हिन्दी साहित्य में रचना और रचनाकार को जुदा-जुदा
देखने की अविवेकी प्रवृत्ति है। लेकिन सवाल है कि क्या सिर्फ रचना के आधार
पर, रचनाकार के परिवेश, उसके जीवन के उतार-चढ़ाव को जाने बगैर रचना के
‘अव्यक्त’ (गैप) को समझा जा सकता है ? यहां मैं गालिब के संदर्भ में पेश की
गई विश्वनाथ त्रिपाठी की उक्ति का सहारा लेना चाहूंगा। वे कहते हैं, ‘जो
लोग रचना और रचनाकार के जीवन की अंतःसूत्रता को नकारते हैं उन्हें गालिब की
कविता और उनके पत्रों को ध्यान से पढ़ना चाहिए। अंतःसूत्रता स्वीकार
करनेवालों को तो और ज्यादा।’1
वेदाध्ययन के संदर्भ में कहा जाता है कि
ऋषि, देवता एवं छन्द को जाने बिना मंत्रार्थ खुलते नहीं हैं। महर्षि
कात्यायन प्रणीत सर्वानुक्रमणी 2 तथा महर्षि शौनक कृत वृहद्देवता 3 में
स्पष्ट लिखा है कि ऋषि, देवता एवं छन्द समझे बिना वेदार्थ का प्रयास
करनेवाले का श्रम निरर्थक जाता है। यहां ऋषि का अर्थ है-कहनेवाले (यस्य
वाक्यं स ऋषिः) का व्यक्तित्व। देवता का भाव है-प्रकृति की किस शक्तिधारा
को लक्ष्य करके बात कही गयी है (या तेनोच्यते सा देवता)। छन्द का अर्थ है
कि इसमें काव्यात्मकता किस शैली की है (यद् अक्षरपरिमाणं तच्छन्दः)।4
भर्तृहरि ने लिखा है कि शब्द और अर्थ का संबंध वक्ता की इच्छा के अधीन रहता
है। प्रयोक्ता जिस शब्द को जिस अर्थ में प्रयोग करता है वही अर्थ उसे मिल
जाता है। अतः शब्द और अर्थ का संबंध वास्तविक नहीं है, काल्पनिक और असत्य
है।5 कबीर के संबंध में कहा ही जाता है कि भाषा को वह अर्थ देना पड़ता था जो
कबीर उससे निकलवाना चाहते थे। ब्लूमफील्ड वक्ता की मनःस्थिति के संदर्भ
में ही अर्थ की चर्चा और परिभाषा करते हैं।6
यह अभिव्यक्ति किसकी है,
यह बात बहुत महत्त्व रखती है। ‘मेरे जैसा पापी कोई नहीं’ (मत्समः पातकी
नास्ति) यह वाक्य किसी अपराधी या कुंठित व्यक्ति का है तो बात और है,
किन्तु जब जगद्गुरु आचार्य शंकर यह बात बोलते हैं, तो अध्येता एकदम चैंकता
है। आचार्य के स्तर को वह जानता है, इसलिए वाक्य का अर्थ हीन प्रसंग में
नहीं, उच्च आध्यात्मिक/दार्शनिक संदर्भ में निकालता है। यदि वक्ता का स्तर
पता न हो, तो गूढ़ उक्तियों के बारे में मतिभ्रम स्वाभाविक है। भावों की
गहराई तक पहुंचने में छन्द भी सहायक होते हैं। ‘चींटी पाँवे हाथी बाँध्यो’
उक्ति सामान्य रूप से उपहास जैसी लगती है, किन्तु यह कबीर की उलटबासी है,
यह सोचते ही बुद्धि के कपाट स्वतः खुल जाते हैं।7
अर्थ-परिवर्तन में
जाति, धर्म, लिंग आदि की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इसे बौद्ध और
निम्नकुलीय मौर्य शासक अशोक के प्रति ब्राह्मणों के ‘विद्वेष’ से
‘देवानांप्रिय’ शब्द में आये अर्थ-परिवर्तन से भी समझा जा सकता है। वी. ए.
स्मिथ के मतानुसार ‘देवानांप्रिय’ आदरसूचक पद है और इसी अर्थ में राधाकुमुद
मुखर्जी ने भी इसका प्रयोग किया है। किंतु ‘देवानां-प्रिय’ शब्द
(देव-प्रिय नहीं) पाणिनि के एक सूत्र8 के अनुसार अनादर का सूचक है।
कात्यायन इसे अपवाद में रखता है। पतंजलि और यहां तक कि काशिका भी इसे अपवाद
मानता है। पर इन सब के उत्तरकालीन वैयाकरण भट्टोजीदिक्षित इसे अपवाद में
नहीं रखते। वे इसका अनादरवाची अर्थ ‘मूर्ख’ ही करते हैं। उनके मत से
‘देवानांप्रिय’ ब्रह्मज्ञान से रहित उस व्यक्ति को कहते हैं जो यज्ञ और
पूजा से भगवान को प्रसन्न करने का प्रयत्न करता है, जैसे गाय दूध देकर
मालिक को। इस प्रकार, एक संज्ञा जो नंदों, मौर्यों और शुंगों के युग में
आदरवाची थी, मौर्य राजा अशोक के प्रति ब्राह्मणों के दुराग्रह के कारण
अनादरसूचक बन गई।9 बौद्ध शब्द से विकसित बुद्धू शब्द के अर्थ के बारे में
यही बात कही जा सकती है।10
असुर शब्द का संस्कृत में देवता से
परिवर्तित होकर राक्षस अर्थ प्रयोक्ताओं की विशेष मानसिक स्थिति का परिणाम
है। ऋग्वेद की आरंभिक ऋचाओं में असुर शब्द देवतावाचक है। किन्तु संभवतः
पारसियों से संबंध अच्छे न रह जाने के कारण भारतीय आर्यों ने असुर शब्द को,
जो पारसियों के प्रधान देवता (अहुरमज्दा) का वाचक था, राक्षस के अर्थ में
प्रचलित कर लिया।11 जैन लेखक विमल सूरी की प्राकृत रामायण ‘पउमाचरियम’ की
मानें तो ब्राह्मण ग्रंथों का यह राक्षस दानव नहीं है। यहां राक्षस शब्द
‘रक्ष’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है रक्षा करना।12
इस तरह, परिवर्तन
न सिर्फ प्रकृति का नियम है अपितु भाषा में भी काल-सापेक्ष परिवर्तन देखा
गया है। फलस्वरूप जब हम गुजरे जमाने की रचनाओं को पढ़ते हैं तो उनके शब्द कई
बार हमें भ्रमित और चकित करते हैं क्योंकि आज उनके अर्थ वही नहीं होते जो
रचना के लिखे जाने के समय थे। कभी-कभी शब्दार्थ इतनी तेजी से बदलते हैं कि
महज दो पीढ़ी का अंतर भी इतिहास का विशाल काल-खंड प्रतीत होता है।13
निरुक्तकार यास्क ने भी वेद के लगभग 400 ऐसे शब्द गिनाये, जिनका अर्थ
उन्हें नहीं पता था।14 जब शब्दार्थ का यह हाल है, तो भावार्थ तो और भी गूढ़
होते हैं।
संस्कृत उपेक्षितव्याः का मूल अर्थ है, ‘समीप जाकर देखना
चाहिए’। बाद में इसका अर्थ तिरस्कार हो गया। परन्तु ‘निरुक्त’ में यह
पुराने अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।15 आंखों के निकट रहने से अनादर होता ही
है, संभवतः इस तरह यह अर्थ आया।16 अतिथि का अर्थ था जो घरों में जाता है
अथवा जो निश्चित तिथियों में दूसरों के परिवार में या घरों में जाता है।17
आज हिन्दी ने उसका बिल्कुल बदला हुआ अर्थ ग्रहण किया है।
संस्कृत
भ्रातृव्य शब्द का मूल अर्थ था भ्राता का पुत्र। आगे चलकर वह शत्रु मात्र
के लिए प्रयुक्त होने लगा।18 कभी पड़ोसी राजा को अरि कहा जाता था।19 संस्कृत
धान्य शब्द का मूल अर्थ अनाज है। हिन्दी में धनधान्य आदि शब्दों में धान्य
का अन्न अर्थ अब भी निहित है। कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में भी धान्य शब्द
विविध रूपों में मिलता है।20 लेकिन संस्कृत में ही कालांतर में धान्य शब्द
चावल संबंधी अर्थ में सीमित हो गया। कीथ और मैकडानल के अनुसार ऋग्वेद में
यव शब्द केवल जौ का वाचक नहीं बल्कि अन्न मात्र का वाचक है21 जैसे ‘अवासृतज
सर्तवे सप्त सिन्धून्’22 (सात नदियों को बहने के लिए छोड़ा) लेकिन कालांतर
में यह नदी विशेष के अर्थ में सीमित हो गया। आरंभ में गमनशीलता के कारण
संस्कृत में पृथ्वी को गौ कहा गया होगा। इसी कारण गाय और वाणी को भी गौ
संज्ञा प्राप्त हुई। इससे निस्संदेह अनिश्चितता का माहौल बना होगा।
फलस्वरूप संस्कृत भाषाभाषियों ने इस शब्द को गाय के अर्थ में रूढ़ कर
दिया।23
संस्कृत में साहस शब्द का प्रयोग अधिकांशतः लूट, हत्या,
व्यभिचार आदि के अर्थ में हुआ है। बृहस्पतिस्मृति साहस के चार प्रकारों का
वर्णन करती है-‘मनुष्यमारणं चौर्यं परदाराभिमर्शनम्। पारुष्यमुभयं चेति
साहसं स्याच्चतुर्विधिम्।।’ धर्मग्रंथों ने साहस को दण्डविधि का महान अपराध
बताया है। हिन्दी में साहस शब्द संपूर्णतः ‘हिम्मत’ का वाचक हो गया है।24
पुंगव शब्द का अर्थ था बैल अब वह श्रेष्ठता का वाचक है। नरपुंगव में
श्रेष्ठतावाचक ही है।25 घृणा शब्द का प्रयोग प्रायः दया अथवा अनुकम्पा के
अर्थ में हुआ है। धीरे-धीरे संस्कृत में ही वह नफरत का वाचक बन गया। हिन्दी
में भी उसका प्रयोग इसी अर्थ में होता है।26
अंग्रेजी के लेडी शब्द
का मूल अर्थ था रोटी बनानेवाली। चूँकि रोटी बनाने का काम मुख्यतः स्त्रियां
ही करती थीं, इसलिए लेडी शब्द स्त्रीमात्र के लिए प्रयुक्त होने लगा।27
स्कूल शब्द ग्रीक schole से बना है जिसका अर्थ होता है अवकाश। आज उसका अर्थ
विद्यालय है।28 शेक्सपीयर के मैकबेथ में प्रयुक्त ‘A modern ecstasy’ में
modern का अर्थ आधुनिक की बजाय साधारण है और ecstasy एक प्रकार का
मतिभ्रम।29 Knight का मूल अर्थ था नौकर और Nice का मूल अर्थ मूर्ख था।30
Prevent, Magistrate, Nice, Silly, tabby, Democracy, Clerk जैसे अनगिनत
शब्द हैं जिनके अर्थ पूरी तरह से बदल चुके हैं।31
स्वतंत्रता आंदोलन के
दिनों में भारतीय विश्वविद्यालय के कुछ छात्रावासों में इंगलैंड शब्द का
प्रयोग शौचालय के अर्थ में होता रहा है।32 1857-58 में मंगल पाँडे के नाम
पर पाँडे शब्द का अर्थ क्रांतिकारी सिपाही हो गया। चाल्र्स बाॅल और लाॅर्ड
राॅबर्ट्स दोनों लिखते हैं कि मंगल पाँडे की फाँसी के दिन से 1857-58 के
समस्त क्रांतिकारी सिपाहियों को मंगल पाँडे के नाम से पुकारा जाने लगा।33
शब्द के अर्थ बदलते हैं क्योंकि हमारा ज्ञान बदलता है। शेक्सपीयर की
रचनाओं में धरती, पानी, हवा और आग तत्त्व हैं,34 ठीक जैसे तुलसीदास के यहां
क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर हैं। इसलिए रचना के साथ-साथ शब्दों को भी
एक खास ऐतिहासिक संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है। इस जरूरत को ध्यान में
रखकर ही अंग्रेजी के पुराने लेखकों की कृतियों को व्याख्यात्मक टिप्पणियों
के साथ प्रकाशित किया जाता है। हिन्दीवाले ऐसा महसूस करेंगे, संदेह है।
संदर्भ एवं टिप्पणियां:
1. विश्वनाथ त्रिपाठी, आजकल, दिसंबर 1997।
2. कात्यायन, सर्वानुक्रमणी 1.1।
3. वृहद्देवता 8.132।
4. ऋग्वेद सर्वानुक्रमणी 2.6; भगवती देवी शर्मा, ‘भूमिका’, ऋग्वेद संहिता
(संपादक: पं. श्रीराम शर्मा आचार्य), भाग 1, प्रकाशक: युग निर्माण योजना
विस्तार ट्रस्ट, मथुरा, सन् 2015, पृष्ठ 9।
5. प्रयोक्तैवाभिसन्धत्ते साध्यसाधनरूपताम्। अर्थस्य वाभिसम्बन्ध कल्पनां प्रसमीहते।। वाक्यपदीय, 2, 435।
6. लैंग्वेज, पृष्ठ 139; जयकुमार ‘जलज’, ऐतिहासिक भाषाविज्ञान: सिद्धांत
और व्यवहार, हिन्दी समिति, लखनऊ, प्रथम संस्करण: 1972, पृष्ठ 143।
7.
भगवती देवी शर्मा, ‘भूमिका’, ऋग्वेद संहिता (संपादक: पं. श्रीराम शर्मा
आचार्य), भाग 1, प्रकाशक: युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट, मथुरा, सन्
2015, पृष्ठ 9।
8. पतंजलि आॅन पाणिनीज ग्रामर, 6. 3. 21।
9.
राधाकुमुद मुखर्जी, अशोक, मोतीलाल बनारसीदास, पटना, अंग्रेजी के तृतीय
संस्करण 1962 का हिंदी रूपांतर, प्रथम संस्करण, 1974, पृष्ठ 90।
10. जयकुमार जलज, पूर्वोद्धृत, 165।
11. वही, पृष्ठ 160।
12. रोमिला थापर, ‘प्राचीन भारत में सांस्कृतिक आदान-प्रदान’, सांचा,
फरवरी, 1988; रोमिला थापर, ‘रामायण: वस्तु और रूपान्तर’, सांचा, मार्च,
1988।
13. मार्जोरी बोल्टन, ‘वर्ड्स दैट हैव चेंज्ड’, आस्पेक्ट्स आॅफ
इंगलिश प्रोज (संपादक: के.एम. तिवारी/आर.सी.पी. सिन्हा), विकास पब्लिशिंग
हाउस, 1988, पुनर्मुद्रण: 2000, पृष्ठ 110।
14. भगवती देवी शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 10।
15. उमा शंकर शर्मा ऋषि, हिन्दी निरुक्त, पृष्ठ 6।
16. सत्यव्रत, ‘सेमैंटिक्स इन संस्कृत’, पूना ओरिएण्टलिस्ट, जनवरी, 1959; उमा शंकर शर्मा ऋषि, पूर्वोद्धृत।
17. उमा शंकर शर्मा ऋषि, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 105।
18. जयकुमार जलज, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 163।
19. हजारी प्रसाद द्विवेदी का चारुचन्द्र लेख देखें; और देखें, जयकुमार जलज, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 163।
20. व्यवहार कोश, पृष्ठ 2-3।
21. वैदिक इंडेक्स (यव)।
22. ऋग्वेद 2.12.12।
23. जयकुमार जलज, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 158।
24. वही, पृष्ठ 165।
25. वही, पृष्ठ 166।
26. वही, पृष्ठ 167।
27. वही, पृष्ठ 160।
28. द ट्री आॅफ लैंग्वेज, पृष्ठ 185, 187।
29. मार्जोरी बोल्टन, ‘वर्ड्स दैट हैव चेंज्ड’, आस्पेक्ट्स आॅफ इंगलिश
प्रोज (संपादक: के.एम. तिवारी/आर.सी.पी. सिन्हा), विकास पब्लिशिंग हाउस,
1988, पुनर्मुद्रण: 2000, पृष्ठ 110।
30. ए डिक्शनरी आॅफ सेलेक्टेड सिनोनिम्स इन द प्रिंसिपल इण्डो-यूरोपीयन लैंग्वेजेज, प्रस्तावना, पृष्ठ 8।
31. मार्जोरी बोल्टन, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 110।
32. जयकुमार जलज, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 160।
33. सुन्दरलाल, भारत में अंग्रेजी राज, द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 831; जयकुमार जलज,
पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 156।
34. मार्जोरी बोल्टन, पूर्वोद्धृत।