Thursday, November 5, 2015

किताबों के बारे में टिप्पणियां




भूख में खाया हुआ भोजन पौष्टिक होता है।आप चैंके नहीं। यह आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की कोई नवीन खोज नहीं है बल्कि पब्लिक स्कूलों में बच्चों को पढ़ाई जानेवाली हिंदी की पाठ्य-पुस्तक की एक पंक्ति है। हालांकि शुरू में यह सुनकर कुछ क्षणों के लिए मैं भी भौंचक्का रह गया था। हुआ यह कि किसी दिन मैंने चैथी कक्षा (फिलहाल डी.यू.,से अंग्रेजी में एम.ए.कर रहा है) में पढ़ रहे बेटे को पकड़ लिया और बच्चों में कुपोषण की बढ़ती समस्या पर लेक्चर झाड़ना शुरू कर दिया। बेटे ने सहज ही प्रतिवाद किया कि पापा, कुपोषण की समस्या तो हमारी गलत जीवन-शैली से पैदा होती है। इसकी जड़ में अशिक्षा है। गरीबी से भला आप किस तरह जोड़ रहे हैं ?’ मैंने उसे एकबार फिर समझाने की कोशिश की तो उसे भी हथियार से लैस पाया। उसके हाथ में सोम सुधा प्रकाशन’, नई दिल्ली से चैंथी कक्षा के लिए प्रकाशित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक थी। मेरे सामने लगभग पटकते हुए उसने रखा और उस हिस्से पर उंगली रखी जहां वेद-वाक्य की तरह छपा था, ‘भूख में खाया हुआ भोजन पौष्टिक होता है।मुझे समझते तनिक देर न लगी कि मेरे बेटे का तर्क इसी पुस्तक के ज्ञानसे पैदा हुआ है। इसके बाद मैंने सचेत होकर उस पुस्तक को पढ़ना शुरू किया तो गलतियों और अशुद्धियों का अंबार पाया। मैं अंदर ही अंदर खीझ रहा था कि आखिर वे कौन-से लोग हैं जो हमारे बच्चों के जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं ? इसी गुस्से में एक दिन विद्यालय चला गया जहां यह टेक्स्ट-बुक मजे में चलाया जा रहा था। इस बात को जानकर कि यहां के निदेशक की शिक्षा जे.एन.यू. से हुई है, मेरी पीड़ा का ठिकाना न रहा। निदेशक ने अत्यंत ही सहज भाव से कहा, ‘इस वर्ष यह गलती से लग गई है। ...ऐसे प्रकाशकों पर तो मुकदमा चलना चाहिए।मैंने प्रकाशक को भी लिख भेजा लेकिन पत्रोत्तर न आया। ये सारी स्थितियां अंत में एक ही सवाल छोड़ जाती हैं कि यह सब क्यों और कैसे हो रहा है ?
सत्यभक्त और साम्यवादी पार्टी
कर्मेंदु शिशिर जी योजनाबद्ध लेखन करते हैं. उनका यह गुण मुझमें ईर्ष्या का भाव जगाता है. उन्होंने हिंदी नवजागरण से संबद्ध कई लेखकों पर लिखा है. निश्चित रूप से यह काम महत्वपूर्ण है. इसी क्रम में उन्होंने नवजागरण की दुर्लभ पत्र-पत्रिकाओं के अरण्य में गहरी छानबीनके बाद सत्यभक्त और साम्यवादी पार्टीसम्पादित की है. शिशिर जी को पता है कि सत्यभक्त के व्यक्तित्व में अंतर्विरोध थे और बहुत साफ-साफ दिखते भी थे.’ (पृष्ठ ३०) जो दिखावह यह कि उनकी भारतीयता आध्यात्मिकता तक पहुँच जाती थी’ (पृष्ठ ३०) और जो नहीं दिखावह था भारत में मुसलमान का अभारतीयहोना. सत्यभक्त लिखते हैं, ‘हिंदुस्तान की हालत इस समय बड़ी शोचनीय हो रही है. एक हजार सालों से यह विदेशियों के पैरों तले कुचला जा रहा है.’ (पृष्ठ ५२) सत्यभक्त की भारतीयताकी यह भारतीय दृष्टिकर्मेंदु शिशिर जी की दृष्टि से शायद ओझल है ! अन्यथा वे अखण्ड ज्योतिसे उनके (सत्यभक्त के) जुड़ाव को दलित कन्या (मेहतरानी) के साथ विवाह की परिणति के रूप में न देखते. (पृष्ठ २९)
डाक्टर रामचंद्र ठाकुर ने हिस्ट्री ऑफ जर्नलिज्म इन बिहार’ (१८६६-१९१९) मेंलक्ष्मीमासिक पत्रिका को १९०२ में लाला भगवान दिन के संपादन में लक्ष्मी प्रेस, गया से प्रकाशित हुआ बताया है (पृष्ठ ५९). इनका दावा है कि इन्होंने उक्त पत्रिका की जुलाई १९०२ की मूल प्रति देखी है (पृष्ठ ६६, पाद टिप्पणी संख्या ८१). हालाँकि श्री अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ने समाचार पत्रों का इतिहासमें लक्ष्मीका प्रकाशन वर्ष १९०३ लिखा है (पृष्ठ २४१). रामजी मिश्र मनोहरने भी बिहार में हिंदी-पत्रकारिता का विकासमें प्रकाशन वर्ष १९०३ ही बताया है (पृष्ठ ५९).
दरअसल इसकी कहानी है कि गया जिले के कूसी’ (औरंगाबाद) ग्राम के निवासी लक्ष्मीनारायण लाल ने आयुर्वेद-प्रचार के लिए सन् 1903 ई. में एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, जिसका नाम लक्ष्मी-उपदेश-लहरीरखा गया था (‘हिंदी साहित्य और बिहार’, चतुर्थ खण्ड, पृष्ठ 100). इसके प्रथम संपादक श्री अखौरी शिवनन्दन प्रसाद बहारथे. श्री बहार ने एक वर्ष तक उसका संपादन किया. तदन्तर मध्यदेश के सागर-मण्डलांतर्गत देवरीनिवासी श्री गोरेलाल मंजु सुशील ने उसका संपादन भार संभाला. इनके समय में पत्रिका की विशेष उन्नति हुई. अत्यधिक प्रचार के बाद पत्रिका अपने साहित्यिक रूप में प्रतिष्ठित हुई (जयंती स्मारक ग्रंथ’, पृष्ठ 585; ‘हिंदी साहित्य और बिहार’, चतुर्थ खण्ड, पृष्ठ 100, पा.टि. 1). जब लक्ष्मी प्रेसका स्थानांतरण गया नगर में हुआ, तब पत्रिका का नाम केवल लक्ष्मीरह गया. इसी समय सुशील जी का असामयिक निधन हो गया. इनके अचानक दिवंगत होने से पत्रिका का बड़ा अहित हुआ. इनके निधनोपरांत बुन्देलखण्ड निवासी श्री लाला भगवान दीन जी ने इसके संपादन का भार अपने कंधों पर लिया. इसके पूर्व वे हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी के हिंदी विभाग में प्राध्यापक थे. लाला भगवान दीन जी के बाद आरा निवासी पं. ईश्वरीप्रसाद शर्मा और श्रीरामानुग्रह नारायण लाल, बी.ए. क्रमशः इसके संपादक हुए. लक्ष्मीअपने जमाने की एकमात्र साहित्यिक पत्रिका गिनी जाती थी. इस पत्रिका के संबंध में श्रीस्वामी सत्यदेव तथा म.म.पं. सकलनारायण शर्मा ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की थी. अमेरिका प्रवासी स्वामी सत्यदेव ने एक पत्र में लक्ष्मीकी प्रशंसा करते हुए लिखा था : ‘‘गया की लक्ष्मीहिंदुस्तान के सामयिक पत्रों में अपना खास स्थान रखती है. प्रायः सभी लेख और कविताएं उपयोगी और शिक्षाप्रद हैं. संस्थापक महोदय अवश्य प्रशंसा के पात्र हैं।’’ म.म.पं. सकलनारायण शर्मा ने एक बार प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति पद से भाषण करते हुए कहा था:रायसाहब लक्ष्मीनारायण लाल जी बिहार के उन हिंदी प्रमियों में हैं, जो हिंदी के लिए प्रतिवर्ष पानी की तरह रुपये बहाते हुए कुण्ठित नहीं होते’ (त्रैमासिक साहित्य’, पृष्ठ 41; ‘हिंदी साहित्य और बिहार’, चतुर्थ खण्ड, पृष्ठ 100, पा.टि. 2). रामचंद्र ठाकुर ने अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ जर्नलिज्म इन बिहार (१८६६-१९१९)' में 'क्षत्रिय पत्रिका' का प्रकाशन-वर्ष १८८० बताया है (पृष्ठ २८) जो सही नहीं प्रतीत होता. १८८० में दरअसल इस पत्रिका का विज्ञापन निकला था और इसका प्रथम अंक निकला १९ मई १८८१ को. डाक्टर धीरेन्द्रनाथ सिंह (आधुनिक हिंदी के विकास में खड्गविलास प्रेस की भूमिका,पृष्ठ १६६) ने इसी तिथि को सही बताया है. कहना होगा कि डाक्टर सिंह का निष्कर्ष अत्यंत प्रामाणिक स्रोत यथा पत्रिका की फाइल, डायरी आदि पर आधारित है जबकि डाक्टर ठाकुर ने 'रिपोर्ट ऑन नैटिव न्यूजपेपर्स इन बंगाल १८८२' को आधार बनाया है.

पिछले दिनों मगही लोक काव्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन पर एक बृहदाकार पुस्तक का लोकार्पण हुआ. कहा जाता है कि इसके लेखक पहले कोई बड़े पद पर थे और किसी घोटाले में संलिप्त थे. अतः नौकरी से असमय ही छुट्टी ले ली. अब वे 'प्रायश्चित' के लिए पैसे पर 'लेखक' खरीदते हैं और पुस्तकों के 'स्वामी' बनते हैं. मुझे चिंता उस 'अदृश्य' लेखक की है. उसकी क्या मज़बूरी है? दूसरों के लिए लिखना कोई हंसी-खेल नहीं है. किताब देखने से लगा कि 'अदृश्य' लेखक ने किताब को अच्छा खासा समय और श्रम दिया है.
स्वतंत्रता संग्राम में बिहार के बलिदानी
 स्वतंत्रता संग्राम में बिहार के बलिदानीपुस्तक में कुछ महत्वपूर्ण नाम इसमें नहीं आ सके हैं. महेंद्र चौधरी ऐसे ही एक राजनीतिक कैदी का नाम है जिसे डाकाजनी और हत्या के अपराध में ७ अगस्त, १९४५ को भागलपुर केन्द्रीय जेल में फांसी दी गई थी.
पब्लिक स्कूल के नाम पर लूट मची है. चौथी कक्षा के लिए आर.टी.पब्लिशर्स (दिल्ली) द्वारा प्रकाशित 'वरदायिनी' देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. पता नहीं प्रकाशक की कौन-सी मज़बूरी थी कि सारी की सारी कविताएँ एक ही 'स्वनामधन्य' कवयित्री 'रचना गर्ग' की लगा दीं. कवयित्री को तो यह भी नहीं पता कि नाम अवतरण चिह्न (इन्वर्टेड कौमा) के भीतर नहीं होता. उनसे प्रकाशक ने कहा होता कि वे अपनी कविताएँ लगाने की बजाय भाषा की शुद्धता पर ध्यान केन्द्रित करती.
धर्मनिरपेक्षता की कहानी गढ़ते हुए हम कई बार अवैज्ञानिक तक हो चले हैं. आज भी कबीर के बारे में यही पढ़ा रहे हैं--'कहते हैं कि उनकी मृत्यु के पश्चात् हिन्दुओं और मुसलमानों में झगड़ा हो गया. हिन्दू और मुस्लमान दोनों ही अपने-अपने धर्म के अनुसार उनका दाह-संस्कार करना चाहते थे. परन्तु जब उनके शव से कपड़ा उठाया गया तो शव के स्थान पर फूल थे. आधे फूलों की हिन्दुओं ने समाधि बनाई और आधे की मुसलमानों ने कब्र.' (वरदायिनी, आर.टी. पब्लिशर्स, दिल्ली, प्रथम संस्करण २०१५, पृष्ठ १२०)
'भारत का गहराता कृषि संकट और किसानों की आत्महत्याएं'
सियाराम शर्मा अपनी साम्य-पुस्तिका 'भारत का गहराता कृषि संकट और किसानों की आत्महत्याएं' में लिखते हैं कि 'मीडिया का दूसरा सशक्त माध्यम पिपली लाइव जैसी संवेदनहीन फिल्मों के माध्यम से किसानों की गंभीर त्रासदी को हंसी मजाक का विषय बना देने की कोशिश कर रहा है. किसानों के चरित्र और व्यवहार को हास्यास्पद, बदनाम और अपमानित करने वाली ऐसी फ़िल्में किसी सामाजिक समस्या के प्रति मीडिया की भोथरी दृष्टि के साथ उसके तिरस्कारपूर्ण रवैये को भी उजागर करती है.' मैं शर्मा जी के इस आकलन से सहमत नहीं हूँ. और आप ?
हिंदी साहित्य और बिहार', प्रथम खंड, पृष्ठ 126, पादटिपण्णी-3, में लिखा है, 'अंगरेजों का विश्वास है कि जहाज या नाव पर यदि कोई यहूदी हो, तो अवश्य उपद्रव होगा.' इस बात का कोई अन्य लिखित प्रमाण मिलता है क्या ?
'बिहार थ्रू द एजेज' अपने समय की शानदार किताब है लेकिन उसकी कई गंभीर सीमाएं है. मसलन, जब संस्कृत साहित्य को आधुनिक बिहार का योगदान की बात आती है तो महज दो लेखक की चर्चा कर लेखक बच निकलता है. दो से अधिक पृष्ठ केवल रामावतार शर्मा पर जाया किया जाता है, बिहार गायब है.
 बिहार स्टेट टेक्स्टबुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन लिमिटेडद्वारा कक्षा ग्यारह के लिए इतिहास की पाठ्यपुस्तक विश्व इतिहास के कुछ विषय’ (प्रथम संस्करण : 2007, पुनर्मुद्रण : 2008) तैयार करवाई गई है. पाठ्यपुस्तक निर्माण समितिके सदस्यों के नाम-पदनामछापने में पूरा एक पृष्ठ जाया हुआ है. नीलाद्रि भट्टाचार्य उक्त समिति के मुख्य सलाहकार हैं. विश्व इतिहास का अध्ययनशीर्षक से दो पृष्ठ की उनकी भूमिका भी है. उसकी कुछ पंक्तियाँ यहाँ देखें : (1) ‘‘नए इतिहासकार को अब कुछ ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिन्हें पहले अनदेखा कर दिया गया था. वे इन प्रमाणों की व्याख्या करती हैं, नए अंतर्संबंध कायम करती है और इस तरह से एक नयी किताब लिख डालती हैं.’’ (2) ‘‘अक्सर किन्हीं विशेष घटनाओं का इतिहास पश्चिम की विजयी यात्रा की बड़ी कहानी का ही हिस्सा था.’’ (3) ‘‘इस यात्रा में विश्व इतिहास के कुछ विषय आपकी मदद करेगी’’. (4) ‘‘सबसे पहले यह पुस्तक विकास और प्रगति की महान कहानियों के पीछे छुपे ज्यादा अँधेरेइतिहासों से आपका परिचय कराएगी’’.
दिल्ली विश्वविद्यालय के अधीन हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय है. इसकी स्थापना हिंदी माध्यम से सामाजिक विज्ञान आदि विषयों की पढाई कर रहे छात्रों को मानक पुस्तकें उपलब्ध कराने के उद्देश्य से की गई थी. देव राज चानना की पुस्तक 'प्राचीन भारत में दास प्रथा' २००९ में पुनर्मुद्रित होकर आई है. इसे बहुत सावधानी के साथ पढ़ने की जरूरत है. कहने की जरूरत नहीं कि किताब को कूड़ा बना दिया गया है. एक-दो उदाहरण से आप समझें. लेखक का नाम कहीं देवराज चानना है तो कहीं देव राज चानना. शांतिपर्व कई जगह शांतिपूर्ण छपा. पुस्तक में आद्योपांत सूची, 'सूचि' है. पूरी पुस्तक में अगम्भीरता का 'मानक' प्रदर्शित किया गया है.
वीरेंद्र कुमार बरनवाल की राजकमल प्रकाशन से जिन्ना : एक पुनर्दृष्टिकिताब है. उक्त पुस्तक के खंड : १का ६ठा अध्याय माउन्टबैटन के हिंदुस्तान आगमन से विभाजन और देहावसान तकलैरी कॉलिन्स/डोमिनिक लेपियर की पुस्तकमाउन्टबैटन एंड द पार्टीशन ऑफ इंडिया’ (विकास पब्लिशिंग हॉउस, १९८२) का लगभग अनुवाद है. अनुवाद के क्रम में कुछ जरूरी बातें छुट गई हैं अथवा छोड़ दी गई हैं जिससे भ्रम की स्थिति पैदा होती है. पृष्ठ ३१९ पर लिखा है, ‘‘ध्यातव्य है कि एडविना अपने पति लॉर्ड माउंटबैटन को प्यार से डिकीकहती थीं.’’ तथ्य यह है कि डिकीनाम से न केवल एडविना और माउंटबैटन के परिवार के लोग बल्कि उनके मित्र भी बुलाते थे. लॉर्ड इस्मे भी इसी नाम से बुलाते थे. माउन्टबैटन एंड द पार्टीशन ऑफ इंडिया’, पृष्ठ ११ की पादटिप्पणी में यह पंक्ति ध्यातव्य है : ‘Dickie was the nickname given to Mountbatten by his family and intimate friends’.
अल्तेकर 
 ‘The Purdah system, in all probability, was unknown in ancient India. Its general adoption is subsequent to the advent of Muslims in India....The Hindus adopted purdah as a protective measure. The tendency to imitate the ruling class was another factor.’ ये पंक्तियाँ गुरू गोलवरकर की नहीं, प्राचीन भारत के मान्य इतिहासकारों में लगभग सर्वाधिक पढ़े गये इतिहासकार ए.एस. अल्तेकर की हैं. अल्तेकर यह कैसे भूल जाते हैं कि प्राचीन भारत की अन्तःपुर की नारियां, ‘पतिव्रताऔर सतीस्त्रियाँ असूर्यम्पश्य (सूर्यमपि न पश्यति) हैं. अन्तःपुर की रानियों के बारे में कहा जाता है कि उन्हें सूर्य देखना भी दुर्लभ था. पर्दा का यह रूप अल्तेकर को नहीं दिखा क्योंकि वे इसका तार मुसलमानों का आगमन और उनकी ज्यादतियों के साथ जोड़ते हैं. वे जीवित होते तो मैं पूछता कि जनाब, पर्दा और प्रोटेक्टिव मेजर का क्या घपला है ?' यह भी कि प्रोटेक्टिव मेजरकेवल मुसलमानों के विरुद्ध था अथवा हिन्दू राजाओं के विरुद्ध भी था ?’ संस्कृत के मर्मज्ञ अल्तेकर ने इस प्रसंग को अवश्य पढ़ा होगा--- वाग्भट्ट अनहिलपट्टन के राजा जयसिंह के महामात्य थे। इन्हें अपने इस महामात्यत्वकामहामूल्यचुकाना पड़ा है। इनकी एक पुत्री थी, परम सुन्दरी, परम विदुषी और अपने पिता के सदृश कविप्रतिभाशालिनी। जब वह विवाह योग्य हुई तो उसे बलात् इनसे छीनकर राजप्रासाद की शोभा बढ़ाने के लिए भेज दिया गया। न वाग्भट्ट इसके लिए तैयार थे और न कन्या। पर अप्रतिहता राजाज्ञाके सामने दोनों को सिर झुकाना पड़ा। बिदाई के समय की कन्या की इस उक्ति को जरा देखिए। राजप्रासाद के लिए प्रस्थान करते समय कन्या अपने रोते हुए पिता को सान्त्वना देते हुए कह रही है-तात वाग्भट्ट! मा रोदीः कर्मणां गतिरीदृशी।दुष् धातोरिवास्माकं गुणो दोषाय केवलम्।।व्याकरण प्रक्रिया के अनुसार दुष् धातु को गुण होकर दोषपद बनता है दुष्धातु के गुणका परिणाम दोषहै। इसी प्रकार हमारे सौन्दर्य-गुणका परिणाम यह अनर्थ है और अत्याचाररूपदोषहै। इसलिए हे तात्! आप रोइए नहीं, यह तो हमारे कर्मों का फल है कि दुष् धातु के समान
हमारा गुण भी दोषजनक हो गया।देखें, मम्मट, ‘काव्यप्रकाश’ (हिंदी व्याख्या : आचार्य विश्वेश्वर सिद्धांतशिरोमणि), ज्ञाणमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, पुनर्मुद्रित संशोधित संस्करण : 1998, पुनर्मुद्रण, जुलाई 2006, पृष्ठ 80-81।)