‘गंगा-तट’ की चर्चा धूमिल भी न होने पाई थी कि ज्ञानेन्द्र पति का दूसरा संग्रह ‘संशयात्मा’ पाठकों के बीच आ धमका। ज्ञानेन्द्र पति की कविताओं से गुजरना किसी अत्यंत ही समृद्ध संग्रहालय से गुजरना है जिसमें संसार की लगभग तमाम चीजों के बारे में ब्यौरे भरे होते हैं। साहित्य के सुधी पाठकों के लिए ये ब्यौरे अनावश्यक और अरोचक हो सकते हैं, किंतु मुझे खासे महत्वपूर्ण लगते हैं। हमारे आसपास की बहुत-सी चीजें लुप्त हो चुकी हैं और बहुत-सी लुप्तप्राय हैं। अगर कोई कवि उसकी फेहरिस्त तैयार कर रहा हो तो यह काम महत्वपूर्ण है। कोई भी पढ़ा-लिखा आदमी संग्रहालय के अवदान को कम करके नहीं देख सकता। कवि का यह कर्म उन रचनाकारों के लिए भी ‘काम’ का है जो ‘यादों से रचा गांव’ पढ़कर गांवों की दुरवस्था पर विलाप करते हैं। लेकिन सवाल है कि एक रचनाकार क्या महज संकलनकर्ता है ?
प्रेमचंद ने कभी कहा था कि साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। समकालीन हिंदी कवियों को (अपवाद यहां भी हैं), और विशेष तौर से ज्ञानेन्द्र पति को पढ़ते हुए प्रेमचंद पर अविश्वास करने को जी चाहता है। प्रायः प्रत्येक समाज एक संक्रमणशील समाज होता है जिसमें पुरानी चीजें टूटती हैं और नई चीजें शक्ल अख्तियार करती हैं। एक रचनाकार से अपेक्षा की जाती है कि वह सामाजिक परिवर्तन की दशा-दिशा की सही पहचान रखे।
मुक्तिबोध ने जैसाकि लिखा है, किताब की समीक्षा करना आग से खेलना है। ज्ञानेन्द्र पति की कविताओं पर लिखते हुए किसी को भी इस खतरे का सामना करना पड़ सकता है। वजह यह है कि उनकी कविता भाषा और शिल्प में, अथवा कह लीजिए कि अपनी बुनावट में जितनी ही सुघड़, बेजोड़ और उन्नत है, विचार की दृष्टि से उतनी ही लचर, कमजोर और कई दफा प्रतिगामी भी हैं।
जहां तक भाषा की बात है, कविता में तत्सम शब्दों का बाहुल्य है। यद्यपि ठेठ देसी शब्दों की भी कमी नहीं खलती। कहीं-कहीं तो ज्ञानेन्द्र पति विल्कुल शब्दान्वेषी हो उठते हैं और नये शब्द तक गढ़ डालते हैं-तत्सम और देसी शब्दों का अपूर्व गंठजोड़! इनकी शब्द और बिम्ब-योजना तक पर इनके कुलीन मन की छाया आ घिरती है-‘दस कोस दूर शहर से आनेवाला सर्कस का प्रकाश-बुलौआ/तो कब का मर चुका है/कि जैसे गिर गया हो गजदन्तों को गँवाकर कोई हाथी।’ ‘यहां गजदन्तों को गंवाकर कोई हाथी’ का जो बिम्ब है वह कवि के मिजाज को, उसके सामंती संस्कार को स्पष्टतः रेखांकित करता है। संग्रह में कवि इसी मनोजगत से बिम्ब ग्रहण करता है। शायद यही वह चीज है जो कवि को दबे-कुचले लोगों के साथ जुड़ने में बाधा पैदा करती है। ‘सभ्यता के इस तरफ सूअरों के साथ खेलने के लिए छोड़ दिए गए बच्चे/ जिनके तन में केवल आंखें चमकती हैं/मानव-शिशु की आंखों की तरह/अहो! कि जिनसे/मिलकर झुक जाती हैं आंखें।’ इस असंवेदनशील समय में कवि को इसका बोध तो है!
स्ंाग्रह का एक बड़ा हिस्सा ‘शोकगीत’ और ‘विदागीत’ से भरा है। कई कविताओं के शीर्षक भी ठीक-ठीक शोकगीत और विदागीत से बनते हैं। ‘ओ ओ आ-आ का विदागीत’, ‘मूर्धन्य ष के लिए एक विदा-गीत’ तथा ‘बचे हुओं के लिए शोकगीत’ आदि कविताएं इसी श्रेणी की हैं। जो कविताएं इनसे बच जाती हैं उनमें स्मृति अपनी पैठ बना लेती है। जैसे ‘एक पट्ट की स्मृति में’ और फिर ‘कुम्हरार: एक सभ्यता के खंडहर में भटकते हुए।’ कवि का मन सभ्यता के खंडहरों में ही रमता है। एक कविता है ‘गांव का घर’। यह घर किसी सभ्यता के खंडहर से कम नहीं है। कविता में जिस घर का वर्णन कवि करता है, वह निस्संदेह उसका अपना पुस्तैनी घर है। ‘वह सीमा/जिसके भीतर आने से पहले खांसकर आना पड़ता था बुजुर्गों को/खड़ाऊँ खटकानी पड़ती थी खबरदार की/और प्रायः तो उसके उधर ही रुकना पड़ता था/एक अदृश्य पर्दे के पार से पुकारना पड़ता था।’ आलोक धन्वा इसीलिए बड़ा कवि है कि उसके पास समय का विवेक है। ‘वे घर की जंजीरों’ को भी देख पाते हैं। ज्ञानेन्द्र पति को अगर ये जंजीरें दिखी होतीं या उसका ‘अहसास’ होता तो शायद गांव के उस घर के लिए इस कदर का प्यार न उमड़ता! ज्ञानेन्द्र पति को शायद यह मालूम नहीं है कि कविता मरसिया नहीं होती।
pooree pratibaddhataa ke saath likhate hai.badhaai
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