Friday, March 12, 2010

चंद किताबों के बारे में चंद बातें - राजूरंजन प्रसाद

लाल जिल्दोंवाली एक किताब
मैं जिस घर में पैदा हुआ वहां किताबें नहीं थीं। बहुवचन नहीं, एकवचन। यानी कि एक किताब थी-लाल जिल्दोंवाली। शीर्षक, जहां तक मुझे याद है, क्रांति में जूछे की भूमिका था। और इसके लेखक थे किम इल सुंग। यह किताब मेरे चाचा की थी। उन चाचा की जिन्होंने हम सबको पढ़ाया। चाचा उस किताब को बक्स में बंद रखते और खास अवसरों पर पढ़ते। उक्त किताब को पढ़ते वे एहतियात बरतते। घोर धार्मिक व्यक्ति धर्मग्रंथों के साथ जो सलूक करता है, कुछ-कुछ वैसा ही। पढ़ते और फिर सहेजकर रख देते। मैं उसकिताब को उतनी ही देर देखता जितनी देर तक वे पढ़ रहे होते। हां, पढ़ चुकने के बाद वे अपने हस्ताक्षर अवश्य करते।

किताबों के बगैर मैं बड़ा हुआ। आठवीं कक्षा में जनशक्ति ( मेरे विद्यालय के तीन शिक्षक कम्युनिस्ट विचारों के थे, शायद उनके दबाव से यह अखबार आता रहा हो ) में ‘पीपुल्स बुक हाउस’ द्वारा रूसी किताबों की प्रकाशित सूची के आधार पर मैंने चार किताबों का चयन किया-कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र, साम्राज्यवाद पूंजीवाद की चरम अवस्था, कम्युनिस्ट समाज में नैतिकता आदि। एक किताब का नाम मैं स्मरण नहीं कर पा रहा हूं। ये किताबें मैंने पड़ोस के एक आदमी से, जो मेरे सबसे बड़े भाई के सहपाठी रह चुके थे, मंगवाई थीं। उन्होंने किताबें लाकर सीधे चाचा के हाथ में दे डाली। नतीजा-किताबों को कालेपानी की सजा और मुझे डांट। इस तरह मेरी किताबें भी चाचा की किताब के साथ बक्स में बंद हो गईं। मैं अपनी किताबों की बरामदगी की कोशिश में लगा रहता लेकिन सफलता हाथ न लगती। संभवतः चाची से किसी दिन किताबें मैंने प्राप्त कर लीं। इन किताबों को पढ़ने के बाद मैंने एक लड़के के जिम्मे कर दिया। अलबत्ता इन किताबों की कीमत मैंने बहुत बाद में, लगभग दस साल बाद वसूली जब उसके यहां से मार्क्स की पूंजी (अंग्रेजी संस्करण) उठा लाया।

किताब जिसने मुझे पढ़ना सिखाया


दसवीं कक्षा में पहुंचा तो बड़े भाई साहब ने इतिहास की किताब सभ्यता की कहानी (भाग-2, लेखक-अर्जुनदेव, प्रकाशन-एन. सी. ई. आर. टी.) लाकर दी। इस किताब को मैं बड़े ही मनोयोग से पढ़ता। शायद यह पहली किताब थी जिसने मुझे पढ़ना सिखाया। बात को रखने की कला बतायी। मेरे अंदर का तर्कशास्त्र जन्म ले रहा था। यह किताब लगभग पूरी की पूरी याद हो चली थी और मैंने विचार करना भी शुरू कर दिया था। शायद इसी किताब का असर था कि एक दिन मैंने अपने इतिहास के शिक्षक से पूछ ही दिया-सर, मार्क्स ने तो कहा था कि समाजवादी क्रांति सबसे पहले इंगलैंड में होगी लेकिन वहां नहीं हुई। आखिर क्यों ? मेरे शिक्षक के लिए यह सवाल भारी पड़ गया था। अंत में मुझी से जवाब दिलवाया। उस समय मेरे मन में यह भाव होता कि शिक्षक पर मैं भारी पड़ गया और बेहद गौरवान्वित महसूस करता। मेरे शिक्षक ( पारसनाथ गिरि ) को लगा कि सबकी जड़ में वह किताब ही है, कि उसी किताब ने मेरा माथा खराब कर रखा है। इसलिए एक दिन उन्होंने मेरे पिता से शिकायत कर दी कि मैं बी. ए.-एम. ए. की किताब पढ़ता हूं और यह भी कि किताब में लड़कियों की तस्वीरें रखता हूं। पिता ने जमकर पिटाई कर दी। (वैसे वे हल्की पिटाई कभी करते ही न थे। मैं अक्सर ही मार खाता और निराला को याद करता। दसवीं की हिंदी की ही किताब ही में पढ़ा था कि निराला को उनके पिता बहुत मारते।) कुछ दिनों के बाद भाई आए तो पिता ने उनसे शिकायत की। एम. ए.-बी. ए. की किताब पढ़नेवाली बात का जवाब तो खुद उनके पास था। स्कूल जाकर उन्होंने शिक्षक महोदय से कहा भी कि अगर वह बी. ए.-एम. ए. की किताब अभी ही पढ़ ले सकता है तो आपको क्या दिक्कत है ? सो उस बाबत वे कुछ न पूछे। अलबत्ता लड़कियों की तस्वीर के मामले का रहस्य मैंने खोला। दरअसल उक्त शिक्षक ने दूर ही से उस किताब को चोर नजरों से देखा था। उसमें फ्रांस्वा नोइल बाब्यूफ की एक तस्वीर थी। पहली नजर में वह किसी को भी लड़की की तस्वीर लग सकती है। इसमें हमारे शिक्षक का भी बहुत दोष नहीं था।

बेहतर है एक किताब पांच बार पढना


दसवीं कक्षा के लिए हिंदी की किताब थी साहित्य-सरिता। इसमें लगभग चालीस पृष्ठों की एक लंबी भूमिका थी। भूमिका शायद बाबू श्यामसुंदर दास की लिखी थी। मैं उसे बड़े ही चाव से पढ़ता और इतनी बार पढ़ा कि लगभग कंठस्थ हो गया। हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति लगाव पैदा करने में उस ‘भूमिका’ का बड़ा योग रहा। इससे एक लाभ और हुआ कि किताब की भूमिका पढ़ने की मुझे आदत-सी लग गई। आज भी मैं भूमिका पढ़कर ही पता कर लेता हूं कि कौन-सी किताब पढ़ने लायक है और कौन नहीं। अपने बड़े भाई की कही बात कि ‘अच्छा पाठक वह नहीं है जो बहुत या सब कुछ पढ़ता है बल्कि वह है जो यह जानता है कि हमें क्या पढ़ना है और क्या नहीं’, आज भी मुझे सूत्रवाक्य की तरह लगती है। इस सूत्रवाक्य ने मेरा बहुत भला किया है। इसलिए अपने छात्रों या दूसरे पाठकों के बीच मैं इसे कभी न कभी दुहराता अवश्य हूं। उनकी यह बात भी मैंने गांठ में बांध ली थी कि ‘पांच किताब पढ़ने से बेहतर है एक किताब पांच बार पढ़ना।’ दूसरी बात वे अपने एक कॉलेज शिक्षक के हवाले से कहते थे। उन शिक्षक का नाम था दीनानाथ वर्मा। पटना विश्वविद्यालय में तब इतिहास के प्रोफेसर थे। तुलसीदास की पंक्ति शास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखई की भी शायद यही सलाह है।

इन्हीं दिनों मैंने प्रेमचंद का उपन्यास निर्मला पढ़ा। किताब का असर कहिए या फिर किशोर मन का कि उसे पढ़ते हुए मैं रो उठता। संभव है कि मेरी भावुकता की वजह से ऐसा हुआ हो लेकिन इससे एक बात समझ में आई कि किशोर मन पर किताबें कितनी असर डाल सकती हैं। हालांकि किताब पढ़ते या फिल्म देखते बाद के दिनों में भी मैंने लोगों को आंसू से तर पाया। याद है कि मेरे चाचा जब दूरदर्शन पर महाभारत धारावाहिक के करुण दृश्य देखते तो रोते-रोते बेहाल हो जाते। महाभारत की कथा-योजना के साथ-साथ राही मासूम रजा की संवाद-योजना की भी सफलता थी यह।

अपने समय की गीता है वह

स्कूल की पढ़ाई समाप्त कर पटना आया तो फिर किताबों की कभी कमी नहीं खली। बड़े भाई की सारी किताबें मैं उलट-पलट सकता था और पढ़ सकता था। सिलेबस जैसी किसी चीज की कोई बंदिश वे न मानते थे बल्कि कई बार वे उत्साहित भी करते। किताबों की उनकी पसंद उम्दा थी। उनके पास रजनी पाम दत्त की किताब इंडिया टुडे का एक संक्षिप्त संस्करण था जिसे पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने ‘भारत: वर्तमान और भावी’ शीर्षक से प्रकाशित किया है। इस किताब को मैंने कई दफा पढ़ा। कहिए कि यह मेरे लिए ‘मनोहर पोथी’ थी। इस किताब का मुझ पर काफी असर हुआ। आज भी अपने को कभी-कभी उसकी पकड़ के अंदर महसूस करता हूं। बाद में पता चला कि देश के अंदर-बाहर दोनों ही जगहों पर कम्युनिस्ट पैदा करने में उस किताब का अमूल्य योगदान रहा है। और बात है कि कई जगहों पर अतिरेक एवं सरलीकरण से काम चलाया गया है। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत में मार्क्सवादी इतिहास लेखन की शुरुआत है वह। उस किताब ने सिर्फ मुझे ही नहीं बल्कि भारत में मार्क्सवादी चिंतन को एक दृष्टि/दिशा दी है। एक समय की गीता या बाईबिल है वह।

हर आदमी सौ पृष्ठों की किताब है

यही समय है जब मैंने रामशरण शर्मा की किताब प्राचीन भारत (एन. सी. ई. आर. टी., अंग्रेजी संस्करण) भी पढ़ी। बच्चों के लिए लिखी गई यह किताब आज भी मुझे शर्मा जी की सर्वश्रेष्ठ कृति लगती है। इतिहास को पढ़ने और समझने की ट्रेनिंग है इसमें। इस किताब को मैं बार-बार पढ़ता। आज भी पढ़ता हूं यह कहते मुझे तनिक भी किसी तरह का संकोच नहीं हो रहा है। इस किताब ने मुझे किताबों को पढ़ना सिखाया है। मैं अपने को इसका ऋणी मानता हूं। लगता है, इस किताब को शर्मा जी ने बड़े ही इतमीनान और धैर्य से लिखा है। कहीं से भी नहीं लगता कि इतिहास-दर्शन पढ़ाया जा रहा है जबकि छात्र उससे लैस होता चलता है। यह ऐसी किताब है जिसे पढ़ते हुए लेखक की बात सुनायी पड़ती है। ई. एच. कार ने लिखा है कि किताब के पीछे से एक आवाज आती है। आवाज अगर सुनायी न दे तो या तो लेखक गूंगा है या फिर पाठक बहरा है। शर्मा जी की इस किताब को पढ़ते हुए वह आवाज सुनी जा सकती है। मुझे अगर थोड़ा दुस्साहसी होने की छूट लेने दें तो मैं कहूं कि इस किताब को पढ़ लेने पर शर्मा जी की बाकी किताबें मुझे एक किताब से निकली हुई दूसरी किताब लगती है। श्रम से लिखी गई किताबें, किंतु आत्मा से हीन। रामसुजान अमर ठीक ही कहते हैं कि ‘प्रायः प्रत्येक आदमी सौ पृष्ठों की एक किताब है।’ प्राचीन भारत शर्मा जी की समझ और उनके विचारों का निचोड़ लगती है मुझे। रामविलास शर्मा के शब्द अगर उधार लूं तो कहना होगा कि यह किताब रामशरण शर्मा की ‘इतिहास-साधना’ है।

द वंडर दैट वाज इंडिया

इन किताबों की कैद से छूटा तो मैंने अपने को ए. एल. बाशम की किताब द वंडर दैट वाज इंडिया की पकड़ में पाया। इस किताब ने प्राचीन भारतीय इतिहास के बारे में अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा सृजित-प्रचारित-प्रसारित मिथक से मुझे बचाया। यूरोपीय और विशेषकर अंग्रेज इतिहासकारों की सामान्य धारणा थी कि भारत नटों-सपेरों, आध्यात्मिक संतों और इसी तरह की अन्य विचित्रताओं से भरा देश है। इस पुस्तक ने भारत को उस कोहरे से बाहर निकालने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। बाशम ने धर्म से लेकर विज्ञान तक का इतना समुचित और सुंदर विश्लेषण किया है कि पाठक उसकी वस्तुनिष्ठता का कायल हुए बगैर नहीं रह सकता। यह किताब दरअसल एक नये भारत की खोज है। संपूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास पर ऐसी समग्र और संतुलित दृष्टिवाली पुस्तक अब तक मुझे हाथ नहीं लग सकी है। इस किताब की सबसे बड़ी विशेषता है कि आई. ए., बी. ए. के छात्र से लेकर विश्वविद्यालय के गंभीर से गंभीर शोधार्थी तक इसे पढ़ना आवश्यक समझते हैं। ऐसा सौभाग्य केवल सुमित सरकार की किताब मॉडर्न इंडिया को प्राप्त है। यह किताब भी टेक्स्ट-बुक और रिसर्च-बुक की सीमा से परे है। दरअसल यह हैंडबुक है। इन दोनांे ही किताबों को पढ़े बगैर आप भारतीय इतिहास के भरोसेमंद विद्यार्थी नहीं हो सकते।

कुछ भी नहीं है अकाट्य

इन दोनों किताबों से भी कम पृष्ठोंवाली एक किताब लाला हरदयाल की है-हिंट्स फॉर सेल्फ कल्चर। इसमें इतिहास, गणित एवं भूगोल जैसे विषयों से लेकर संगीत तक पर जानकारी उपल्ब्ध है। उसी किताब में मैंने इतिहास के बारे में पढ़ा था कि यह हज्जाम के उस्तरे की तरह है जिससे सफलतापूर्वक दाढ़ी बनाकर आप सुंदर दिख सकते हैं लेकिन आपने थोड़ी भी लापरवाही या असावधानी बरती कि अपने को घायल कर लेंगे। किताब पढ़ने के तरीके के बारे में उसकी एक हिदायत आज भी मेरे अमल में है। उनका मानना था कि कोई भी पुस्तक आप पढ़ें तो उसके नोट्स अवश्य लें। बगैर नोट्स की पढ़ाई की तुलना उन्होंने ढालुआं छत की वर्षा से की थी। मूसलाधार बारिश के बाद भी पानी की बूंदें वहां ठहर नहीं पातीं। इस हिदायत को ताक पर रखकर पढ़नेवालों का बुरा हाल होते मैंने देखा है। आसपास ऐसे लोग बिखरे पड़े हैं जिन्होंने पढ़ा तो बहुत कुछ (एक सीमा में कहें तो शायद सब कुछ!) लेकिन लिखा कुछ भी नहीं। शायद कुछ अकाट्य लिखना चाहते हों!

निराला का भक्त बनाया

पता नहीं क्यों निराला मुझे बार-बार अपनी ओर आकर्षित करते रहे। शायद इसमें अपराजेय निराला की भी कोई भूमिका रही होगी। इस पुस्तक के लेखक संभवतः रामेश्वर सिंह कश्यप (बिहार में आरा के साहित्यकार जिनका लोहा सिंह नाटक काफी चर्चित रहा है) हैं। निराला की इसमें एक व्यक्तित्त्व गढ़ने की सफल कोशिश हुई है। इसमें एक पात्र, जहां तक मुझे याद है, हजारी दादा हैं जो लड़ने-भिड़ने का शौक रखते हैं और जिनसे निराला की खूब छनती भी है। जब यह किताब मैंने पहले पहल पढ़ी थी तो हजारी दादा को और कोई नहीं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ही मान बैठा था। ज्ञान बढ़ा तो इस भ्रम का निवारण हुआ। इसी पुस्तक ने बताया कि निराला का हिन्दी-प्रेम अपनी पत्नी मनोहरा देवी की वजह से पैदा हुआ। निराला दरअसल बंगाल के महिषादल में पैदा हुए थे इसलिए बंगाली संस्कार के वशीभूत हो हिन्दी भाषा के महत्त्व से गाफिल थे। मनोहरा हिन्दी-भाषी थीं और तुलसीदास की पंक्तियां भजन के बतौर गुनगुनाया करती थीं। पत्नी का कंठ-स्वर और तुलसीदास की लयात्मकता ने निराला का मन मोह लिया। बल्कि एक तरह से कहिए कि मोह-भंग भी हुआ। इससे पहले वे हिन्दी को बंगला भाषा के पासंग बराबर भी वजन देना मुनासिब न समझते थे। मनोहरा के गीत ने निराला को तुलसीदास और साथ ही हिन्दी का मुरीद बनया। बाद के दिनों में तो वे हतभागे तुलसीदास में अपनी ही छवि खोजने लगे। ‘राम की शक्तिपूजा’ मुझे कभी-कभी तुलसीदास और स्वयं निराला की समरगाथा लगती है। आराधन का दृढ़ आराधन हो शायद। जब भी मैं इस किताब को पढ़ता निराला समेत उसके सारे पात्र मेरे अंदर आकार ग्रहण करने लगते और निराला के प्रति श्रद्धानवत होता। कहिए कि इस किताब ने मुझे निराला का भक्त बनाया।

सदियों में कभी-कभार

इस किताब के जरिए निराला की जो छवि निर्मित हुई उसको एक विराट रूप दिया निराला की साहित्य साधना ने। यह किताब डा. रामविलास शर्मा ने कवि के जीवन में डूबकर तैयार की है। निराला के जीवन की छोटी-बड़ी चीजों की ऐसी बारीक अभिव्यक्ति कि ऐसी कला और सामर्थ्य पर किसी को भी एक बार ईर्ष्या हो सकती है। बड़ी ही साफगोई, ईमानदारी और उतनी ही गहरी आत्मीयता के साथ तैयार की गई जीवनी कि स्वयं उस जीवन को जीनेवाला भी देख-पढ़कर दंग रह जाए कि कितना कम जानता है वह अपने को। सहज अविश्वसनीय! मेरे लिए तय करना मुश्किल है कि उसे उपन्यास कहूं कि जीवनी। पढ़िए तो लगता है जैसे किसी फिल्म की कहानी आपके आगे से सरक रही हो। निराला को संभवतः रामविलास शर्मा की साहित्यिक मेधा/प्रतिभा का पहले ही अंदाजा हो चुका था इसलिए वे उन्हें डाक्टर साहब कहते। निराला की अकड़ भला किसी ऐरे-गैरे को डाक्टर कहने की अनुमति देती क्या ? इस डाक्टर ने ऐसी शव-परीक्षा की कि जो भी निराला के अंदर था उसे बाहर कर दिया। कुछ भी गोपन न रहा! इस किताब को पढ़ते हुए सदैव यह लगा कि निराला के साथ-साथ रामविलास शर्मा की खुद की साहित्य साधना भी है। ऐसी जीवनी हमेशा नहीं लिखी जाती। सदियों में कभी-कभार। हिन्दी क्या विश्व साहित्य में भी ऐसी जीवनी दुर्लभ है।
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1 comment:

  1. इनमें से ही कई हमारी भी पहली शिक्षक रही हैं

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