Monday, March 29, 2010

लुकाठी किसी को पूछकर नहीं उड़ती

हरेकृष्ण झा की उन्नीस कविताओं का संग्रह ‘धूप की एक विराट नाव’ समकालीन सामाजिक यथार्थ का न सिर्फ एक जीवंत दस्तावेज है बल्कि ऐसा सुस्पष्ट एक्स-रे है जिसे देखकर मरीज की स्थिति का पता लगाने के लिए किसी दक्ष की जरूरत नहीं होती। एक बिल्कुल सामान्य पाठक भी उनकी कविताओं के माध्यम से समाज की विसंगतियों से वाकिफ हो सकता है। जब हम झा जी की कविताओं का विवेचन-विश्लेषण करने बैठते हैं तो कवि त्रिलोचन की कुछ पंक्तियों की याद आती है। झा जी की कविता इतना फैलाव लिये है कि उनकी कविताओं में प्रकृति-चित्रण से लेकर पारिवारिक-सामाजिक संबंधों तक सिमटे चले आये हैं बावजूद इसके उनकी कविता कहीं भी कुरूप या दुरूह बनती नहीं दिखती।
पूंजीवादी संस्कृति ने जिन कुछ महत्वपूर्ण चीजों को क्षति पहुंचायी है उनमें एक मानवीय संवेदना भी है। चारों ओर हिंसा और रक्तपात की बातें ही सुनने को मिलती हैं। संवेदनाहीन मनुष्य पशु की कोटि का होता है। व्यक्ति के सुख-दुख में शरीक होने की बात तो दूर बड़ी से बड़ी संवेदना की घड़ी में भी उसकी आंख गिली तक नहीं होती। लोग अपने-अपने वर्गीय और व्यक्तिगत स्वार्थों की वजह से अंधे और संवेदनशून्य हो गये हैं। ‘अपने ही हाथों से’ कविता में झा जी ने इसी तरह की संवेदनहीनता को लक्ष्य करके लिखा है; ‘अफसोस किया था नर्सों ने/अपने ठंढे सफेद कायदे से। दुख जताया था डाक्टरों ने/सौम्य सलीके से/दवाओं के अधिकारी/दवाओं के व्यापारी/मशगूल थे भंडारों दूकानों में/झुंझलाते हुए म नही मन/कि कुछेक और गहने और बासन/क्यों नहीं हुए उस औरत के पास/साहूकार को बेचने को।’ जाहिर है कि समाज के किसी कोने में महज औपचारिकता भी देखने को आपको न मिलगी, दुख और गम की घड़ी में साथ हो लेना तो कुछ और ही तरह की बात है।
कहने को तो पूंजीवाद की भी एक क्रांतिकारी भूमिका है लेकिन अक्सर होता ऐसा है कि सामंतवाद के साथ वह तीव्र संघर्ष न करके उसके साथ समझौता कर लेता है। भारत के साथ भी यही हुआ। पूंजीवाद ने सामंतवाद के साथ समझौता किया जिसके परिणामस्वरूप सामंती शोषण का स्वरूप समाज में अब तक बरकरार रहा। शोषण के सामंती स्वरूप की विशेषता है कि इसमें स्पष्ट पता नहीं चलता कि कोई है जो उसका शोषण कर रहा है। और फिर उसे इस हद तक ठोक-पीटकर यह वेदवाक्य स्मरण करा दिया जाता है कि वह अपनी गरीबी तथा अशिक्षा के लिए स्वयं जिम्मेवार है। शोषण के सामंती स्वरूपवाली व्यवस्था में किसान अपने को मालिक से अलग नहीं देखता। भोला किसान यह समझता है कि वह मालिक की दया पर ही जीवित है। अगर उसके मालिक उस पर दया दिखाना बंद कर दें तो उसके लिए जीना भी मुश्किल हो जायेगा। कवि ने इसी आशय को स्पष्ट उल्लेख करते हुए लिखा है; ‘तुष्ट हैं बड़े भाई/और कह रहे हैं मुझसे/मुसकाते हुए/कि ठीक है सब कुछ ठीक है /उनके जीवन में/ मालिकों की दया से।’ किसानों की इस तरह की असंगत सोच का एक कारण उनकी राजनीतिक शिक्षा का अभाव भी है। गोदान का होरी भी यह महसूस नहीं करता कि रायसाहब के हाथों उसकी किस्मत गिरबी रखी है। उसे इसका तनिक भी भान नहीं होता।
किसानों के बीच अगर इस तरह की चेतना का प्रसार हो जाये कि उन्हें भी अपने अधिकार लेने का बाजिव हक बनता है तो ये सन्नाटा टूट सकता है। ये मौन एक खास तरह के ध्वंसक विस्फोट में बदल सकता है। शोषकों के दिल दहल जायेंगे। कवि ने उसकी तरफ ईशारा करते हुए फरमाया है; ‘हिलने लगता बीचवाला खंभा/उनके मालिक की हवेली का/थरथराने लगती नीवें/उनके मालिक के आलीशान मकानों की/राजधानी में/और चरमराने लगता/सारा ढांचा उनके चारों ओर के/अंधेरे का/यदि खुश/ न होते बड़े भाई/ सुस्त संतुष्ट/ न होते बड़े भाई।’
अब आप यह पूछ सकते हैं कि किसान आखिर सुस्त-संतुष्ट क्यों बैठे हैं? क्यों नहीं वे अपने मालिकों के खिलाफ बगावत करने की बात सोंचते? इसका जवाब होगा एक बहुत बड़े आतंक और हादसे का डर। चर्बीदार तोंदवाले शोषकों से लड़ाई लेना कोई साधारण बल-बूते की बात नहीं है। जो भी इसके विरोध में जाकर खिलाफ की आवाज बुलंद करने की कोशिश करता है उसे एक बहुत बड़े आतंक और हादसे का दृश्य दिखाकर चुप करा दिया जाता है। न्यूनतम मजदूरी की मांग करनेवाले मजूरों की बस्तियों को एक सांस में जलाकर राख कर दिया जाता है। उसके बीबी-बच्चे जलकर मांस के लोथड़े हो जाते हैं जिससे सिर्फ मुर्दे की सी चिरायंध गंध आती है। कवि हरेकृष्ण झा ने इसी आतंक और खौफ के दृश्य को अपने शब्दों के माध्यम से व्यक्त करने की कोशिश की है- ‘निस्तब्ध रात में/एक राकस/चिकना चुपड़ा खाकर/बाहर आता है अपनी हवेली से/तोशक पर मालिश करवाकर/और दियासलाई की एक तीली/फूस की उजड़ी झोपड़ी में/रगड़ देता है।’
इसके विरोध में जो भी हाथ उठते हैं उनको तोड़ दिया जाता है क्योंकि उसे ये कबूल नहीं है उसके जूठन पर पलनेवाले लोग विरोध में हाथ खड़े करें। उसे लगता है, इनकी औकात ही क्या है जो आन्दोलन का हौआ खड़ा कर उनको डराना चाहते हैं। बस्तियां जलाने के बाद भी चिकना-चुपड़ा खानेवाले राकसों को संतोष नहीं होता तो वे नाटक के दूसरे अंक की तरफ बढ़ते हैं और दे जाते हैं अपने हादसे और आतंक का दूसरा नासूर। ऐसे में कहना होगा कि न्यूनतम मजदूरी की मांग न सिर्फ चार किलो मजदूरी की मांग है बल्कि यह मांग आजादी के मिशन और स्वप्न के साथ जुड़ी हुई है क्योंकि, ‘धाही भरी हवा ही /लोग अब सांस लेना/और छोड़ना नहीं चाहते/भाई मेरे।’
अगर समाज में बहुत दिनों तक किसी तरह का आंदोलन न हो तो शून्यता की स्थिति व्याप्त हो जाती है,एक मौन भरा सन्नाटा भवन की दीवारों पर चिपका रहता है। आंदोलन की सक्रियता तथा उनकी आंतरिक गति में एक खास तरह का शैथिल्य आ जाता है। दरअसल आंदोलन की जो ताकतें हैं वे आपस में विघटित हैं। उनमें न तो एका कायम हो सका है न कोई पॉलिटिकल पार्टी जो अबतक जनक्रांति का नारा देती रही है,लोगों को किसी मुद्दे पर संगठित कर सकी है। अपने देश में आज का किसान प्रेमचंद के जमाने का किसान है। वह अपना घर सुरक्षित देखकर संतोष कर सुख पा लेता है, आश्वस्त हो लेता है। किसानों-मजदूरों की इस एकांतिक प्रवृत्ति को कवि ने लक्ष्य करके लिखा है; ‘अपने घरों के खम्भों और छप्परों/को साबुत देख/आंगन के मुहघर के पास जाकर/दूर उठती लपटों को देखते/अपना मन मना लेते हैं/कि कोई लुकाठी उड़कर/इस ओर नहीं आयेगी/हमारी अपनी सल्तनत कायम ही रहेगी।’ वर्तमान स्थिति पर गौर करने के बाद प्रेमचंद की पंक्ति कि ‘किसान स्वभाव से स्वार्थी होते हैं’ की याद ताजा हो आती है।
दमन और शोषण की अंतहीन प्रक्रिया के बीच से जन्म लेता है तेज गति और धारवाला जनांदोलन। जुल्म और शोषण के हिसाब से ही आंदोलन की गुणात्मक शक्ति तय होती है। शोषक-शासक वर्ग के लोग जनता पर दमन और अत्याचार ढाकर समझते हैं कि उन्होंने एक बड़े आंदोलन के बीज को ही समाप्त कर दिया लेकिन शायद ऐसा सोचते हुए वे भूल कर रहे हैं क्योंकि -‘जिस राख को मरघट की राख/बूझते हैं राकस लोग/वह लोगों की आत्मा के ढिमकों के चारों ओर/जमा होकर/एक एक कोंपड़ हो/सख्त बांस बना रही है।’ ठीक-ठीक कहें तो जमाने ने एकबार पलटा खाया है और शायद बड़े जोर का पलटा खाया है। किसान-मजूर भी अब आजादी और मुक्ति के वातावरण में जीने की अभिलाषा पाले चलते हैं। ये लोग भी अब हरसिंगार और मौलसिरी के फूलों को दोमती अमारती हवा की सांस लेना और छोड़ना चाहते हैं। धमनभट्ठी की हवा में घूंटकर बहत जी लिया। खासतौर से समाज में जब ऐसी स्थिति पैदा हो गई हो तो जनसंघर्ष से जुड़े कवि के लिए यह कतई मुनासिब नहीं होगा कि वह अपने को आंदोलन की मुख्यधारा से काटकर रखे। आंदोलन के साथ उनका कई एक स्तरों पर जुड़ाव होगा। कवि की आंतरिक सक्रियता आंदोलन में शरीक होने के लिए बेचैन करेगी। हरेकृष्ण झा ठीक इसी तरह किसानों-मजूरों की मुक्ति की लड़ाई में अपने को लगानेवाले कवि हैं। कहना होगा कि एक लंबे समय तक कवि ने आंदोलन की दशा-दिशा भी निर्धारित-प्रभावित की है।
फिलहाल किसानों का जो सामंत विरोधी आंदोलन शुरू है उसको कुचलने-दबाने के लिए सामंतों एवं पुलिसबलों की साझोदारी कायम है। इसके अतिरिक्त सामंतों ने किसानों से निबटने के लिए ग्रामीण स्तर पर भूमिपतियों की एक बड़ी फौज खड़ी कर रखी है। अगर बिहार के वर्तमान किसान आंदोलन को गौर से देखा जाये तो स्थिति की तस्वीर कुछ इसी रूप में सामने आती है। कवि इन आपसी गंठजोड़ों को स्पष्टता के साथ देख रहा है-‘और मैं बढ़ता चलूं प्रचंड द्रुतता से/बखारों की लम्बी कतारों की ओर/तोंदों के पीछे छिपे/भालों और बन्दूकों के कतारों की ओर।’
कवि के अंदर एक खास तरह का सपना है-भूमैया, किश्टा गौड़ और भगत सिंह का सपना। इन सपनों को साकार करना चाहता है वह। कवि की धारणा है कि इन सपनों के जयंत अभियान पर निकलने का वक्त आ गया है क्योंकि वातावरण ने मौन भरे सन्नाटे को तोड़ा है। इसलिए भी कि ‘अब तो/एक नन्हा सा बच्चा भी/डंडा लेकर खड़ा हो जाता है।’
9 सितंबर, 1991 को आकाशवाणी, पटना के ‘शतदल’ कार्यक्रम में प्रसारित।

2 comments:

  1. Bahut achha aur gyanvardhak aalekh hai!

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  2. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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