Monday, March 15, 2010

यह समय है मेरे उगने का

विजयशंकर चतुर्वेदी समकालीन हिंदी कविता में निस्संदेह एक ‘नवोदित’ नाम है लेकिन परंपरा-ज्ञान और इतिहास-बोध इतना गहन, गहरा और परिपक्व है कि वे कई-कई वरिष्ठों के कान काटते हैं। परंपरा एक सतत् प्रवहमान धारा है। अच्छा-बुरा सब कुछ है वहां। अच्छे-बुरे की पहचान करनी होती है। क्या त्याज्य है और क्या ग्राह्य-यह विवेक पैदा करना होता है। कवि को इलहाम है कि
‘मेरी आंखें हैं मां जैसी
हाथ पिता जैसे
चेहरा-मोहरा मिलता होगा जरूर
कुटुंब के किसी आदमी से।’ (संबंधीजन, धरती के लिए तो रुको)।
इस परंपरा में कवि की जगह कहां बनती है, आप देख सकते हैं-
‘यह समय है मेरे उगने का
मैं उगूंगा और दुनिया को धरती के किस्सों से भर दूंगा।’
कवि को मालूम है कि परंपरा की लीद नहीं ढोई जाती। समकालीनता के साथ-साथ सही-गलत का विवेक उसे सावधान करता है-
‘संभव है कि हमलावर मेरे कोई लगते हों
कोई धागा जुड़ता दिख सकता है आक्रांताओं से
पर मैं हाथ नहीं लगाऊंगा चीजों को नष्ट करने के लिए
भस्म करने की निगाह से नहीं देखूंगा कुछ भी।’
कवि को लगता है कि कोई उसे परंपरा या अतीत का निषेध करनेवाला न समझ ले, इसलिए झट वह दुहराता है-
‘मेरी आंखें मा जैसी हैं
हाथ पिता जैसे।’
इसी परंपरा की एक कड़ी हमारी बेटियां या संताने हैं। इस दुनिया से विदा हो चुकी बिटिया की पहचान भी कवि परंपरा-बोध के सहारे ही करना चाहता है-
‘हो सकता है तुम्हें मैं न पहचान पाऊं तुम्हारी बोली से
लेकिन मैं पहचान जाऊंगा तुम्हारी आंख के तिल से
जो तुम्हें मिला है तुम्हारी मां से।’
और आगे,
‘जब भी कभी मिलूंगा इस दुनिया में
मैं पहचान लूंगा तुम्हारे हाथों से
वे तुम्हें मैंने दिये हैं।’
एक ‘नवोदित’ कवि परंपरा जैसी ‘खतरनाक’ चीज से इस तरीके से पेश आये, सहज विश्वसनीय नहीं लगता।
कवि का मानना है कि मनुष्यों की संस्कृति महज मनुष्यों के बूते नहीं बनी है। उसमें पशु-पक्षियों का भी उतना ही योगदान है।
‘सारे पशु-पक्षी हममें कुछ न कुछ भरते हैं
तब जाकर हम इंसान होने की बात करते हैं।’
(गुरुजन, पृष्ठ 94-95)। इंसान होने से मतलब उनके प्रति कृतज्ञ होना है। यह कृतज्ञता हम प्रकट कर सकते हैं विकास का जो हमने प्रकृति-विरोधी मॉडल अपनाया है उस पर पुनर्विचार करके। सभ्यता की जो अंधी-दौड़ हमने शुरू की है उस पर विवेक की वल्गा लगाकर। क्योंकि विकास का जो वर्तमान मॉडल है उसमें हमें कुछ आगे बढ़ जाने पर ही पता होता है कि कुछ अति महत्वपूर्ण चीजें भी थीं जो इस अंधी-दौड़ में छूट गईं। कवि इस दौरान छूट गई चीजों की नोटिस लेता है-
‘देस छूट गया
रास्ते में छूट गये दोस्त
कुछ जरूरी किताबें छूट गईं
पेड़ तो छूटे अनगिनत
... आखिर कब तक नहीं छूटेगी सहनशक्ति ?’ (आखिर कब तक, पृष्ठ 90)।
इसके बाद शायद छूटने या छोड़ने लायक चीजें रहेंगी भी क्या ? जाहिर है, जिस तरह ‘चिड़ियों की उड़ान में शामिल होते हैं पेड़’, हमारी संस्कृति में ये सब समाहित हैं, सब उसके आवश्यक उपादान हैं। इसीलिए कवि कहता है,
‘ओ प्रकृति, तुम मुझमें रहो
मैं रहूं लोगों में।’(सर्द दिनों में, पृष्ठ 79-80)।
भारत का आम जन साम्प्रदायिक नहीं है लेकिन धर्मनिरपेक्षता की जीती-जागती इमारत बाबरी मस्जिद को साम्प्रदायिक ताकतों ने ढहा दिया। कवि की निगाह वैसे लोगों की पहचान करती है जो इमारत गिराने में शामिल नहीं थे-
‘हमने नहीं ढहायी कोई मस्जिद
मंदिर भी नहीं तोड़ा हमने
हम तो कर रहे थे तैयार
बच्चों को स्कूल के लिए
स्त्रियां फींच रही थीं कपड़े
धो रहीं चावल
कुछ भर रही थीं स्टोव में हवा
चिड़ियां निकल पड़ी थीं दाने चुगने
खेतों की ओर जा रहे थे किसान।’
जाहिर है कोई मंदिर-मस्जिद की ओर नहीं जा रहा। फिर भी मस्जिद गिरा दी गई। इसे गिराने को बाकी कौन-से लोग बचे रह गये, कहने को बाकी रह जाता है क्या ? वैसे यह महज मस्जिद किसी और के लिए होगी। कवि की दृष्टि तो दूर तक जानेवाली होती है। कवि का तो शब्दार्थ ही है जो दूर तक देखे। हमारा कवि उसे चरितार्थ करता है। एक अकेली मस्जिद के साथ कई चीजें टूटती हैं-
‘जो टूटे
वे थे हमारे ही मकान
सड़क थे
सन्नाटा भी थे हम
गलियों में दुबके चेहरे हमारे थे।’
कितनी सारी चीजें हमने एक ही बार में तोड़ डाली। किन्तु टूटने के बाद भी ‘सन्नाटा’! कैसी विडबना, कैसी त्रासदी है यह।
पलायन, निर्वासन और यहां तक कि आत्मनिर्वासन झेलते समय में ‘घर’ कविता में एक जिद की तरह आए बहुत ही सुखद और स्वाभाविक लगता है। जिद ऐसी कि
‘बांसों में बंधकर ऐसे ही नहीं निकल जाऊंगा
कि मुंह बाये देखता रह जाये आंगन
ताकती रह जाये अलगनी
दरवाजा बिसूरता रह जाये
...खफा होते हैं तो हो जायें मित्र
शोकाकुल परिजन ले जायें तो ले जाये
मैं जलूंगा नहीं।’(क्यों जाऊं ?, पृष्ठ 50)।
यह जिद इसलिए नहीं कि घर महज बसने की ठोस इच्छाएं हैं बल्कि इसलिए कि ‘मेरी देह ने किया है अभ्यास इस घर में रहने का।’(क्यों जाऊं ?,पृष्ठ 50)। इस घर में मनुष्य की संवेदना के साथ ही सारी ‘जरूरतें’ भी हैं। घर में ‘पूछ रही है बेटी-पापा, मेरी घड़ी आज भी लाये कि नहीं।’ यह घर एक दिन में नहीं बना है। इसमें ‘कोयला हो गये पिता’ की कुर्बानी है तो मां का अमूल्य श्रम। जरा देखें,
‘अभी-अभी उसने नींद में ही मांज डाले हैं बर्तन
फिर बांध ली हैं मुट्ठियां
जैसे बचने की कोशिश कर रही हो किसी प्रहार से
मैं देख रहा हूं उसे असहाय।’(मां की नींद, पृष्ठ 18-19)।
घर के अंदर की असहायता से ही शायद बुद्ध की करुणा पैदा हुई थी और उन्होंने अंततः गृहत्याग कर दिया। बुद्ध का गृहत्याग ‘महाभिनिष्क्रमण’ का गौरव प्राप्त किया। कवि की टिप्पणी है,
‘वैसे जहां भी जाओगे
कोई बोधिवृक्ष नहीं पाओगे
वहां भी ढोओगे पीड़ाओं के पहाड़
करोगे चाकरी
तोड़ोगे हाड़
दुख पीछा करते चले आयेंगे।’ (चौपाल, पृष्ठ 48-49)।
इसलिए
‘सयाना वह है
जो घर में रहकर गृहस्थी की बात करता है।’ (वही)

No comments:

Post a Comment