Tuesday, August 31, 2010

कविता के अंत के विरुद्ध लड़ती कविताएं

गोरख पाण्डेय
हाल की कुछ चुनिंदा साहित्यिक पत्रिकाओं में ‘पहल’ की भूमिका उल्लेखनीय रही है। इसने गंभीर साहित्य से जुड़े लोगों को छापने में अपनी दिलचस्पी का लगातार प्रदर्शन किया है। कहना न होगा कि कुमार विकल, आलोक धन्वा, गोरख पाण्डे एवं वीरेन डंगवाल की कविताओं को बार-बार छापकर इसने स्वस्थ साहित्य की परंपरा को और मजबूत ही किया है। इन सार्थक कविताओं के अलावे समय-समय पर आलोचना की गंभीर पुस्तिकाएं भी प्रकाशित होती रही हैं। ‘कविता का तीसरा संसार’ पुस्तिका पहल की इसी ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित करती है। इस पुस्तिका के लेखक, सियाराम शर्मा हिन्दी साहित्य के, विशेषकर समकालीन कविता के एक अत्यंत गंभीर पाठक हैं।

शर्मा जी ने इन कविताओं को चुनकर न सिर्फ अपनी ईमानदारी और वैचारिक भावधारा को स्पष्ट किया है, बल्कि साहित्य की असली समस्या के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को भी प्रदर्शित किया है। निस्संदेह, शर्मा जी की भावधारा वही है जो तीसरे संसार की कविताएं लिखते इन कवियों की है। भेड़ों की गंध से भरा गड़रियों जैसा है इनका चेहरा। अपने चेहरे की पहचान और गंध को सूंघकर परिवेश को जानने की अद्भुत क्षमता है उनमें।

बहुतों के लिए ‘आज की कविता आधुनिक विकासवादी और क्रांतिकारी दोनों तरह के यूटोपिया के अंत की कविता है।’ (कविता का अंत)। अपनी इस स्थापना के आधार पर हिन्दी समालोचना में तकनीकी शब्दावली के ज्ञान को समृद्ध करनेवाले युवा आलोचक सुधीश पचौरी लगभग ‘हल्ला बोल’ के अंदाज में लिखते हैं, जो लोग समकालीन कविता में अर्थ खोजते हैं, वे दरअसल उस सपने को खोजते हैं, जो कविता रचे जाने से पहले ही खत्म हो चुका होता है।’ आगे की पंक्ति इससे भी अधिक ज्ञान का आतंक पैदा करती है, जब वे कहते हैं, ‘सपने के अंत के बाद जो दुनिया बचती है, कविता उसी बची हुई दुनिया की संरचना का नाम है।’

मेरी जगह अगर उदय प्रकाश होते तो कहते, कुछ नहीं बोलने, कुछ नहीं सोचने अथवा किसी सपने के न होने के बाद आदमी मर जाता है। सपने की अनुपस्थिति में आदमी लाश की तरह है। सुधीश पचौरी के दुर्बल कंधों पर इसी लाश का बोझ है, जिससे वह वैराग्य की तरफ मुड़ना चाहता है। लाश को ढोता मनुष्य सांसारिक बहुत कम रह जाता है, अचानक मृतकों की दुनिया में चला जाता है। ऐसी स्थिति में ‘जीवित’ मनुष्यों की दुनिया के बारे में अगर वह सोचना बंद कर देता है तो इसमें आश्चर्य कैसा?

सियाराम शर्मा की पुस्तक ‘कविता का तीसरा संसार’ सपने के अंत के विरुद्ध लड़ती और सपने बुनती कविताओं के उत्स को जानने और उद्घाटित करने की बेचैनी का नमूना मात्र है। समकालीन कविता, हमें कह लेने दीजिए, कविता के अंत के अमानुषिक नारे के विरुद्ध लड़ती कविता है, जिसकी सबसे मुखर आवाज पिछले दो दशक में कुमार विकल, आलोक धन्वा, गोरख पाण्डे और वीरेन डंगवाल की कविताओं से ध्वनित हुई है। शर्मा जी कुमार विकल के बारे में लिखते हैं, ‘मुक्तिबोध के बाद हिन्दी के सर्वाधिक बेचैन कवि हैं। उनकी हर कविता अंधेरे और उजाले की एक मुकम्मल (इस शब्द पर जोर मेरा है) दुनिया है।’ हिन्दी साहित्य का कोई भी सुधी पाठक सुधीश पचौरी साहब से पूछ ले सकता है कि सपने के अंत के बाद भी क्या कोई ‘मुकम्मल’ दुनिया बची रह सकती है ? अपनी विद्वता को थोपने से बेहतर होगा कि मैं कुमार विकल की ही एक कविता की कुछ पंक्तियों का नमूना यहां रखूं-‘

तुम्हारी कविता में सिर्फ एक बुलबुल है
मेरी कविता के आंगन में कई पेड़ हैं
जिनमें सैकड़ों चिड़ियां
दूर दराज से आकर अपने घोंसले बनाती हैं
चोंच दर चोंच/अनुभव का चुग्गा
मेरी कविताओं को खिलाती हैं।’ (रंग खतरे में है, पृष्ठ 63)। 

इसका बेहतर जवाब तो सुधीश पचौरी ही दे सकते हैं कि ये कविताएं सपने के अंत की कविताएं हैं अथवा किसी ‘मुकम्मल’ दुनिया की जो आंख और ईमानवालों के लिए अब भी काफी बची हुई है। अगर इतने पर भी भरोसा न होता हो तो आगे की पंक्ति को थोड़ा गौर से देख लें जो वैसे लोगों को सीधे-सीधे ललकारती हैं, जिनके लिए कविता और शब्द की अर्थवत्ता खो गई है। वे कहते हैं, 

‘मुझे शब्दों की हिफाजत
अपने तरीके से करनी है और पहली लड़ाई
उस आदमी के खिलाफ लड़नी है
जो शब्दों की अर्थवत्ता को तोड़ता है
और दूसरी उसके विरुद्ध
जो शब्दों की अर्थवत्ता को छोड़ता है।’ (एक छोटी सी लड़ाई, पृष्ठ 62) 

शर्मा जी इन शब्दों की अर्थवत्ता से परिचित हैं और उनसे सावधान करते हैं, जो इन शब्दों की अर्थवत्ता को तोड़ने और छोड़ने की साम्राज्यवादी साजिशें रचता दिखता है। ऐसे भयानक दौर में इस छोटी-सी पुस्तक की यही सार्थकता है कि वह हमें किसी आसन्न खतरे से सावधान कर दे।

हिन्दी आलोचना जगत के छोटे आचार्य नंदकिशोर नवल ने ‘आलोचना’ में गोरख पाण्डेय के गीतों पर विचार करते हुए एक बार लिखा था, गोरख पाण्डेय लोकगीतों की सरणि पर गीत रचते हैं,पर उनके गीतों में न लोकगीतों की मस्ती होती है, न ताजगी, उनमें एक जुगुप्सोत्पादक बनावटीपन होता है।’ संभव है, आचार्यों को यह बनावटी और जुगुप्सोत्पादक लगे किन्तु औरों के लिए सच्चाई यह है कि गोरख पाण्डेय के गीत हिन्दी प्रदेश में फैले करोड़ों मूक लोगों की सांस है, जिसके बजने मात्र से जीवन और मृत्यु का भेद खड़ा होता है। असली गीतकार तो कुछ दिनों पहले तक नंदकिशोर नवल के हृदय में फंसा था जिसे सारी मर्यादा लांघकर अततः हमारे सामने उपस्थित कर ही दिया। ‘बनावटीपन’ और ‘कृत्रिमता’ आचार्य के दो अत्यंत ही प्रिय शब्द हैं-जिनका प्रयोग वे बार-बार करते हैं। खासकर वैसे मौकों पर जब उनके सारे हथियार विरोधियों के सामने एक-एक कर चूक जाते हैं। आलोक धन्वा की कविता ‘जनता का आदमी’ और ‘गोली दागो पोस्टर’ की ‘चुस्त भाषा’ और ‘चुस्त बिंब’ (दोनों ही शब्द नवल जी के हैं) भी उनको कृत्रिम ही लगी थी। यह शब्द उनके व्यक्तित्व में इस कदर शामिल हो गया है कि उसकी कैद से वे बाहर निकल ही नहीं पाते।

समकालीन हिन्दी कविता के संसार में आलोक धन्वा एक अत्यंत ही विशिष्ट नाम है। उनकी यह विशिष्टता कई कारणों से है। हिन्दी कविता के क्षेत्र में शायद वे अकेले कवि हैं, जो महज इतनी, चंद कविताओं के आधार पर चर्चित रहे हों। दूसरे, इन पर लिखनेवाले आलोचकों की संख्या भी महज एक-दो ही है-वे भी हिन्दी के आचार्य आलोचकों की तरह बहुत नामवर भी नहीं हैं-फिर भी इनकी ख्याति लगभग सर्वाधिक है। आलोक धन्वा का असली आलोचक तो संपूर्ण हिन्दी प्रदेश में फैला पाठक वर्ग है, जो कई मायनों में आचार्य आलोचकों से ज्यादा विवेकवान है।

आलोक धन्वा की कविताएं शुरू ही होती हैं जिरह से। यह जिरह व्यवस्था से होती है, उसके नौकरशाहों से, सामंतों और गिरहकटों से। यह बड़े-से-बड़े अभियुक्त को थका देनेवाली किसी बड़े वकील की जिरह है जो अपने पक्ष में एक से बड़ा एक तर्क प्रस्तुत कर सबको हैरान कर देता है। जब-जब पूंजीवाद पर संकट गहराता है, फासीवादी ताकतों का जन्म होता है जो सीधे कहती है-बहस नहीं, हमें कबूल करो। आलोक धन्वा की कविता लगभग हर वैसी जगह पर एक अंतहीन जिरह और बहस की शुरुआत है। इस तरह आलोक धन्वा की कविताएं हमें जिरह करनेवाली कौम की संतान होने का सबब सिखाती हैं। शर्मा जी ने सुविधाभोगियों की दुनिया में इन कवियों को चुनकर अपनी परंपरा की पहचान की है और उसकी आग को तेज किया है।

पूरी किताब पढ़ते हुए कई ऐसे बिन्दु उभरते हैं जिनसे असहमत होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। खासकर आलोक धन्वा के मूल्यांकन में, ऐसा लगता है, शर्मा जी ने विशेष रागात्मकता से काम लिया है। सियाराम  शर्मा की नजरों में आलोक धन्वा, मुक्तिबोध की परंपरा के सच्चे वाहक हैं। परंपरा एवं विरासत जैसी जटिल चीजों को परिभाषित एवं चिह्नित करते वक्तहमें थोड़ा सतर्क और सावधान होना चाहिए क्योकि जिसे हम अपनी परंपरा में शामिल कर रहे हैं, बहुत संभव है, एक दिन कहीं विरोधियों के जुलूस में नारे लगाता न दिख जाये। मुक्तिबोध और आलोक धन्वा में एक बुनियादी फर्क है, जिसे हमें स्पष्टता के साथ समझ लेना चाहिए। मुक्तिबोध ने पेशेवर बुद्धिजीवियों की तरह दूर से खड़े होकर महज तमाशा नहीं देखा है, बल्कि जनता की भागदौड़ में, उसके आंदोलनों में अपना कंधा भी लगाया है। उसकी आवाज को अपनी प्रचंड वाणी से द्विगुणित किया है। मुक्तिबोध लिखते हैं, 

‘चेतना में हम विचारों की
गुंथे तुमसे
बिंधे तुमसे
व परस्पर आवेष्टित हो गये।’
(रचनावली, पृष्ठ 27)। 

बिल्कुल ‘सहचर’ हैं मुक्तिबोध जैसे किसी की अपनी ही छाया हो, जो छोड़ती नहीं कभी हमारा साथ, नष्ट होने की अंतिम घड़ी तक।

आलोक धन्वा का मिजाज कुछ दूसरा है। किसी आंदोलन का लड़ा हुआ सिपाही नहीं है वह। उन्होंने तो सिर्फ उसकी ‘समझ’ हासिल की है, उसका रहस्य जाना है, कड़वा स्वाद नहीं चखा है। आप तरस खाइए कि उनकी समझ भी ‘फर्स्टहैंड’ नहीं है, बल्कि किसानों-मजदूरों के संज्ञान से वह चुरायी हुई है, जिसका उन्हें भारी ‘गुमान’ है। 

‘यह कविता नहीं है
गोली दागने की समझ है जो तमाम कलम चलानेवालों को
हल चलानेवालों से मिल रही है।’ 
(गोली दागो पोस्टर)। 

मुक्तिबोध आंदोलन की समझ हासिल करके ही संतुष्ट नहीं हैं, बल्कि उसे जीते भी हैं। उसकी सजा भी भुगतते हैं-
‘भागता मैं दम छोड़
घूम गया मैं कई मोड़।’ 

चूंकि आलोक धन्वा ने एक अपरिचित पर्यवेक्षक की तरह आंदोलनों को दूर से देखा है इसलिए उन्हें गोली चलाने की समझ मात्र मिली है, जबकि मुक्तिबोध ऐसी चीज थे जिसे खरीदा नहीं जा सकता था, फलतः सत्ता की गोलियों का निशाना बनना पड़ता था। मुक्तिबोध ने अपने कानों से सुना था-‘मारो गोली दागो स्साले को एकदम।’ आलोक धन्वा में आंदोलनों के साथ वह निजता नहीं, आत्मीयता नहीं क्योंकि वे पेशेवर बुद्धिजीवियों की पांत में शामिल हो चुके हैं। इसीलिए अब मजदूरिनों की हत्या उनकी कविताओं में ‘उत्सव’ की तरह आती है।

जो क्रांतिकारी केवल छद्म होता है, क्रांतिकारी होने का स्वांग रचता है, उसे अपनी ‘पहचान’ की चिंता सबसे ज्यादा सताती है। उसकी पहचान केवल औरों से दर्शायी गई उसकी विशिष्टता है जो सामंती मानसिकता से उत्पन्न भूख को शान्त करती है, उसका अहं तुष्ट करती है। उनकी ‘फर्क’ शीर्षक कविता इसी अहं को तुष्ट करती कविता है। आलोक धन्वा को लगता है, जैसे उनकी मृत्यु के बाद लोग उन्हें भुला देंगे, किसी अनिच्छा की तरह। क्रांतिकारी कवि को अब अपने समानधर्मा पर भी विश्वास नहीं रहा, जिसके साथ मिलकर वे क्रांति और जनवाद के हजारों सपने देखे होंगे! (मौखिक बातचीत में वे इस तथ्य की ओर बार-बार लौटते हैं)। पहचान के खत्म हो जाने के डर से पीड़ित कवि की कुछ पंक्तियां यहां गौर करने लायक हैं-‘

तुम जो अनगिनत बार
मेरी कमीज के ऊपर ऐन दिल के पास
लाल झंडे का बैज लगा चुके हो
तुम भी यकीन मत कर लेना।’

शर्मा जी ने सिर्फ कविताएं पढ़ीं हैं, आलोक धन्वा का जीवन नहीं देखा है। वैसे साहित्य में रचना और रचनाकार को बिल्कुल ही अलहदा करके देखने की प्रवृत्ति पता नहीं कहां से चल निकली है। एक बहुत बड़ा तबका है जो इसे स्वस्थ लेखन के लिए अनुचित मानता है। सियाराम शर्मा का भी कुछ इसी तरह का ख्याल है। मुझे लगता है, सिर्फ कविता के आधार पर, कवि के जीवन के उतार-चढ़ाव को जाने बगैर कविता के ‘गैप’ को समझना मुश्किल है। वैसे यह मेरा दुस्साहस है। शर्मा जी ने मुझसे कई गुना ज्यादा पढ़ा है और चीजों को समझा है। अपनी उम्र के हिसाब से मैं कुछ बड़ी ही बात कर गया। इसलिए गालिब के संदर्भ में पेश की गई विश्वनाथ त्रिपाठी की उक्ति का सहारा लेना चाहूंगा। वे कहते हैं, ‘जो लोग रचना और रचनाकार के जीवन की अंतःसूत्रता को नकारते हैं उन्हें गालिब की कविता और उनके पत्रों को ध्यान से पढ़ना चाहिए। अंतःसूत्रता स्वीकार करनेवालों को तो और ज्यादा।’ (आजकल, दिसंबर 1997)                                                  

प्रकाशन: प्रभात खबर, विकल्प - 3, दिसंबर ’ 97। 

1 comment:

  1. हिंदी साहित्यकारों और रचनाकारों के बारे में सारगार्वित प्रस्तुति ... बधाई आभार

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