Sunday, March 14, 2010

दलित आंदोलन पर पहली किताब

भारतीय राजनीति की ही तरह लेखन में भी एक नई परिघटना की शुरुआत देखी जा सकती है। लेखन अब नितांत निजी न रहकर ‘टीम वर्क’ हो चला है। कभी मार्क्स और एंगेल्स के नाम पुस्तकों पर एक साथ छपे होते थे। गिरीश मिश्र और ब्रजकिशोर पांडेय की जोड़ी एक अरसे से इस ‘साझा कार्यक्रम’ को अंजाम दे रही है। इधर हाल में पीपुल्स हिस्ट्री शृंखला के तहत प्रकाशित पुस्तकों में पाठकों ने विजय कुमार ठाकुर के साथ इरफान हबीब का नाम देखा। साझा कार्यक्रम की एक और कृति है ‘बिहार में दलित आंदोलन’ (1912-2000)। इसके लेखक हैं प्रसन्न कुमार चौधरी एवं श्रीकांत। इससे पहले उनकी पुस्तक ‘बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम’ अपने ‘जर्नलिस्टिक एप्रोच’ के बावजूद खासी चर्चा में रही। फिलहाल यह कहना अत्यंत मुश्किल है कि यह प्रवृत्ति ‘लेखन के जनतंत्र’ से पैदा हुई है अथवा किसी ‘राजनीतिक गंठजोड़’ से।
‘बिहार में दलित आंदोलन’ पुस्तक बीसवीं सदी में बिहार के दलितों की स्थिति और उनके आंदोलन का एक दस्तावेज है। देश के अन्य हिस्सों, खासकर दक्षिण और पश्चिमी प्रदेशों में चले दलित आंदोलन और उनकी स्थिति पर तो काफी सामग्री उपलब्ध है, लेकिन बिहार के दलितों के बारे में सामग्रिक अध्ययन अब तक नहीं किया गया। यह किताब इसी अभाव को पूरा करने का एक प्रयास है। इस अध्ययन में लेखक को प्राथमिक स्रोतों पर ही निर्भर रहना पड़ा है किंतु ये स्रोत भी ज्यादातर ‘नकारात्मक’ ही हैं-पुलिस तथा प्रशासन की रिपोर्टों के रूप में। यह अध्ययन एक ‘दस्तावेज’ इसलिए बन पड़ा है कि इसमें लगभग सभी उपलब्ध सामग्रियों को क्रमवार संकलित करने का प्रयास किया गया है।
प्रस्तुत अध्ययन को दस अध्यायों में सफलतापूर्वक समेटने का प्रयास किया गया है। प्रथम अध्याय ‘कमिया’, ‘क्रिमिनल’ और ‘काला अक्षर भैंस बराबर’ है। इसमें बीसवीं सदी के आरंभ में बिहार के अछूतों की स्थिति प्रस्तुत की गई है। लेखक की राय है कि ‘भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना के साथ जहां एक ओर औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत हुई, वहीं दूसरी ओर भारतीय समाज की कमजोरियों का आकलन-विश्लेषण तथा उनके निवारण की कोशिशें भी तेज हुईं। और आगे, ‘इसी आत्म-मंथन के बीच कई धर्म-सुधार तथा समाज-सुधार आंदोलनों का जन्म हुआ।’ उपनिवेशवाद के खिलाफ यह संघर्ष न सिर्फ अंग्रेजी शासन के खिलाफ स्वतंत्रता के लिए राजनीतिक संघर्ष भर था, वरन वह भारतीय समाज की पुनर्रचना का भी आंदोलन बन गया। हमारा राजनीतिक संघर्ष भारतीय समाज की पुनर्रचना का आंदोलन किस हद तक था इसे स्पष्ट करने के लिए लेखक द्वारा ही उद्धृत पंक्तियों का सहारा लें तो बेहतर होगा। ‘राजनीतिक आंदोलन के कई उग्र योद्धा सामाजिक प्रश्नों पर काफी पुरातनपंथी रुख रखते थे, और सामाजिक आंदोलन के कई गणमान्य नेता राजनीतिक आंदोलन के प्रति अधिक आग्रही नहीं थे। 1885 में कांग्रेस के पूना अधिवेशन में सामाजिक सुधार-विरोधी गुट विद्रोह कर बैठा और उसने धमकी दी कि यदि कांग्रेस ने सोशल कांफ्रेंस को अपने पंडाल का उपयोग करने की अनुमति दी तो पंडाल फूंक दिया जाएगा।’ यह भी सच है कि भारत में राष्ट्रवाद के उद्भव एवं विकास के साथ ही जातीय संगठनों एवं साप्रदायिक दंगों का इतिहास जुड़ा है। 1885 में कांग्रेस की स्थापना होती है और दलित वर्गों का सबसे पुराना सामाजिक राजनीतिक संगठन 1892 में ‘द्रविड़ जनसभा’ नाम से अस्तित्व में आता है। पहला हिन्दू-मुस्लिम दंगा भी इसी के आसपास हुआ माना जाता है। इसकी तार्किक संगति बैठाने का पुस्तक में अभाव झलकता है।
दलित आंदोलन के उद्भव से संबंधित एक विचार साहित्य चिंतक डा. नामवर सिंह का भी है। वे लिखते हैं, ‘गनीमत है कि बीसवीं शताब्दी के भारतीय साहित्य में लेखकों का एक ऐसा समुदाय या वर्ग (संगठन नहीं) है जो अंग्रेजी शिक्षा से बहुत कुछ वंचित रह जाने के कारण इस नव-उपनिवेशवादी विचारधारा की गिरफ्त से बचा रह गया है। ...भारतीय भाषाओं में ‘दलित साहित्य’...उसमें बहुत कुछ ऐसा भी है जो प्राणवान और सार्थक है...साहित्य सृजन का अच्छा-खासा हिस्सा भारतीय समाज के उन लोगों की ओर से आया है जो हाशिए पर रहे हैं।’
बिहार में दलित आंदोलन का इतिहास लिखते हुए श्रीकांत ने दलित आंदोलन की वैचारिक-दार्शनिक पृष्ठभूमि तैयार करने की कोशिश नहीं की है। यह आंदोलन बिहार में वर्षों से चल रहे ‘एग्रेरियन मुवमेंट’ से दार्शनिक स्तर पर कैसे भिन्न है, इसकी जांच अपेक्षित थी। लेकिन पाठकों को हमेशा इस बात का ध्यान रखना होगा कि बिहार में दलित आंदोलन पर यह पहली पुस्तक है, पहला पाठ है। प्रकाशन: संप्रति पथ, नई दिल्ली, जनवरी-फरवरी, 2006, पृष्ठ 75-76।

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