेष तौर से ज्ञानेन्द्र पति को पढ़ते हुए प्रेमचंद पर अविश्वास करने को जी चाहता है। प्रायः प्रत्येक समाज एक संक्रमणशील समाज होता है जिसमें पुरानी चीजें टूटती हैं और नई चीजें शक्ल अख्तियार करती हैं। एक रचनाकार से अपेक्षा की जाती है कि वह सामाजिक परिवर्तन की दशा-दिशा की सही पहचान रखे।

मुक्तिबोध ने जैसाकि लिखा है, किताब की समीक्षा करना आग से खेलना है। ज्ञानेन्द्र पति की कविताओं पर लिखते हुए किसी को भी इस खतरे का सामना करना पड़ सकता है। वजह यह है कि उनकी कविता भाषा और शिल्प में, अथवा कह लीजिए कि अपनी बुनावट में जितनी ही सुघड़, बेजोड़ और उन्नत है, विचार की दृष्टि से उतनी ही लचर, कमजोर और कई दफा प्रतिगामी भी हैं।

जहां तक भाषा की बात है, कविता में तत्सम शब्दों का बाहुल्य है। यद्यपि ठेठ देसी शब्दों की भी कमी नहीं खलती। कहीं-कहीं तो ज्ञानेन्द्र पति विल्कुल शब्दान्वेषी हो उठते हैं और नये शब्द तक गढ़ डालते हैं-तत्सम और देसी शब्दों का अपूर्व गंठजोड़! इनकी शब्द और बिम्ब-योजना तक पर इनके कुलीन मन की छाया आ घिरती है-‘दस कोस दूर शहर से आनेवाला सर्कस का प्रकाश-बुलौआ/तो कब का मर चुका है/कि जैसे गिर गया हो गजदन्तों को गँवाकर कोई हाथी।’ ‘यहां गजदन्तों को गंवाकर कोई हाथी’ का जो बिम्ब है वह कवि के मिजाज को, उसके सामंती संस्कार को स्पष्टतः रेखांकित करता है। संग्रह में कवि इसी मनोजगत से बिम्ब ग्रहण करता है। शायद यही वह चीज है जो कवि को दबे-कुचले लोगों के साथ जुड़ने में बाधा पैदा करती है। ‘सभ्यता के इस तरफ सूअरों के साथ खेलने के लिए छोड़ दिए गए बच्चे/ जिनके तन में केवल आंखें चमकती हैं/मानव-शिशु की आंखों की तरह/अहो! कि जिनसे/मिलकर झुक जाती हैं आंखें।’ इस असंवेदनशील समय में कवि को इसका बोध तो है!

स्ंाग्रह का एक बड़ा हिस्सा ‘शोकगीत’ और ‘विदागीत’ से भरा है। कई कविताओं के शीर्षक भी ठीक-ठीक शोकगीत और विदागीत से बनते हैं। ‘ओ ओ आ-आ का विदागीत’, ‘मूर्धन्य ष के लिए एक विदा-गीत’ तथा ‘बचे हुओं के लिए शोकगीत’ आदि कविताएं इसी श्रेणी की हैं। जो कविताएं इनसे बच जाती हैं उनमें स्मृति अपनी पैठ बना लेती है। जैसे ‘एक पट्ट की स्मृति में’ और फिर ‘कुम्हरार: एक सभ्यता के खंडहर में भटकते हुए।’ कवि का मन सभ्यता के खंडहरों में ही रमता है। एक कविता है ‘गांव का घर’। यह घर किसी सभ्यता के खंडहर से कम नहीं है। कविता में जिस घर का वर्णन कवि करता है, वह निस्संदेह उसका अपना पुस्तैनी घर है। ‘वह सीमा/जिसके भीतर आने से पहले खांसकर आना पड़ता था बुजुर्गों को/खड़ाऊँ खटकानी पड़ती थी खबरदार की/और प्रायः तो उसके उधर ही रुकना पड़ता था/एक अदृश्य पर्दे के पार से पुकारना पड़ता था।’ आलोक धन्वा इसीलिए बड़ा कवि है कि उसके पास समय का विवेक है। ‘वे घर की जंजीरों’ को भी देख पाते हैं। ज्ञानेन्द्र पति को अगर ये जंजीरें दिखी होतीं या उसका ‘अहसास’ होता तो शायद गांव के उस घर के लिए इस कदर का प्यार न उमड़ता! ज्ञानेन्द्र पति को शायद यह मालूम नहीं है कि कविता मरसिया नहीं होती।

Monday, March 15, 2010

यह समय है मेरे उगने का

विजयशंकर चतुर्वेदी समकालीन हिंदी कविता में निस्संदेह एक ‘नवोदित’ नाम है लेकिन परंपरा-ज्ञान और इतिहास-बोध इतना गहन, गहरा और परिपक्व है कि वे कई-कई वरिष्ठों के कान काटते हैं। परंपरा एक सतत् प्रवहमान धारा है। अच्छा-बुरा सब कुछ है वहां। अच्छे-बुरे की पहचान करनी होती है। क्या त्याज्य है और क्या ग्राह्य-यह विवेक पैदा करना होता है। कवि को इलहाम है कि
‘मेरी आंखें हैं मां जैसी
हाथ पिता जैसे
चेहरा-मोहरा मिलता होगा जरूर
कुटुंब के किसी आदमी से।’ (संबंधीजन, धरती के लिए तो रुको)।
इस परंपरा में कवि की जगह कहां बनती है, आप देख सकते हैं-
‘यह समय है मेरे उगने का
मैं उगूंगा और दुनिया को धरती के किस्सों से भर दूंगा।’
कवि को मालूम है कि परंपरा की लीद नहीं ढोई जाती। समकालीनता के साथ-साथ सही-गलत का विवेक उसे सावधान करता है-
‘संभव है कि हमलावर मेरे कोई लगते हों
कोई धागा जुड़ता दिख सकता है आक्रांताओं से
पर मैं हाथ नहीं लगाऊंगा चीजों को नष्ट करने के लिए
भस्म करने की निगाह से नहीं देखूंगा कुछ भी।’
कवि को लगता है कि कोई उसे परंपरा या अतीत का निषेध करनेवाला न समझ ले, इसलिए झट वह दुहराता है-
‘मेरी आंखें मा जैसी हैं
हाथ पिता जैसे।’
इसी परंपरा की एक कड़ी हमारी बेटियां या संताने हैं। इस दुनिया से विदा हो चुकी बिटिया की पहचान भी कवि परंपरा-बोध के सहारे ही करना चाहता है-
‘हो सकता है तुम्हें मैं न पहचान पाऊं तुम्हारी बोली से
लेकिन मैं पहचान जाऊंगा तुम्हारी आंख के तिल से
जो तुम्हें मिला है तुम्हारी मां से।’
और आगे,
‘जब भी कभी मिलूंगा इस दुनिया में
मैं पहचान लूंगा तुम्हारे हाथों से
वे तुम्हें मैंने दिये हैं।’
एक ‘नवोदित’ कवि परंपरा जैसी ‘खतरनाक’ चीज से इस तरीके से पेश आये, सहज विश्वसनीय नहीं लगता।
कवि का मानना है कि मनुष्यों की संस्कृति महज मनुष्यों के बूते नहीं बनी है। उसमें पशु-पक्षियों का भी उतना ही योगदान है।
‘सारे पशु-पक्षी हममें कुछ न कुछ भरते हैं
तब जाकर हम इंसान होने की बात करते हैं।’
(गुरुजन, पृष्ठ 94-95)। इंसान होने से मतलब उनके प्रति कृतज्ञ होना है। यह कृतज्ञता हम प्रकट कर सकते हैं विकास का जो हमने प्रकृति-विरोधी मॉडल अपनाया है उस पर पुनर्विचार करके। सभ्यता की जो अंधी-दौड़ हमने शुरू की है उस पर विवेक की वल्गा लगाकर। क्योंकि विकास का जो वर्तमान मॉडल है उसमें हमें कुछ आगे बढ़ जाने पर ही पता होता है कि कुछ अति महत्वपूर्ण चीजें भी थीं जो इस अंधी-दौड़ में छूट गईं। कवि इस दौरान छूट गई चीजों की नोटिस लेता है-
‘देस छूट गया
रास्ते में छूट गये दोस्त
कुछ जरूरी किताबें छूट गईं
पेड़ तो छूटे अनगिनत
... आखिर कब तक नहीं छूटेगी सहनशक्ति ?’ (आखिर कब तक, पृष्ठ 90)।
इसके बाद शायद छूटने या छोड़ने लायक चीजें रहेंगी भी क्या ? जाहिर है, जिस तरह ‘चिड़ियों की उड़ान में शामिल होते हैं पेड़’, हमारी संस्कृति में ये सब समाहित हैं, सब उसके आवश्यक उपादान हैं। इसीलिए कवि कहता है,
‘ओ प्रकृति, तुम मुझमें रहो
मैं रहूं लोगों में।’(सर्द दिनों में, पृष्ठ 79-80)।
भारत का आम जन साम्प्रदायिक नहीं है लेकिन धर्मनिरपेक्षता की जीती-जागती इमारत बाबरी मस्जिद को साम्प्रदायिक ताकतों ने ढहा दिया। कवि की निगाह वैसे लोगों की पहचान करती है जो इमारत गिराने में शामिल नहीं थे-
‘हमने नहीं ढहायी कोई मस्जिद
मंदिर भी नहीं तोड़ा हमने
हम तो कर रहे थे तैयार
बच्चों को स्कूल के लिए
स्त्रियां फींच रही थीं कपड़े
धो रहीं चावल
कुछ भर रही थीं स्टोव में हवा
चिड़ियां निकल पड़ी थीं दाने चुगने
खेतों की ओर जा रहे थे किसान।’
जाहिर है कोई मंदिर-मस्जिद की ओर नहीं जा रहा। फिर भी मस्जिद गिरा दी गई। इसे गिराने को बाकी कौन-से लोग बचे रह गये, कहने को बाकी रह जाता है क्या ? वैसे यह महज मस्जिद किसी और के लिए होगी। कवि की दृष्टि तो दूर तक जानेवाली होती है। कवि का तो शब्दार्थ ही है जो दूर तक देखे। हमारा कवि उसे चरितार्थ करता है। एक अकेली मस्जिद के साथ कई चीजें टूटती हैं-
‘जो टूटे
वे थे हमारे ही मकान
सड़क थे
सन्नाटा भी थे हम
गलियों में दुबके चेहरे हमारे थे।’
कितनी सारी चीजें हमने एक ही बार में तोड़ डाली। किन्तु टूटने के बाद भी ‘सन्नाटा’! कैसी विडबना, कैसी त्रासदी है यह।
पलायन, निर्वासन और यहां तक कि आत्मनिर्वासन झेलते समय में ‘घर’ कविता में एक जिद की तरह आए बहुत ही सुखद और स्वाभाविक लगता है। जिद ऐसी कि
‘बांसों में बंधकर ऐसे ही नहीं निकल जाऊंगा
कि मुंह बाये देखता रह जाये आंगन
ताकती रह जाये अलगनी
दरवाजा बिसूरता रह जाये
...खफा होते हैं तो हो जायें मित्र
शोकाकुल परिजन ले जायें तो ले जाये
मैं जलूंगा नहीं।’(क्यों जाऊं ?, पृष्ठ 50)।
यह जिद इसलिए नहीं कि घर महज बसने की ठोस इच्छाएं हैं बल्कि इसलिए कि ‘मेरी देह ने किया है अभ्यास इस घर में रहने का।’(क्यों जाऊं ?,पृष्ठ 50)। इस घर में मनुष्य की संवेदना के साथ ही सारी ‘जरूरतें’ भी हैं। घर में ‘पूछ रही है बेटी-पापा, मेरी घड़ी आज भी लाये कि नहीं।’ यह घर एक दिन में नहीं बना है। इसमें ‘कोयला हो गये पिता’ की कुर्बानी है तो मां का अमूल्य श्रम। जरा देखें,
‘अभी-अभी उसने नींद में ही मांज डाले हैं बर्तन
फिर बांध ली हैं मुट्ठियां
जैसे बचने की कोशिश कर रही हो किसी प्रहार से
मैं देख रहा हूं उसे असहाय।’(मां की नींद, पृष्ठ 18-19)।
घर के अंदर की असहायता से ही शायद बुद्ध की करुणा पैदा हुई थी और उन्होंने अंततः गृहत्याग कर दिया। बुद्ध का गृहत्याग ‘महाभिनिष्क्रमण’ का गौरव प्राप्त किया। कवि की टिप्पणी है,
‘वैसे जहां भी जाओगे
कोई बोधिवृक्ष नहीं पाओगे
वहां भी ढोओगे पीड़ाओं के पहाड़
करोगे चाकरी
तोड़ोगे हाड़
दुख पीछा करते चले आयेंगे।’ (चौपाल, पृष्ठ 48-49)।
इसलिए
‘सयाना वह है
जो घर में रहकर गृहस्थी की बात करता है।’ (वही)

Sunday, March 14, 2010

दलित आंदोलन पर पहली किताब

भारतीय राजनीति की ही तरह लेखन में भी एक नई परिघटना की शुरुआत देखी जा सकती है। लेखन अब नितांत निजी न रहकर ‘टीम वर्क’ हो चला है। कभी मार्क्स और एंगेल्स के नाम पुस्तकों पर एक साथ छपे होते थे। गिरीश मिश्र और ब्रजकिशोर पांडेय की जोड़ी एक अरसे से इस ‘साझा कार्यक्रम’ को अंजाम दे रही है। इधर हाल में पीपुल्स हिस्ट्री शृंखला के तहत प्रकाशित पुस्तकों में पाठकों ने विजय कुमार ठाकुर के साथ इरफान हबीब का नाम देखा। साझा कार्यक्रम की एक और कृति है ‘बिहार में दलित आंदोलन’ (1912-2000)। इसके लेखक हैं प्रसन्न कुमार चौधरी एवं श्रीकांत। इससे पहले उनकी पुस्तक ‘बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम’ अपने ‘जर्नलिस्टिक एप्रोच’ के बावजूद खासी चर्चा में रही। फिलहाल यह कहना अत्यंत मुश्किल है कि यह प्रवृत्ति ‘लेखन के जनतंत्र’ से पैदा हुई है अथवा किसी ‘राजनीतिक गंठजोड़’ से।
‘बिहार में दलित आंदोलन’ पुस्तक बीसवीं सदी में बिहार के दलितों की स्थिति और उनके आंदोलन का एक दस्तावेज है। देश के अन्य हिस्सों, खासकर दक्षिण और पश्चिमी प्रदेशों में चले दलित आंदोलन और उनकी स्थिति पर तो काफी सामग्री उपलब्ध है, लेकिन बिहार के दलितों के बारे में सामग्रिक अध्ययन अब तक नहीं किया गया। यह किताब इसी अभाव को पूरा करने का एक प्रयास है। इस अध्ययन में लेखक को प्राथमिक स्रोतों पर ही निर्भर रहना पड़ा है किंतु ये स्रोत भी ज्यादातर ‘नकारात्मक’ ही हैं-पुलिस तथा प्रशासन की रिपोर्टों के रूप में। यह अध्ययन एक ‘दस्तावेज’ इसलिए बन पड़ा है कि इसमें लगभग सभी उपलब्ध सामग्रियों को क्रमवार संकलित करने का प्रयास किया गया है।
प्रस्तुत अध्ययन को दस अध्यायों में सफलतापूर्वक समेटने का प्रयास किया गया है। प्रथम अध्याय ‘कमिया’, ‘क्रिमिनल’ और ‘काला अक्षर भैंस बराबर’ है। इसमें बीसवीं सदी के आरंभ में बिहार के अछूतों की स्थिति प्रस्तुत की गई है। लेखक की राय है कि ‘भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना के साथ जहां एक ओर औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत हुई, वहीं दूसरी ओर भारतीय समाज की कमजोरियों का आकलन-विश्लेषण तथा उनके निवारण की कोशिशें भी तेज हुईं। और आगे, ‘इसी आत्म-मंथन के बीच कई धर्म-सुधार तथा समाज-सुधार आंदोलनों का जन्म हुआ।’ उपनिवेशवाद के खिलाफ यह संघर्ष न सिर्फ अंग्रेजी शासन के खिलाफ स्वतंत्रता के लिए राजनीतिक संघर्ष भर था, वरन वह भारतीय समाज की पुनर्रचना का भी आंदोलन बन गया। हमारा राजनीतिक संघर्ष भारतीय समाज की पुनर्रचना का आंदोलन किस हद तक था इसे स्पष्ट करने के लिए लेखक द्वारा ही उद्धृत पंक्तियों का सहारा लें तो बेहतर होगा। ‘राजनीतिक आंदोलन के कई उग्र योद्धा सामाजिक प्रश्नों पर काफी पुरातनपंथी रुख रखते थे, और सामाजिक आंदोलन के कई गणमान्य नेता राजनीतिक आंदोलन के प्रति अधिक आग्रही नहीं थे। 1885 में कांग्रेस के पूना अधिवेशन में सामाजिक सुधार-विरोधी गुट विद्रोह कर बैठा और उसने धमकी दी कि यदि कांग्रेस ने सोशल कांफ्रेंस को अपने पंडाल का उपयोग करने की अनुमति दी तो पंडाल फूंक दिया जाएगा।’ यह भी सच है कि भारत में राष्ट्रवाद के उद्भव एवं विकास के साथ ही जातीय संगठनों एवं साप्रदायिक दंगों का इतिहास जुड़ा है। 1885 में कांग्रेस की स्थापना होती है और दलित वर्गों का सबसे पुराना सामाजिक राजनीतिक संगठन 1892 में ‘द्रविड़ जनसभा’ नाम से अस्तित्व में आता है। पहला हिन्दू-मुस्लिम दंगा भी इसी के आसपास हुआ माना जाता है। इसकी तार्किक संगति बैठाने का पुस्तक में अभाव झलकता है।
दलित आंदोलन के उद्भव से संबंधित एक विचार साहित्य चिंतक डा. नामवर सिंह का भी है। वे लिखते हैं, ‘गनीमत है कि बीसवीं शताब्दी के भारतीय साहित्य में लेखकों का एक ऐसा समुदाय या वर्ग (संगठन नहीं) है जो अंग्रेजी शिक्षा से बहुत कुछ वंचित रह जाने के कारण इस नव-उपनिवेशवादी विचारधारा की गिरफ्त से बचा रह गया है। ...भारतीय भाषाओं में ‘दलित साहित्य’...उसमें बहुत कुछ ऐसा भी है जो प्राणवान और सार्थक है...साहित्य सृजन का अच्छा-खासा हिस्सा भारतीय समाज के उन लोगों की ओर से आया है जो हाशिए पर रहे हैं।’
बिहार में दलित आंदोलन का इतिहास लिखते हुए श्रीकांत ने दलित आंदोलन की वैचारिक-दार्शनिक पृष्ठभूमि तैयार करने की कोशिश नहीं की है। यह आंदोलन बिहार में वर्षों से चल रहे ‘एग्रेरियन मुवमेंट’ से दार्शनिक स्तर पर कैसे भिन्न है, इसकी जांच अपेक्षित थी। लेकिन पाठकों को हमेशा इस बात का ध्यान रखना होगा कि बिहार में दलित आंदोलन पर यह पहली पुस्तक है, पहला पाठ है। प्रकाशन: संप्रति पथ, नई दिल्ली, जनवरी-फरवरी, 2006, पृष्ठ 75-76।

Friday, March 12, 2010

चंद किताबों के बारे में चंद बातें - राजूरंजन प्रसाद

लाल जिल्दोंवाली एक किताब
मैं जिस घर में पैदा हुआ वहां किताबें नहीं थीं। बहुवचन नहीं, एकवचन। यानी कि एक किताब थी-लाल जिल्दोंवाली। शीर्षक, जहां तक मुझे याद है, क्रांति में जूछे की भूमिका था। और इसके लेखक थे किम इल सुंग। यह किताब मेरे चाचा की थी। उन चाचा की जिन्होंने हम सबको पढ़ाया। चाचा उस किताब को बक्स में बंद रखते और खास अवसरों पर पढ़ते। उक्त किताब को पढ़ते वे एहतियात बरतते। घोर धार्मिक व्यक्ति धर्मग्रंथों के साथ जो सलूक करता है, कुछ-कुछ वैसा ही। पढ़ते और फिर सहेजकर रख देते। मैं उसकिताब को उतनी ही देर देखता जितनी देर तक वे पढ़ रहे होते। हां, पढ़ चुकने के बाद वे अपने हस्ताक्षर अवश्य करते।

किताबों के बगैर मैं बड़ा हुआ। आठवीं कक्षा में जनशक्ति ( मेरे विद्यालय के तीन शिक्षक कम्युनिस्ट विचारों के थे, शायद उनके दबाव से यह अखबार आता रहा हो ) में ‘पीपुल्स बुक हाउस’ द्वारा रूसी किताबों की प्रकाशित सूची के आधार पर मैंने चार किताबों का चयन किया-कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र, साम्राज्यवाद पूंजीवाद की चरम अवस्था, कम्युनिस्ट समाज में नैतिकता आदि। एक किताब का नाम मैं स्मरण नहीं कर पा रहा हूं। ये किताबें मैंने पड़ोस के एक आदमी से, जो मेरे सबसे बड़े भाई के सहपाठी रह चुके थे, मंगवाई थीं। उन्होंने किताबें लाकर सीधे चाचा के हाथ में दे डाली। नतीजा-किताबों को कालेपानी की सजा और मुझे डांट। इस तरह मेरी किताबें भी चाचा की किताब के साथ बक्स में बंद हो गईं। मैं अपनी किताबों की बरामदगी की कोशिश में लगा रहता लेकिन सफलता हाथ न लगती। संभवतः चाची से किसी दिन किताबें मैंने प्राप्त कर लीं। इन किताबों को पढ़ने के बाद मैंने एक लड़के के जिम्मे कर दिया। अलबत्ता इन किताबों की कीमत मैंने बहुत बाद में, लगभग दस साल बाद वसूली जब उसके यहां से मार्क्स की पूंजी (अंग्रेजी संस्करण) उठा लाया।

किताब जिसने मुझे पढ़ना सिखाया


दसवीं कक्षा में पहुंचा तो बड़े भाई साहब ने इतिहास की किताब सभ्यता की कहानी (भाग-2, लेखक-अर्जुनदेव, प्रकाशन-एन. सी. ई. आर. टी.) लाकर दी। इस किताब को मैं बड़े ही मनोयोग से पढ़ता। शायद यह पहली किताब थी जिसने मुझे पढ़ना सिखाया। बात को रखने की कला बतायी। मेरे अंदर का तर्कशास्त्र जन्म ले रहा था। यह किताब लगभग पूरी की पूरी याद हो चली थी और मैंने विचार करना भी शुरू कर दिया था। शायद इसी किताब का असर था कि एक दिन मैंने अपने इतिहास के शिक्षक से पूछ ही दिया-सर, मार्क्स ने तो कहा था कि समाजवादी क्रांति सबसे पहले इंगलैंड में होगी लेकिन वहां नहीं हुई। आखिर क्यों ? मेरे शिक्षक के लिए यह सवाल भारी पड़ गया था। अंत में मुझी से जवाब दिलवाया। उस समय मेरे मन में यह भाव होता कि शिक्षक पर मैं भारी पड़ गया और बेहद गौरवान्वित महसूस करता। मेरे शिक्षक ( पारसनाथ गिरि ) को लगा कि सबकी जड़ में वह किताब ही है, कि उसी किताब ने मेरा माथा खराब कर रखा है। इसलिए एक दिन उन्होंने मेरे पिता से शिकायत कर दी कि मैं बी. ए.-एम. ए. की किताब पढ़ता हूं और यह भी कि किताब में लड़कियों की तस्वीरें रखता हूं। पिता ने जमकर पिटाई कर दी। (वैसे वे हल्की पिटाई कभी करते ही न थे। मैं अक्सर ही मार खाता और निराला को याद करता। दसवीं की हिंदी की ही किताब ही में पढ़ा था कि निराला को उनके पिता बहुत मारते।) कुछ दिनों के बाद भाई आए तो पिता ने उनसे शिकायत की। एम. ए.-बी. ए. की किताब पढ़नेवाली बात का जवाब तो खुद उनके पास था। स्कूल जाकर उन्होंने शिक्षक महोदय से कहा भी कि अगर वह बी. ए.-एम. ए. की किताब अभी ही पढ़ ले सकता है तो आपको क्या दिक्कत है ? सो उस बाबत वे कुछ न पूछे। अलबत्ता लड़कियों की तस्वीर के मामले का रहस्य मैंने खोला। दरअसल उक्त शिक्षक ने दूर ही से उस किताब को चोर नजरों से देखा था। उसमें फ्रांस्वा नोइल बाब्यूफ की एक तस्वीर थी। पहली नजर में वह किसी को भी लड़की की तस्वीर लग सकती है। इसमें हमारे शिक्षक का भी बहुत दोष नहीं था।

बेहतर है एक किताब पांच बार पढना


दसवीं कक्षा के लिए हिंदी की किताब थी साहित्य-सरिता। इसमें लगभग चालीस पृष्ठों की एक लंबी भूमिका थी। भूमिका शायद बाबू श्यामसुंदर दास की लिखी थी। मैं उसे बड़े ही चाव से पढ़ता और इतनी बार पढ़ा कि लगभग कंठस्थ हो गया। हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति लगाव पैदा करने में उस ‘भूमिका’ का बड़ा योग रहा। इससे एक लाभ और हुआ कि किताब की भूमिका पढ़ने की मुझे आदत-सी लग गई। आज भी मैं भूमिका पढ़कर ही पता कर लेता हूं कि कौन-सी किताब पढ़ने लायक है और कौन नहीं। अपने बड़े भाई की कही बात कि ‘अच्छा पाठक वह नहीं है जो बहुत या सब कुछ पढ़ता है बल्कि वह है जो यह जानता है कि हमें क्या पढ़ना है और क्या नहीं’, आज भी मुझे सूत्रवाक्य की तरह लगती है। इस सूत्रवाक्य ने मेरा बहुत भला किया है। इसलिए अपने छात्रों या दूसरे पाठकों के बीच मैं इसे कभी न कभी दुहराता अवश्य हूं। उनकी यह बात भी मैंने गांठ में बांध ली थी कि ‘पांच किताब पढ़ने से बेहतर है एक किताब पांच बार पढ़ना।’ दूसरी बात वे अपने एक कॉलेज शिक्षक के हवाले से कहते थे। उन शिक्षक का नाम था दीनानाथ वर्मा। पटना विश्वविद्यालय में तब इतिहास के प्रोफेसर थे। तुलसीदास की पंक्ति शास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखई की भी शायद यही सलाह है।

इन्हीं दिनों मैंने प्रेमचंद का उपन्यास निर्मला पढ़ा। किताब का असर कहिए या फिर किशोर मन का कि उसे पढ़ते हुए मैं रो उठता। संभव है कि मेरी भावुकता की वजह से ऐसा हुआ हो लेकिन इससे एक बात समझ में आई कि किशोर मन पर किताबें कितनी असर डाल सकती हैं। हालांकि किताब पढ़ते या फिल्म देखते बाद के दिनों में भी मैंने लोगों को आंसू से तर पाया। याद है कि मेरे चाचा जब दूरदर्शन पर महाभारत धारावाहिक के करुण दृश्य देखते तो रोते-रोते बेहाल हो जाते। महाभारत की कथा-योजना के साथ-साथ राही मासूम रजा की संवाद-योजना की भी सफलता थी यह।

अपने समय की गीता है वह

स्कूल की पढ़ाई समाप्त कर पटना आया तो फिर किताबों की कभी कमी नहीं खली। बड़े भाई की सारी किताबें मैं उलट-पलट सकता था और पढ़ सकता था। सिलेबस जैसी किसी चीज की कोई बंदिश वे न मानते थे बल्कि कई बार वे उत्साहित भी करते। किताबों की उनकी पसंद उम्दा थी। उनके पास रजनी पाम दत्त की किताब इंडिया टुडे का एक संक्षिप्त संस्करण था जिसे पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने ‘भारत: वर्तमान और भावी’ शीर्षक से प्रकाशित किया है। इस किताब को मैंने कई दफा पढ़ा। कहिए कि यह मेरे लिए ‘मनोहर पोथी’ थी। इस किताब का मुझ पर काफी असर हुआ। आज भी अपने को कभी-कभी उसकी पकड़ के अंदर महसूस करता हूं। बाद में पता चला कि देश के अंदर-बाहर दोनों ही जगहों पर कम्युनिस्ट पैदा करने में उस किताब का अमूल्य योगदान रहा है। और बात है कि कई जगहों पर अतिरेक एवं सरलीकरण से काम चलाया गया है। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत में मार्क्सवादी इतिहास लेखन की शुरुआत है वह। उस किताब ने सिर्फ मुझे ही नहीं बल्कि भारत में मार्क्सवादी चिंतन को एक दृष्टि/दिशा दी है। एक समय की गीता या बाईबिल है वह।

हर आदमी सौ पृष्ठों की किताब है

यही समय है जब मैंने रामशरण शर्मा की किताब प्राचीन भारत (एन. सी. ई. आर. टी., अंग्रेजी संस्करण) भी पढ़ी। बच्चों के लिए लिखी गई यह किताब आज भी मुझे शर्मा जी की सर्वश्रेष्ठ कृति लगती है। इतिहास को पढ़ने और समझने की ट्रेनिंग है इसमें। इस किताब को मैं बार-बार पढ़ता। आज भी पढ़ता हूं यह कहते मुझे तनिक भी किसी तरह का संकोच नहीं हो रहा है। इस किताब ने मुझे किताबों को पढ़ना सिखाया है। मैं अपने को इसका ऋणी मानता हूं। लगता है, इस किताब को शर्मा जी ने बड़े ही इतमीनान और धैर्य से लिखा है। कहीं से भी नहीं लगता कि इतिहास-दर्शन पढ़ाया जा रहा है जबकि छात्र उससे लैस होता चलता है। यह ऐसी किताब है जिसे पढ़ते हुए लेखक की बात सुनायी पड़ती है। ई. एच. कार ने लिखा है कि किताब के पीछे से एक आवाज आती है। आवाज अगर सुनायी न दे तो या तो लेखक गूंगा है या फिर पाठक बहरा है। शर्मा जी की इस किताब को पढ़ते हुए वह आवाज सुनी जा सकती है। मुझे अगर थोड़ा दुस्साहसी होने की छूट लेने दें तो मैं कहूं कि इस किताब को पढ़ लेने पर शर्मा जी की बाकी किताबें मुझे एक किताब से निकली हुई दूसरी किताब लगती है। श्रम से लिखी गई किताबें, किंतु आत्मा से हीन। रामसुजान अमर ठीक ही कहते हैं कि ‘प्रायः प्रत्येक आदमी सौ पृष्ठों की एक किताब है।’ प्राचीन भारत शर्मा जी की समझ और उनके विचारों का निचोड़ लगती है मुझे। रामविलास शर्मा के शब्द अगर उधार लूं तो कहना होगा कि यह किताब रामशरण शर्मा की ‘इतिहास-साधना’ है।

द वंडर दैट वाज इंडिया

इन किताबों की कैद से छूटा तो मैंने अपने को ए. एल. बाशम की किताब द वंडर दैट वाज इंडिया की पकड़ में पाया। इस किताब ने प्राचीन भारतीय इतिहास के बारे में अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा सृजित-प्रचारित-प्रसारित मिथक से मुझे बचाया। यूरोपीय और विशेषकर अंग्रेज इतिहासकारों की सामान्य धारणा थी कि भारत नटों-सपेरों, आध्यात्मिक संतों और इसी तरह की अन्य विचित्रताओं से भरा देश है। इस पुस्तक ने भारत को उस कोहरे से बाहर निकालने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। बाशम ने धर्म से लेकर विज्ञान तक का इतना समुचित और सुंदर विश्लेषण किया है कि पाठक उसकी वस्तुनिष्ठता का कायल हुए बगैर नहीं रह सकता। यह किताब दरअसल एक नये भारत की खोज है। संपूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास पर ऐसी समग्र और संतुलित दृष्टिवाली पुस्तक अब तक मुझे हाथ नहीं लग सकी है। इस किताब की सबसे बड़ी विशेषता है कि आई. ए., बी. ए. के छात्र से लेकर विश्वविद्यालय के गंभीर से गंभीर शोधार्थी तक इसे पढ़ना आवश्यक समझते हैं। ऐसा सौभाग्य केवल सुमित सरकार की किताब मॉडर्न इंडिया को प्राप्त है। यह किताब भी टेक्स्ट-बुक और रिसर्च-बुक की सीमा से परे है। दरअसल यह हैंडबुक है। इन दोनांे ही किताबों को पढ़े बगैर आप भारतीय इतिहास के भरोसेमंद विद्यार्थी नहीं हो सकते।

कुछ भी नहीं है अकाट्य

इन दोनों किताबों से भी कम पृष्ठोंवाली एक किताब लाला हरदयाल की है-हिंट्स फॉर सेल्फ कल्चर। इसमें इतिहास, गणित एवं भूगोल जैसे विषयों से लेकर संगीत तक पर जानकारी उपल्ब्ध है। उसी किताब में मैंने इतिहास के बारे में पढ़ा था कि यह हज्जाम के उस्तरे की तरह है जिससे सफलतापूर्वक दाढ़ी बनाकर आप सुंदर दिख सकते हैं लेकिन आपने थोड़ी भी लापरवाही या असावधानी बरती कि अपने को घायल कर लेंगे। किताब पढ़ने के तरीके के बारे में उसकी एक हिदायत आज भी मेरे अमल में है। उनका मानना था कि कोई भी पुस्तक आप पढ़ें तो उसके नोट्स अवश्य लें। बगैर नोट्स की पढ़ाई की तुलना उन्होंने ढालुआं छत की वर्षा से की थी। मूसलाधार बारिश के बाद भी पानी की बूंदें वहां ठहर नहीं पातीं। इस हिदायत को ताक पर रखकर पढ़नेवालों का बुरा हाल होते मैंने देखा है। आसपास ऐसे लोग बिखरे पड़े हैं जिन्होंने पढ़ा तो बहुत कुछ (एक सीमा में कहें तो शायद सब कुछ!) लेकिन लिखा कुछ भी नहीं। शायद कुछ अकाट्य लिखना चाहते हों!

निराला का भक्त बनाया

पता नहीं क्यों निराला मुझे बार-बार अपनी ओर आकर्षित करते रहे। शायद इसमें अपराजेय निराला की भी कोई भूमिका रही होगी। इस पुस्तक के लेखक संभवतः रामेश्वर सिंह कश्यप (बिहार में आरा के साहित्यकार जिनका लोहा सिंह नाटक काफी चर्चित रहा है) हैं। निराला की इसमें एक व्यक्तित्त्व गढ़ने की सफल कोशिश हुई है। इसमें एक पात्र, जहां तक मुझे याद है, हजारी दादा हैं जो लड़ने-भिड़ने का शौक रखते हैं और जिनसे निराला की खूब छनती भी है। जब यह किताब मैंने पहले पहल पढ़ी थी तो हजारी दादा को और कोई नहीं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ही मान बैठा था। ज्ञान बढ़ा तो इस भ्रम का निवारण हुआ। इसी पुस्तक ने बताया कि निराला का हिन्दी-प्रेम अपनी पत्नी मनोहरा देवी की वजह से पैदा हुआ। निराला दरअसल बंगाल के महिषादल में पैदा हुए थे इसलिए बंगाली संस्कार के वशीभूत हो हिन्दी भाषा के महत्त्व से गाफिल थे। मनोहरा हिन्दी-भाषी थीं और तुलसीदास की पंक्तियां भजन के बतौर गुनगुनाया करती थीं। पत्नी का कंठ-स्वर और तुलसीदास की लयात्मकता ने निराला का मन मोह लिया। बल्कि एक तरह से कहिए कि मोह-भंग भी हुआ। इससे पहले वे हिन्दी को बंगला भाषा के पासंग बराबर भी वजन देना मुनासिब न समझते थे। मनोहरा के गीत ने निराला को तुलसीदास और साथ ही हिन्दी का मुरीद बनया। बाद के दिनों में तो वे हतभागे तुलसीदास में अपनी ही छवि खोजने लगे। ‘राम की शक्तिपूजा’ मुझे कभी-कभी तुलसीदास और स्वयं निराला की समरगाथा लगती है। आराधन का दृढ़ आराधन हो शायद। जब भी मैं इस किताब को पढ़ता निराला समेत उसके सारे पात्र मेरे अंदर आकार ग्रहण करने लगते और निराला के प्रति श्रद्धानवत होता। कहिए कि इस किताब ने मुझे निराला का भक्त बनाया।

सदियों में कभी-कभार

इस किताब के जरिए निराला की जो छवि निर्मित हुई उसको एक विराट रूप दिया निराला की साहित्य साधना ने। यह किताब डा. रामविलास शर्मा ने कवि के जीवन में डूबकर तैयार की है। निराला के जीवन की छोटी-बड़ी चीजों की ऐसी बारीक अभिव्यक्ति कि ऐसी कला और सामर्थ्य पर किसी को भी एक बार ईर्ष्या हो सकती है। बड़ी ही साफगोई, ईमानदारी और उतनी ही गहरी आत्मीयता के साथ तैयार की गई जीवनी कि स्वयं उस जीवन को जीनेवाला भी देख-पढ़कर दंग रह जाए कि कितना कम जानता है वह अपने को। सहज अविश्वसनीय! मेरे लिए तय करना मुश्किल है कि उसे उपन्यास कहूं कि जीवनी। पढ़िए तो लगता है जैसे किसी फिल्म की कहानी आपके आगे से सरक रही हो। निराला को संभवतः रामविलास शर्मा की साहित्यिक मेधा/प्रतिभा का पहले ही अंदाजा हो चुका था इसलिए वे उन्हें डाक्टर साहब कहते। निराला की अकड़ भला किसी ऐरे-गैरे को डाक्टर कहने की अनुमति देती क्या ? इस डाक्टर ने ऐसी शव-परीक्षा की कि जो भी निराला के अंदर था उसे बाहर कर दिया। कुछ भी गोपन न रहा! इस किताब को पढ़ते हुए सदैव यह लगा कि निराला के साथ-साथ रामविलास शर्मा की खुद की साहित्य साधना भी है। ऐसी जीवनी हमेशा नहीं लिखी जाती। सदियों में कभी-कभार। हिन्दी क्या विश्व साहित्य में भी ऐसी जीवनी दुर्लभ है।
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