Tuesday, July 6, 2010

इतिहास को हिन्दुत्ववादी औजार बनाने का अभियान

हीगेल ने कभी लिखा था, ‘इतिहास हमें कोई सीख नहीं देता’; सचमुच अगर ऐसा होता तो हमारे समय की कई मुश्किलें आसान हो जातीं। इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों की हेरा-फेरी में लोग इतनी तत्परता न दिखाते और इतिहास-लेखन में इतने विवाद की गुंजाइश भी न होती। मजेदार बात तो यह है कि भाववादी चेले ही आज हीगेल की स्थापना को मुंह चिढ़ाने लगे हैं।
इतिहास-लेखन शुरू से ही एक विवादास्पद मुद्दा रहा है क्योंकि जनमानस को प्रभावित करनेवाला यह सबसे प्रभावी साधन है। इसलिए इतिहास की चिंता सबको होती है; इसकी जरूरत सबको पड़ती है। शायद यह कहने की जरूरत अब शेष न रही हो कि विदेशी आक्रमणकारी भी जब-जब भारत आये हैं; इतिहासकारों की एक टोली हमेशा ही उनके साथ रही है और इतिहास-लेखन के काम को बड़ी शिद्दत से अंजाम दिया जाता रहा है। अंग्रेजों के आगमन से तो भारतीय इतिहास-लेखन की बाकायदा एक परंपरा ही शुरू होती है और अभी हम शायद यह भी नहीं भूल पाये हों कि भारत के आजाद होने में, इतिहास-लेखन की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। ऐसा नहीं है कि स्वतंत्र भारत में इसकी भूमिका समाप्त हो गई हो। पहली बार 1977 में व्यापक उलट-फेर की कोशिश हुई और दूसरी बार एक नई सदी में, जब पूंजीवाद का संकट अपने चरम पर है।
बहस की शुरूआत राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद् के विशेषज्ञ पैनल से प्रो. रोमिला थापर, प्रो. रामशरण शर्मा, प्रो. बिपन चन्द्रा तथा प्रो. सतीश चन्द्रा को निकाले जाने की खबर से हुई थी। इस संदर्भ में मुरली मनोहर जोशी ने सफाई देते हुए कहा था कि ‘इन लोगों का टर्म पूरा हो चुका था, इसलिए हटाया जाना कोई अस्वाभाविक नहीं है।’ बात अगर इतनी ही सहज और स्वाभाविक होती, तो शायद इतनी चिल्ल-पों न मची होती। कहना न होगा कि यू. जी. सी. के द्वारा ज्योतिषशास्त्र को मान्यता प्रदान करना और उसके सिलेबस को उच्च शिक्षा में शामिल करना, एक स्पष्ट राजनीतिक मंशा को ही उजागर करता है।
क्या यह बात मतलब से खाली है कि जहां ज्योतिषशास्त्र को विज्ञान बताकर पढ़ाये जाने की वकालत की जा रही हो, वहीं जमा दस तक समाज विज्ञान के सिलेबस को बिल्कुल छोटा किया जा रहा है। नये सिलेबस के तहत बच्चों पर से पढ़ाई का बोझ कम करने का नाटक करती हुई सरकार समाज विज्ञान की पढ़ाई को धूल चटा रही है। समाज विज्ञान की अलग-अलग किताबों की जगह अब सिर्फ एक किताब होगी जिसमें सिर्फ औपचारिकता का निर्वाह होगा और वह भी सरकार की मनगढ़ंत कहानियों के साथ। दुनिया में आज तक जितने भी बदलाव हुए हैं, सबके पीछे विचार रहा है। लेकिन हमारी सरकार स्कूली बच्चों को अवधारणात्मक शिक्षा से वंचित रखेगी। आर्थिक उदारीकरण को क्या विचारशून्यता इतनी ज्यादा पसंद है ?
कम दिलचस्प बात नहीं है कि जिन इतिहासकारों को पैनल से निकाला गया उन्हीं की किताबों को लेकर हंगामा खड़ा किया गया है। इन इतिहासकारों की पुस्तकों को 1977 में भी प्रतिबंधित किया गया था। रोमिला थापर की पुस्तक ‘मध्यकालीन भारत’, बिपन चंद्रा की पुस्तक ‘आधुनिक भारत’ तथा ‘सांप्रदायिकता और इतिहास लेखन’ जिनके लेखक रोमिला थापर, बिपन चंद्रा और हरबंस मुखिया थे, प्रतिबंधित हुई थी। रामशरण शर्मा की पुस्तक प्राचीन भारत को भी प्रतिबंधित कर दिया गया था। इनमें पहली और दूसरी पुस्तक सातवें-आठवें वर्ग के पाठ्यक्रम में स्वीकृत भी थी। इनको प्रतिबंधित करने की वजह यह थी कि इनमें सांप्रदायिकता, अंधराष्ट्रवाद और घृणित राष्ट्रवाद जैसे जन-विरोधी इतिहास-लेखन की परिपाटी का विरोध किया गया था और सही एवं वस्तुनिष्ठ इतिहास इतिहास लिखने की ईमानदार कोशिश की गई थी। ठीक इसी तरह कभी मध्य प्रदेश में मिली-जुली सरकार के शासन के दौरान मुक्तिबोध की प्रसिद्ध पुस्तक ‘भारत: इतिहास और संस्कृति‘ खुलेआम जलाई गई थी। यह पुस्तक भी पहले पाठ्यक्रम में शामिल थी।
28 दिसंबर 1977 को भारतीय इतिहास कांग्रेस ने भुवनेश्वर में हो रहे अपने 38वें अधिवेशन के अवसर पर इतिहास के अध्ययन के प्रति भारतीय इतिहासकारों के वैज्ञानिक और धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण को दुहराते हुए तत्कालीन हमले के विरुद्ध घोषणा की, ‘स्कूलों में पढ़ाई के लिए इतिहास की कुछ स्वीकृत पुस्तकों पर हो रहे वर्तमान हमलों के जरिये इतिहास के मूल सिद्धांतों पर ही प्रश्नसूचक चिह्न लगाया जा रहा है। सरकार की ओर से उन पाठ्य पुस्तकों को सूची से हटा देने का प्रयत्न चल रहा है और ऐसी आशंका पैदा हो रही है कि इतिहास को सांप्रदायिक और अंधोन्मादी आधार पर फिर से लिखने के लिए सरकार सहायता देने को तैयार है। इस वास्तविकता को भी नजरों से ओझल नहीं किया जा सकता कि पिछले शासन के जमाने की तरह ही ऐसे इतिहासकारों पर व्यक्तिगत बंदिशें और पाबंदियां लगाने की नीति चलाई जा रही है, जो भूत के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने के लिए विख्यात रहे हैं।’
याद रहे कि हिटलर ने जर्मनी के नाजीकरण के दौरान सभी विज्ञानों को जर्मन बना दिया था। नाजी जर्मनी में विज्ञान को ‘जर्मन फिजिक्स’, जर्मन केमेस्ट्री’ और ‘जर्मन मैथेमेटिक्स’ कहा जाता था। नाजियों का कहना था कि विज्ञान का संबंध ‘नस्ल’ से है और इसका निर्धारण रक्त की शुद्धता के आधार पर ही किया जा सकता है। इसी अंधराष्ट्रवाद और नस्लवाद की वजह से उन्होंने सभी विज्ञानों के पहले ‘जर्मन’ शब्द लगा दिया था। भारत में भी इसी तर्क पर विज्ञान के ‘भारतीयकरण’ की घोषणा की जा रही है। ज्यातिषशास्त्र को यू.जी.सी. से मान्यता तथा ‘वैदिक मैथेमेटिक्स’ की स्कूलों में पढ़ाई, इसी अभियान की कड़ी के रूप में हैं।
प्रो. आर.एस.शर्मा की पुस्तक ‘प्राचीन भारत’ पर हमला करते हुए कहा गया था कि ‘वे अपनी पुस्तक में जैन और बौद्ध धर्म के उत्थान के कार्य-कारण संबंधों को, तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक स्थिति में-कृषि के विस्तार, वाणिज्य के विकास और असमानता पर आधारित वर्ण-व्यवस्था में ढूंढ़ते हैं।’ लोगों ने यह भी आरोप लगाया था कि उक्त पुस्तक में वैदिक आर्यों को गोमांसाहारी बताया गया है तथा भारत के इतिहास में कांस्य संस्कृति के अस्तित्व से इनकार किया है। दरअसल, डा. शर्मा जैसे ख्यातिप्राप्त इतिहासकार को न तो अपनी सफाई में कुछ कहने का मौका दिया गया और न ही उसपर गंभीरता के साथ विचार ही किया गया। इसी का नतीजा था कि रामशरण शर्मा को अपनी पुस्तक के पक्ष में अलग से एक पुस्तिका लिखनी पड़ी, जिसका नाम ‘इन डिफेंस ऑफ एंशिएंट इंडिया’ था।
इस पूरी स्थिति के मद्देनजर आर.एस.शर्मा ने मूल बात पर जोर देते हुए कहा था कि ‘यह हमला केवल मार्क्सवादियों के ही विरुद्ध नहीं है, बल्कि अब यह लड़ाई तर्क और धर्म के बीच हो गई है।’ इन प्रतिक्रियावादी ताकतों ने तभी से तर्क की जगह धर्म को आधार बनाकर पाठ्य पुस्तकों के लेखन को अंजाम देना शुरू कर दिया था। सन् 77 की जनता पार्टी की सरकार के इस ‘नेक’ कार्य में सबसे ज्यादा योगदान आकाशवाणी और विद्या भारती द्वारा संचालित स्कूलों एवं डी.ए.वी. आदि शिक्षण संस्थाओं ने किया है। आकाशवाणी के प्रसारणों में इतिहास को तोड़-मरोड़कर एक नई व्याख्या में ढाला गया था। एक प्रसारण के अनुसार, ‘हिन्दी भाषा का विकास तुर्क आक्रमण के विरोध में हुआ था।’ (वी.सी.पी.चौधरी,कम्युनलिज्म वर्सस सेक्युलरिज्म,पृष्ठ 125)। भारतीय इतिहास का सामान्य पाठक भी जानता है कि किसी भाषा का विकास धार्मिक या जातीय विरोध में नहीं होता। रेडियो नाटकों द्वारा भी इस प्रकार के घृणित नस्लवाद का प्रचार किया जा रहा था। उदाहरण के लिए आकाशवाणी के कलकत्ता केन्द्र द्वारा प्रसारित बंगला नाटक ‘सिराजुद्दौला’ को लिया जा सकता है। इस तरह के अनेक तथ्य आपको तत्कालीन प्रसारणों में मिलेंगे जिनमें हिंदुत्व, आर्यत्व तथा भारतीय संस्कृति की विश्वव्यापी श्रेष्ठता का गुणगान है।
जनवरी 1987 को ‘जनशक्ति’ में ‘इतिहास में लिखी काल्पनिक कथाएं’ शीर्षक से बी. एन. पांडेय,इतिहास की एक पुस्तक का हवाला देते कहते हैं कि ‘मैंने उस किताब का टीपू सुल्तान संबंधी अध्याय खोला जिसमें लिखा था कि तीन हजार ब्राह्मणों ने केवल इसलिए आत्महत्या कर ली कि सुल्तान उन्हें जबरन मुसलमान बनाना चाहता था।’ उक्त पुस्तक के लेखक एक सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा. हरप्रसाद शास्त्री हैं। श्री पांडेय ने शास्त्री जी से इस संबंध में जांच-पड़ताल की तो उत्तर मिला कि यह बात उन्होंने मैसूर गजट से ली है। किंतु मैसूर गजट में ऐसी कोई बात नहीं है। जाहिर है, डा. शास्त्री की किताब पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा तथा उत्तर प्रदेश के दसवें वर्ग के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती रही है। 1972 में तीन हजार ब्राह्मणों की झूठी कहानी उत्तर प्रदेश में जूनियर हाई स्कूल के पाठ्यक्रम में भी मौजूद थी। ऐसी परिस्थिति में अगर साम्प्रदायिक दुराग्रह बढ़ते हों तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
विद्या भारती, सरस्वती शिशु मन्दिरऔर दयानंद आर्य वैदिक शिक्षण संस्थाएं आरंभ से ही बच्चों को नस्लवादी इतिहास का जहर पिलाना शुरू कर देती हैं। प्रमाण के रूप् में विद्या भारती स्कूलों में पढ़ाई जानेवाली पुस्तकों को देख सकते हैं, जिनमें बताया गया है कि आर्य जाति ही दुनिया की सबसे उच्च जाति है और हिन्दू संस्कृति ही सारी संस्कृतियों का आधार। शिक्षा का यह सांप्रदायिक स्वरूप ठीक वैसा ही है जैसा हिटलर के समय में जर्मनी की नाजी शिक्षण संस्थानों में था। तत्कालीन जर्मनी की सही स्थितियों की जानकारी के लिए आप ब्रेख्त के नाटकों को प्रमाण के रूप् में ले सकते हैं। आज इस समय में भी जब विज्ञान की प्रगति पर हम ‘गर्व करना सीख गये हैं’, डी. ए. वी. विद्यालयों में पढ़ाई की घंटी गायत्री मंत्र के ‘जाप’ से शुरू होती है।
सन् 77 की जनता पार्टी की सरकार में पुस्तकों को प्रतिबंधित करने के साथ-साथ कई अन्य क्षेत्रों में भी प्रशासनिक हस्तक्षेप जारी थे। आर.एस.शर्मा की सोवियत विद्वानों की दावत पर एक विचार-गोष्ठी में भाग लेने के लिए जाने की अनुमति नहीं प्रदान की गई। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के डा. अहतर अली को विदेशी निमंत्रण स्वीकार नहीं करने दिया गया था।
वर्तमान संदर्भ में दामोदरन नैयर की कहानी भी दिलचस्प हो जाती है। दामोदरन नैयर दिल्ली के गांधी स्मृति स्मारक में गाईड का कार्य कर रहे थे और साथ ही वे गांधी पर अपना शोध-प्रबंध भी तैयार कर रहे थे। अपने व्यावसायिक कर्तव्य के रूप में वे पर्यटकों को उस स्थल पर ले जाते थे जहां पर गांधीजी नाथूराम गोडसे की गोली के शिकार हुए थे। प्रसंगवश वे इसका भी जिक्र कर देते थे कि गोडसे आर.एस.एस. से संबंधित था। अपने कथन के साक्ष्य के रूप में वे तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की पुस्तक ‘स्टोरी ऑफ माई लाईफ’(खंड-1,पृष्ठ 248)से उद्धरण पेश करते थे। इतिहास के तथ्य और अपने पेशे के प्रति दामोदरन की इस प्रतिबद्धता ने तत्कालीन शासक वर्ग के सांप्रदायिक और रूढ़िवादी तत्वों के रक्तचाप को बढ़ा दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि 9 और 31 अक्तूबर 1977 को आर.एस.एस.के सदस्यों ने उनकी पिटाई की। दामोदरन ने अपने बचाव के लिए जब यह कहा कि ‘जो वह कह रहे हैं, वही बात मोरारजी देसाई ने भी कही है’, तो आर.एस.एस.वालों ने उत्तर दिया, ‘अगर उन्होंने ऐसा कहा है,तो हम उन्हें भी मार डालेंगे।’(वी.सी.पी.चौधरी, भारतीय इतिहास लेखनः एक अंतर्राष्ट्रीय विवाद,पृष्ठ111)। बाद में वे लोग ‘गोडसे जिंदाबाद’ और ‘गोडसे अमर रहें’ का नारा लगाते हुए चले गये। यही नहीं, जब उस पवित्र स्थान पर जूता खोलकर जाने का निवेदन किया जाता था तो उनका जवाब होता था,‘हमलोग यहां पेशाब भी करेंगे।’(सेक्युलरिज्म वर्सस कम्युनलिज्म,पृष्ठ 106-7)।
तत्कालीन प्रधानमंत्री देसाई के साथ, गृहमंत्री चरण सिंह भी अक्सर कहा करते थे कि दामोदरन को ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए जिनसे आर.एस.एस. की भावना को ठेस पहुंचती हो। इस नाटक का अंत यह हुआ कि दामोदरन का स्थानांतरण दंडस्वरूप पुस्तकालय में कर दिया गया। इस प्रकार सन् 77 ई. में सत्ता की बागडोर थामनेवाली सांप्रदायिक शक्तियां, सच्ची बात कहने पर भी रोक लगा रही थीं। आर.एस.एस. के इन सांप्रदायिक क्रियाकलापों की भर्त्सना करते हुए एक जनता सांसद ने ही कहा था कि ‘हिटलर को जर्मनी के इतिहास पुनर्लेखन में ढाई वर्ष लगे थे, जिसे जनसंघ भारत के संदर्भ में एक सप्ताह में पूरा कर लेना चाहता है। जनसंघ के फासिस्ट चरित्र का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है?’(सेक्युलर डिमोक्रेसी,1-15 सितंबर 1977)।
अंत में डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष डा. एस.एल. बरुआ और उसी विभाग में रीडर डा. एम.एल.बोस की चर्चा कर देना भी प्रासंगिक होगा। उक्त विश्वविद्यालय से प्रकाशित इतिहास की एक पत्रिका ‘जर्नल ऑफ हिस्टॉरिकल रिसर्च’ में डा. एम.एल. बोस का लेख ‘असम का सामाजिक इतिहास’ प्रकाशित हुआ। उक्त पत्रिका का संपादन डा. बरुआ ने किया था,और उन्होंने इस लेख को ‘शोध का नमूना एवं वर्षों के अध्ययन का फल’ बताया था। डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय के कुलपति ने डा. बरुआ को इस पत्रिका का सिर्फ प्रकाश नही बंद करने का आदेश नहीं दिया बल्कि उन्हें विश्वविद्यालय में अपनी सेवा पर जाने से भी रोक दिया। ऐतिहासिक सच्चाई को कहने का यही ‘पुरस्कार’ था। (टाइम्स ऑफ इंडिया,21.10.1973)। इस प्रसंग में उक्त संपादकीय लेख को ध्यान में रखना होगा जिसमें कहा गया कि ‘एक वर्ष भी नहीं बीता है कि इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस ने जनता सरकार से इस आश्वासन के लिए अनुरोध किया था कि सांप्रदायिकता और संकीर्णता से प्रभावित इतिहास लेखन बंद किया जाए।’
जिस तरह से परिवार तथा समाज में पल-बढ़कर एक बच्चा ‘हिन्दू’, ‘मुसलमान’, ‘सिख’ या ‘ईसाई’ बन जाता है, ठीक उसी तरह पाठ्य पुस्तकों में वर्णित भ्रामक सामग्रियों से भी। लाला लाजपत राय अपने बचपन के दिनों की याद करके ‘आत्मकथा’ में लिखते हैं, ‘इतिहास की एक पुस्तक ‘‘वक्त-ए-हिन्दू’’ जो उस वक्त सरकारी स्कूलों में पढ़ाई जाती थी, ने मुझमें यह भाव भर दिया कि मुसलमान शासकों ने हिन्दुओं पर काफी सितम ढाये। परिणामतः बचपन के पालन-पोषण से इस्लाम के प्रति जो सद्भाव मैंने हासिल किये थे, वे अब घृणा में परिणत हो रहे थे।’
इसलिए इन वस्तुनिष्ठ इतिहासकारों की पुस्तकों को निकाले जाने या फिर बदल डालने की घोषणा, महज संयोग नही है बल्कि इतिहास को नस्ल,जाति और धर्म की अविवेकी परंपरा में शामिल करने का जो फासिस्ट अभियान है, उसी की एक कड़ी है। अपनी बौद्धिक क्षुद्रता और दरिद्रता का अहसास करते हुए, वे इतिहास के किसी भी गंभीर विमर्श से बचना चाहते हैं। इसलिए उनकी रणनीति है, पाठ्य पुस्तकों में मनगढ़ंत बातें लिखवाकर स्कूल जाते बच्चों की घुट्टी में ही ऐसा जहर मिला दो ताकि बड़े होकर गर्व से कहें, ‘हम हिन्दू हैं।’

प्रकाशन: सहमत मुक्तनाद, जनवरी-मार्च 2002।

1 comment:

  1. पूर्वाग्रह युक्त !!

    जिस बात का लांछन,इस पक्ष पर लगा रहे हो,स्वयं उसी के दूसरे छोर पर विद्रुपता से खडे हो।

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