Sunday, July 18, 2010

लिया बहुत कम कम दिया बहुत ज्यादा ज्यादा


लेखन एक गंभीर कर्म है और निरंतर मनुष्य के मस्तिष्क में संपादित होते रहता है। मस्तिष्क में ही कांट-छांट चलती रहती है। दिमाग में चलनेवाले लेखन को जब आप कागज पर उतार रहे होते हैं तो वह संपादित रूप में ही पाता है। लिखे जाने के बाद भी कई बार आप उसमें जोड़-घटाव करते हैं, यानी एक दूसरे स्तर का संपादन शुरू होता है। संपादन की यह प्रक्रिया निर्मम होनी चाहिए। इसके बाद जो हिस्सा बचेगा, शायद मूल्यवान और अर्थवान हो। इतना ही नहीं, आपका पाठ भी आलोचनात्मक होना चाहिए। यानी कुछ भी अगर आप पढ़ते हैं तो उसकी आलोचनात्मक समझ विकसित होती रहनी चाहिए। मेरे मित्र श्री ओमप्रकाश पांडेय जी, लगता है, इन चीजों से वंचित रह गये हैं। नतीजतन, पांच-छह किताबों के प्रकाशन के बाद भी वे अपनी रचनाओं को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं हो सके हैं। कहिए कि लेखक का विश्वासअर्जितकर पा सकने में असमर्थ रहे हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकों मेंप्रेमांजलि’, ‘आत्महत्या से पहले’, ‘ रिबर्थ ऑफ महात्मा’, ‘इस्टर ईयर मेलॉडिजएवंगवर्नेंस एंड किंगशिप’ (सद्यःप्रकाशित) आदि शुमार हैं। लगता है, उन्होंने तो पढ़ाई तरीके से (आलोचनात्मक) की और अपनी चीजों को संपादित करना ही जाना। समवयस्क कहे जा सकनेवाले मित्र की इतनी सारी किताबें देखकर मन ही मन व्यथा से भरने लगता हूं। कारण कि मेरी अब तक एक भी किताब प्रकाशित नहीं है। ऐसे ही विरल पुरुषों को देखकर मुक्तिबोध को भी अपराध-बोध हुआ होगा-लिया बहुत ज्यादा-ज्यादा/दिया बहुत कम-कम/जीवन क्या जिया। और मेरे मित्र हैं कि एक पृष्ठ पढ़कर चार सौ पृष्ठ लिख डालते हैं। उनको कौन कहे कि मित्र, ‘महाभाष्यका समय नहीं है यह। समय का मूल-मंत्र हैकम लिखना, ज्यादा समझना
कहना होगा कि यह पुस्तक राजसत्ता के बारे में है। पांडेय जी कहते हैं किअगर शासन/राज्य/राजा हो तो लोग निरंकुश और स्वेच्छाचारी हो जाएंगे। चारों ओर असुरक्षा और अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।पांडेय जी के इस कथन से दो तथ्य सामने आते हैं-पहला कि राज्य एक शाश्वत संस्था है, और दूसरा कि इसका जन्म लोगों को सुरक्षा प्रदान करने एवं अराजकता से बचाने के लिए हुआ। पहले के जवाब में मार्क्स और एंगेल्स दोनों ही विद्वान काफी कुछ कह गए हैं। इन दोनों से पहले मॉर्गन साहब काफी-कुछ कह गये थे, जिसे, संभव हो तो पांडेय जी पढ़ लें। वैसेमौलिक लेखनकरनेवाले लोग दूसरों का लिखा कम ही पढ़ते हैं। के बराबर। पढ़ने के बाद लिखना मुश्किल हो जाता है शायद। आप जितना पढ़ेंगे, मुश्किल उसी हिसाब से बढ़ती जाएगी। इसलिएज्ञानीलोग पढ़ने का झंझट ही नहीं रखते।

इतिहासकार . एच. कार से संबंधित एक कहानी याद रही है। उन्हें शायद ग्रीक के इतिहास पर काम करना था। इसलिए जितनी भी उपलब्ध सामग्री थी उसे अपने पास ले आये और आश्वस्त हो लिये कि अब तो सारे तथ्य उनकी मुट्ठी में है। बेचारे अति प्रसन्न मुद्रा में थे कि बस अब किसी दिन उठेंगे और लिख डालेंगे। लेकिन ऐसा कोई दिन नहीं रहा था। बाद में मालूम हुआ कि जिन किताबों को अपनी मुट्ठी में कर प्रसन्न हो रहे थे उसी ने उनकी मुश्किल बढ़ा रखी है। तो यह है पढ़ने का संकट।

पांडेय जी ने अपने अध्ययन के लिए दो भिन्न काल के कवियों को लिया है। कालिदास भारतीय संस्कृति के उस काल के प्रतिनिधि कवि हैं जब सामंती समाज की विशेषताएं अपनी जड़ें जमा रही होती हैं जबकि शेक्सपीयर सामंती समाज के विध्वंस पर निर्मित हो रहे व्यावसायिक पूंजीवाद के प्रवक्ता हैं। इसलिए दोनों के मूल्यबोध में जो अंतर आता है उसकी व्याख्या प्रस्तुत करने में वे अक्षम साबित होते हैं। अलबत्ता साम्य सिद्ध करने में कोई परेशानी नहीं होती। कालिदासराजाकी बात करते हैं तो शेक्सपीयरकिंगकी। बल्कि पांडेय जी नेसिंह’, ‘किंग’ ‘राजा’, ‘ड्यूक’, ‘राजन’, ‘राजर्षि’, ‘युवराज’ ‘प्रिंसआदि को समानार्थी घोषित कर दिया। (गवर्नेंस एंड किंगशिप, पृष्ठ 9-10) इस प्रसंग में रामशरण शर्मा की यह बात ध्यान देने योग्य है-‘प्राचीन काल में राज्य का अध्ययन करनेवाले विद्वान हमेशा राजा का अंग्रेजी अनुवादकिंगकरके भ्रम फैलाते रहे हैं। राजा शब्द का मूलभूत अर्थ है दीप्तिमान (चमकनेवाला) व्यक्ति-स्पष्टतः ही अपने शारीरिक और मानसिक गुणों और उपलब्धियों के कारण निर्वाचित सरदार या मुखिया, जिसका व्यक्तित्व ओजस्वी या दीप्तिमान होता था।’ (भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 5) साथ यह भी ध्यातव्य है किऋग्वेद में आयेराजाशब्द का अर्थ शतपथ ब्राह्मण में प्रयुक्तराजाशब्द के अर्थ से भिन्न हो सकता है।’ (वही)

वैदिक ग्रंथों मेंराजन्शब्द का प्रयोग अनेक बार होने के कारण यह भ्रांति पैदा होती है कि वैदिक काल में राजा का पद ठीक उसी तरह से सुस्थापित था जिस तरह से बाद के दिनों में राजतंत्र सुप्रतिष्ठित हुआ। वास्तव में राजन् शब्द की उत्पत्ति जनजातीय है। संस्कृत में राजन् शब्द की व्युत्पत्ति सामान्यतः राज् (चमकना) अथवा रत्र्ज/रज् (लाल होना, रंगना, सज्जित करना, अनुरक्त करना) धातुओं से होती है। निघंटु 2: 14 के अनुसार इस धातु का अर्थ जाना भी होता है। (एम. मोनियर विलियम्स, संस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी, शब्द देखिए, रत्र्ज अथवा रज्) यदि हम राजन् शब्द की व्युत्पत्ति राज् (चमकना) धातु से मानें तो भी इसका तात्पर्य होगा अनेक व्यक्तियों में चमकनेवाला व्यक्ति जिससे राजा होने का उसका औचित्य सिद्ध हो। स्पष्ट है कि ऐसा व्यक्ति केवल अपने शारीरिक बल और सौष्ठव तथा सामरिक उपलब्धियों के कारण ही नहीं चमकता वरन् अपने बौद्धिक और भावात्मक गुणों के आधार पर भी चमकता है। इन गुणों के संयोग से ही लोग उसे जनजाति का नेता होना स्वीकार करते हैं।

चाहे हम राजन् शब्द की व्युत्पत्ति रज्/रत्र्ज से मानें अथवा राज् से, हमारी धारणा के अनुसार आरंभ में इस शब्द से जनजाति के नेता अथवा सरदार का बोध होता था कि राजा अथवा शक्तिशाली राजतंत्र का, जैसाकि सामान्यतः कहा जाता है। राजन् शब्द का अर्थ जनजातीय नेता होने की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि उसके लिएजनस्य गोपअथवागोपतिबतलाया गया है। (रामशरण शर्मा, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, पृष्ठ-393) दोनों ही शब्दों का अर्थ गोपालक से है। इस शब्द का राजन् के लिए प्रयोग संभवतः इस कारण होने लगा क्योंकि जाति अथवा जन की जान-माल की रक्षा करना उसका दायित्व था।

उत्तरवैदिक ग्रंथों में जो जनमानस दिखायी देता है उसमें एक ओर सरदार (राजा, राजन्य, क्षत्र, क्षत्रिय) और दूसरी ओर विश् या किसान बंधुजन के बीच भेद-बोध उभरकर आता है। (रामशरण शर्मा, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 14) इन दोनों के बीच के भेद को रेखांकित करने के लिए तरह-तरह की उपमाओं का प्रयोग किया गया है। प्रथम हरिण है, तो द्वितीय यव, प्रथम अश्व है तो द्वितीय अन्य जंतु; प्रथम सोम है तो द्वितीय अन्य वनस्पति; प्रथम दूध है, तो द्वितीय सूरा; प्रथम अभिमंत्रित इष्टक (ईंट) है, तो द्वितीय खाली जगह को भरने की ईंटें, प्रथम कलश है तो द्वितीय चम्मच या छोटी कलछी; प्रथम इन्द्र है तो द्वितीय मरुत; प्रथम महतृण है, तो द्वितीय लघुतृण, आदि-आदि। इन उपमाओं को पुरोहितों ने चलाया ताकि करदाता किसान राजन्यों/क्षत्रियों और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता सहज भाव से स्वीकार करते रहें। (वही, पृष्ठ 15) राजा सोम के संदर्भ में कहा गया है कि जब क्षत्रिय उच्च स्थान में रहता है, तब विश् निम्न स्थान में रहते हुए उनकी सेवा करता है।(शतपथ ब्राह्मण, 19.3.6; देखें सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट, पृष्ठ 228, पाद टिप्पणी-2) हवन की वेदी बनने के अनुष्ठान से भी प्रकट होता है कि क्षत्र और विश् के बीच कैसा संबंध था। वेदी ईंटों से उसी प्रकार बनायी जाती है जिस प्रकार क्षत्र (सरदार) विश् से प्रबल बनाया जाता है और विश् नीचे से उसका अनुयायी बनाया जाता है। (वही, 4. 3. 3-4) बार-बार कहा गया है कि स्तुत (अभिमंत्रित) ईंटें क्षत्र की द्योतक हैं और खाली जगह भरने की ईंटें विश् की द्योतक हैं। प्रथम भोक्ता है और द्वितीय भोग्य। वाजपेय (बालपन का यज्ञ) में वैश्य को ब्राह्मण और राजन्य दोनों का भोग्य कहा गया है। और यह भी कि भोक्ता को अगर पर्याप्त भोजन मिले तो राज्य समृद्ध रहता है। (वही, 1. 2-25)

ईंटें बिछाने की व्याख्या बार-बार की गई है। अभीष्ट सदा यह रहा है कि क्षत्र को अधिक शक्तिशाली बनायें और विश् को उसका अनुयायी। यह भी कहा गया है कि विश् (प्रजा) को पृथग्वादिनी (अलग-अलग बोलनेवाली) और नानाचेतस (अलग-अलग सोचनेवाली) बनाये रखा जाये, अर्थात् प्रजा में फूट डाले रहें ताकि वह नियमानुसार कर चुकाने और सदा आदेश-पालन में आनाकानी कर सके। सौत्रामणी नामक सोमयज्ञ में दूध से भरी प्यालियों को क्षत्र (शासक) कहा गया है और सुरा से भरी प्यालियों को विश् (शासित) यह भी बताया गया है कि उन प्यालियों को एक-दूसरे से जोड़े बिना अलग-अलग उठायें, क्योंकि ऐसा करने से क्षत्र से विश् और विश् से क्षत्र अलग हो जाएंगे और ऊंच-नीच का क्रम गड्डमड्ड हो जाएगा। (रामशरण शर्मा, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 16) लेकिन यदि उन्हें एक-दूसरे से जोड़कर उठाये तो ऐसा नहीं होगा और विश् को क्षत्र का अनुयायी बना रखा जा सकेगा। (शतपथ ब्राह्मण, 7. 3. 12 और 15) विश् को क्षत्र का अनुयायी/आज्ञाकारी बनाये रखने की आवश्यकता के और भी साक्ष्य अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठानों से हमें प्राप्त होते हैं। (रामशरण शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 16) यज्ञ पशुओं में घोड़े को क्षत्र कहा गया है और अन्य पशुओं को विश्। (वही) देवताओं को अश्व आदि पशु-बलि देते समय आह्वान और मंत्र वही पढ़ना चाहिए जो उपयुक्त हों; अन्यथा प्रजा-तुल्य होकर प्रत्युद्गमनी, अर्थात् विरोध में खड़ी होनेवाली हो जाएगी और इससे यजमान की आयु कम हो जाएगी किंतु यदि पुरोहित लोग सब कुछ ठीक से करेंगे तो विश्, क्षत्र के प्रति विनीत और वशवर्ती रहेगा। (शतपथ ब्राह्मण, 2.2.15) इस सबसे प्रकट होता है कि स्वतंत्रता और समताप्रिय किसानों को काबू में रखना अत्यावश्यक समझा जाता था। घृत की आहुति-सम्बंधी एक अनुष्ठान में कहा गया है कि क्षत्रिय यह आहुति जुहू, अर्थात् छोटी कलछी से देगा तो भोजक और भोज्य के बीच अंतर मिट जाएगा; दूसरे शब्दों में, आरंभिक समतावादी बंधुत्व पलट आएगा। दूसरी ओर, यदि वह यह काम बड़ी कलछी से करे तो वैश्य को वश में करेगा और उसे कहेगा-‘वैश्य तुमने जो जमाकर रखा है, वह मेरे पास ला दो।’ (वही, 3, 2, 15) तथा, जिस राजा ने असंख्य लोगों के बीच अपने को प्रतिष्ठापित कर लिया है, वह एक घर (वेष्मन्) में रहते हुए भी उन्हें वश में करता है। (वही, 3. 2. 14)

कर्मकांडों से प्रकट होता है कि राजन्य और विश् के बीच संघर्ष छिड़ता था और उसमें ब्राह्मण या अन्य प्रकार के पुरोहित राजन्य की ओर से बीच-बचाव करते थे। (रामशरण शर्मा, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 18) कई अनुष्ठानों में राजन्य और ब्राह्मण मिलकर विश् और शूद्र का सामना करते थे। (वही) यू. एन. घोषाल ने बहुत से ऐसे उएाहरण देकर बताया है कि किस तरह उत्तर वैदिक समाज में ब्रह्म और क्षत्र का बोलबाला रहा, किस तरह आपस मे ंउनकी प्रतिद्वन्दिता रही और किस तरह उनमें राजनीतिक गंठबंधन हुआ। (हिंदू पब्लिक लाइफ, भाग-1, कलकत्ता, 1944, पृष्ठ 73-80) यजुर्संहिताओं में (कण्व संहिता, गगण् 2) तथा ब्राह्मण ग्रंथों में (शतपथ ब्राह्मण, ग्प्प्प्ण् 5. 2. 11; 6. 1. 17-18, प्ग्ण् 4. 1. 7-8) दोनों उच्च वर्णों की रक्षा (अभय) की कामनावाली स्तुतियां मिलती हैं। कहा गया है कि वैश्य और शूद्र ब्राह्मण और क्षत्रिय से घिरे हैं (वही,) तथा, जो क्षत्रिय हैं, पुरोहित, वे अपूर्ण हैं। (वही, 6.3.12-13) राजसूय यज्ञ के परवर्ती रूप में वैश्य और शूद्र को द्यूत-क्रीड़ा में शामिल नहीं किया गया है। दिलचस्प बात यह है कि राजा केवल वैश्यों और शूद्रों को, बल्कि ब्राह्मणों को भी वश में रखने का प्रयास करता है। (रामशरण शर्मा, राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 19) इस संदर्भ में राजन्य और क्षत्रिय और राजन्यों के बीच, संभवतः राजा और पुराने बान्धव अभिजात वर्ग के बीच, विश् से वसूले गये अन्न एवं पशु आदि को लेकर संघर्ष होते थे।

यद्यपि ब्राह्मणों और क्षत्रियों की भलाई इसी में थी कि वे वैश्यों और शूद्रों के विरुद्ध आपस में मिलकर रहें; फिर भी दोनों आपस में लंबे युद्धों में संलग्न रहते थे। (वही) ऐसा प्रतीत होता है कि पनपते वर्ग/वर्णमूलक समाज में संघर्ष मुख्यतः सामाजिक श्रेष्ठता प्राप्त करने हेतु होते थे; (वही) और वैश्यों से प्राप्त भेंट और कर तथा शूद्र समुदाय से प्राप्त दास-दासी आदि श्रमिकों के बंटवारे के प्रश्न भी उनसे जुड़े रहते थे। क्षत्रियों में ज्ञानोत्कर्ष का दावा और यज्ञ-विरोधी भावना निश्चय ही इसलिए उदित हुई कि पुरोहितों को अपनी दान-दक्षिणा निरंतर मिलते रहना उन्हें खलता था। (वही) अंततोगत्वा यह संघर्ष एक सामंजस्यपूर्ण समझौते में खत्म हुआ जब क्षत्रियों ने ब्राह्मणों का धार्मिक नेतृत्त्व स्वीकार कर लिया और ब्राह्मणों ने क्षत्रियों का राजनैतिक नेतृत्त्व। यह समझौता टूटता-सा लगता था जब दोनों ही प्रभु वर्ग अपने अधिकार क्षेत्रों का अतिक्रमण कर अपनी श्रेष्ठता का दावा पेश करते थे।

इस प्रकार के संघर्षों की चरम परिणति हुई वर्ण-व्यवस्था के उदय में, जिसके अनुसार वैश्यों और शूद्रों को ब्राह्मणांे और क्षत्रियों की श्रेष्ठता शिरोधार्य हो गई। इसी वर्ण-व्यवस्था की मदद से राजा ने अपना अलग अस्तित्त्व कायम किया और धर्म (अर्थात् वर्ण धर्म) की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया। उत्तर वैदिक काल में वर्ण और राजसत्ता के समर्थन में बहुत सी आनुष्ठानिक और वैचारिक युक्तियां निकाली गईं और वैदिकोत्तर काल में इस व्यवस्था की नींव पर खड़े किये गये धर्मशास्त्र ने वर्ण और राजसत्ता दोनों को समृद्ध किया। इस तरह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था का उदय संपत्ति संबंधों में आये क्रमिक विकास का ही नतीजा था। इसलिए ठीक ही कहा गया है कि वर्णों का विभाजन श्रम विभाजन के साथ ही साथ संपत्ति का भी विभाजन था। (एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि, पी. पी. एच., जयपुर, 1988, पृष्ठ 33) लगभग संपूर्ण प्राचीन भारत में वर्ग, मोटे तौर पर, वर्ण से अभिन्न रहा है। (डी. डी. कोसांबी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 39 रामशरण शर्मा ने भी अपनी पुस्तक सम इकेनॉमिक आस्पेक्ट्स ऑफ दि कास्ट सिस्टम इन एंशिएंट इंडिया, पटना, 1951 में ऐसा ही विचार व्यक्त किया है। और देखें, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 11, पाद टिप्पणी-5)

यह भारत में राजसत्ता के उदय की कहानी है। कमोबेश पूरी दुनिया की यह कहानी है। पाठक को पांडेय जी की उक्त किताब को पढ़ते हुए उपरोक्त बातों को ध्यान में रखना चाहिए। ध्यान तो ओमप्रकाश पांडेय को भी रखना था लेकिन किताबकिंगशिप एंड गवर्नेंसके लिखे जाने से पहले।

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