Tuesday, July 27, 2010

पंकज की कविता में दलित विमर्श

इतिहास और समाजशास्त्र में अवधारणात्मक परिवर्तन से साहित्य के मानदंडों अथवा प्रतिमानों में भी महान फेरबदल होते देखे जाते हैं। मार्क्सवादी इतिहास-लेखन ने ‘नीचे से इतिहास’ लिखने की परिपाटी की अच्छी शुरुआत की थी और अभिजातवर्गीय दृष्टिकोण की कई मान्यताओं की कई असंगतताएं भी उद्घाटित की थीं। इसके ठीक बाद ‘सबाल्टर्न स्टडीज’ के उद्घोषकों ने इसे भी अपर्याप्त बताते हुए ‘निम्नवर्गीय प्रसंग’ की खोज-बीन जारी की और इतिहास-लेखन की ‘केन्द्रीय सत्ता’ पर धावा बोला। फलतः इतिहास गढ़नेवालों की एक बड़ी फौज इतिहास रचने के पुनीत कर्म में भागीदार हुई और नये-नये विमर्श शुरू हुए। कहना होगा कि इतिहास-लेखन के इस नये ‘ट्रेंड’ के तहत इतिहास में स्त्रियों एवं दलितों की भूमिका को रेखांकित किया गया। यह समाज का वैसा तबका था जो अब तक इतिहास की मुख्यधारा से अलग-थलग नजर आता रहा था। विडंबना कहिए कि इतिहास के समय को सबसे जयादा प्रभावित करनेवाला बहुसंख्यक वर्ग हाशिए पर फेंक दिया गया था और जिसे कई बार अपने अस्तित्व की रक्षा तक की लड़ाई लड़नी पड़ रही थी।
युवा कवि पंकज कुमार चौधरी का कविता-संग्रह उस देश की कथा ऐसे ही अनगिनत संघर्षों की कहानी कहता है। कभी नारीवादी आन्दोलन के शुरुआती दौर के प्रवक्ताओं ने यह कहते हुए कि अब तक के सारे फैसले स्वयं अपराधियों द्वारा लिखे गये फैसले हैं, इतिहास-लेखन को कठघरे मे खड़ा कर डाला था। आज वही आक्रामक मुद्रा हम दलित विमर्श में पाते हैं जो अब तक के संपूर्ण इतिहास-लेखन को शक की दृष्टि से देखता है। उसकी स्थापना है, अब तक का रचा गया सारा साहित्य सवर्णों का साहित्य है। शायद इसीलिए ऐसे साहित्य का परिचयात्मक ‘नोट्स’ लिखते हुए सवर्ण साहित्यकार (अगर ऐसा कुछ होता है) अतिरिक्त सावधानी दिखाते हुए यह टिप्पणी टांक देना भी मुनासिब समझता है कि ‘...लेकिन मैं पंकज को दलित कवि कहकर प्रस्तुत नहीं कर रहा हूं क्योंकि कोई कवि दलित और दमित नहीं होता।’ फिर भी खगेन्द्र जी, आपकी यह टिप्पणी अविश्वसनीय ही रहेगी क्योंकि ‘सवर्णों’ के लेखन को ‘वे’ खुफिया विभाग की रणनीति से ज्यादा कुछ भी नहीं मानते। संभव है, ऐसी समझ के पीछे उनके अंदर का ‘विद्रोह’ ज्यादा ‘विवेक’ कम हो।

सोवियत संघ की नवंबर क्रांति को छोड़ दें तो अब तक के इतिहास के संपूर्ण कालखंड में शासक वर्ग हमेशा ही अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधि वर्ग रहा है एवं सत्ता पर काबिज रहने के लिए वर्गीय विचारधारा के प्रचार हेतु ‘महान’ हथकंडे काम में लाते रहे हैं। शासक वर्ग की संस्कृति के आवश्यक उपादान तैयार करने में इतिहास के हाशिए पर रहनेवाले इन्हीं वर्गों का ‘गुलाम श्रम’ लगता है लेकिन हर बार उन्हें इस बात का अहसास करा दिया जाता है कि चिंतन-दर्शन की विशाल और ‘महान’ परंपरा कायम करने की मानसिक कूवत अथवा क्षमता का उनमें सर्वथा अभाव रहा है। आर्यों के आगमन से अंग्रेजों के भारत छोड़ने तक की इतिहास-यात्रा में गढ़ा गया यह सबसे बड़ा झूठ है। कवि पंकज ने अपनी पहली कविता ‘वे जब-जब राजपथ की ओर मुड़े’ में इसी ‘झूठा-सच’ का पर्दाफाश है, ‘वे जब-जब राजपथ की ओर मुड़े/उनके बारे में प्रचार किया गया कि/उनके पास हाथ तो हो सकते हैं/पर खोपड़ी कहां।’
कहना होगा कि आर्य जब भारत में आए तो खानाबदोश और बर्बर थे। वे अपने साथ कोई संस्कृति लेकर न आए थे। इसलिए भारत में उनका आगमन द्रविड़ों की संस्कृति की तुलना में एक पिछड़ा कदम था। आर्यों का पहला कबीला/जत्था जिन इलाकों में पसरा वहां उन्हें अनार्यों के साथ तीखा संघर्ष करना पड़ा। अनार्यों में दो का नाम लेते हुए आर्य अपने प्रारंभिक साहित्य में अत्यधिक घृणा का प्रदर्शन करते हैं। ये दो मुख्यतः पणि एवं दास थे। डा. रामविलास शर्मा ने भाषा वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर हमें बतलाया है कि हाथ से काम करनेवाले मूलतः दास कहलाए। संस्कृत में ‘हस्त’ एवं ‘हस्तकर्म’ जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति पर गौर करें तो दासों के प्रति आर्यों की ‘स्वाभाविक’ घृणा को समझा जा सकता है। पणि नाम भी आर्य प्रतीत नहीं होता, परंतु इससे व्युत्पन्न कई महत्वपूर्ण शब्द संस्कृत में और इससे बाद की भारतीय भाषाओं में आ गये हैं। हिन्दी का ‘बनिया’ शब्द संस्कृत के ‘वणिक्’ से बना है, परंतु इस वणिक के लिए हमें पणि के अलावा अन्य कोई ‘मूल’ स्रोत हमें अबतक ज्ञात नहीं है। संस्कृत का पण शब्द सिक्के का सूचक है, और क्रय-विक्रय तथा व्यापार की सामान्य वस्तुएं पण्य कहलाती हैं। पणि शब्द का अर्थ मैकडॉनल एवं कीथ ने ‘वेदिक इंडेक्स’ में अंग्रेजी के बेकनॉट से लगाया है जिसका अर्थ सूदखोर होता है। इतिहासकार कोसांबी का मत है कि प्राचीनतम भारतीय सिक्कों के भारमान ठीक वही हैं जो कि मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक वर्ग के वजनों के हैं, और ये ईरान अथवा मेसोपोटामिया में प्रचलित मानकों से भिन्न हैं। ऐसा लगता है कि कुछ सिंधुजनों ने आर्यों की लूट-खसोट से अपने को बचा लिया, और इस प्रकार व्यापार व उत्पादन की पुरानी परंपरा जारी रखी।
ठीक आर्यों की तरह अंगेजों का प्रभु वर्ग जब भारत आया तो अपने कंधे पर एक ‘नैतिक बोझ’ भी ढोता आया। उसने कहा कि भारतीयों का अपना कोई इतिहास नहीं है। इसलिए उनका नैतिक दायित्व बनता था कि असभ्य और जाहिल भारतीयों को सभ्यता-संस्कृति की चाशनी चटाएं। एक बहुप्रचारित झूठ को उसने प्यारा-सा और मोहक नाम दिया-‘गोरी/सभ्य जातियों का भार।’ कवि पंकज कुमार चौधरी को मिथ्या प्रचार के संपूर्ण इतिहास का ज्ञान है, इसलिए वे हमें सचेत करते पूछते हैं-‘वे कौन थे/और किनके बारे में प्रचार करते आ रहे थे/आखिर उनका मकसद क्या था ?’ ऐसे सवाल इतिहास के हरेक दौर में उठते रहे हैं लेकिन उनको समय-समय पर गीता जैसे महान ग्रंथों की अबूझ भाषा से चमत्कृत किया जाता रहा है।

शोषण-शासन की इस प्रक्रिया को अविच्छिन्न बनाये रख पाने में धर्म ने सबसे बड़ी और सबसे कारगर भूमिका अदा की है। शासक वर्ग ने श्रमजीवी जनता को जाति से लेकर गोत्र तक में बांट डाला। धीरे-धीरे जाति और गोत्र निम्न वर्ण के लोगों के लिए गाली की तरह प्रयुक्त होने लगे जबकि सवर्णों को जाति और गोत्र ‘राष्ट्रीय गर्व’ की तरह रटाये जाते रहे। मुझे याद है कि दूसरी जमात में पढ़ते समय एक शिक्षक को जब मैं अपना गोत्र-नाम न बता पाया था तो उसने किस तरह हिकारतभरी नजरों से देखा था। जाति और गोत्र के संस्कार में रंगे उस शिक्षक के दिमाग में कुछ ऐसा भाव था मानो ‘मैं किस परिवार का और कैसा जंतु हूं जिसे इतिहास के इतने बड़े कालखंड में हासिल की गई महान उपलब्धि का भान तक नहीं है।’ पंकज कुमार की कविता ‘गोत्र’ में दलितों की यही ‘अक्षमता/अयोग्यता’ सवाल बनकर खड़ी हो जाती है। पूजा कराते पुरोहित जब अपने दलित यजमान से गोत्रनाम लेने को कहता है तो एक सन्नाटा पसर जाता है। लगता है जैसे उसने इतिहास के सबसे भयानक और त्रासद हादसे की याद दिला दी हो।
‘श्राद्ध का भोज’ कविता में पंकज ने जाति एवं धर्म की रूढ़ियों को चित्रित करने की कोशिश की है। कवि ने गांव के श्राद्ध-भोज की एक सच्ची तस्वीर खींची है। गांवों में जैसाकि ऐसे मौकों पर हमेशा ही होता है, सवर्णों एवं अवर्णों की अलग-अलग पांत बैठती है। गांव के सवर्ण अरबिन्द के लिए ‘अरबिन्द बाबू’ और ‘राजा भाई जी’ जैसे संबोधनों का प्रयोग है। अवर्ण पात्रों के नाम अकलूआ, चट्टूआ, बिसेसरा आदि हैं। जाति एवं सामाजिक व्यवस्था से हमारी भाषा कैसे प्रभावित होती है, कवि ने इसका खास ध्यान रखा है। कैसे एक ही व्यक्ति जो खाद्य-सामग्री परोसनेवाला है, अरबिन्द बाबू से पूछते हुए ‘सब्जी’ शब्द का प्रयोग करता है जबकि अकलूआ, चट्टूआ, बिसेसरा से पूछते हुए ‘तरकारी’ शब्द से ही काम चलाता है। जो व्यक्ति भाषा की गहरी समझ और संवेदना रखता है, पंकज की कविता में इन चीजों पर गौर करेगा। प्रसंगवश, मुझे निराला की कृति ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ की याद आ रही है। बिल्लेसुर, जैसाकि आप सब जानते हैं, विल्लेश्वर है, लेकिन बकरी चरानेवाला (बकरिहा) होने की वजह से लोगों की जुबान पर चढ़ नहीं पाता।
अमानवीय जाति-व्यवस्था का विरोध जितना हो कम है। लेकिन पंकज का विरोध एक सीमा के अंदर का है। जो अवर्ण श्राद्ध-भोज में सम्मिलित हैं वे सामाजिक रूढ़ियों से लड़ते नहीं दिखते, वे अपने स्वयं के अपमान से ज्यादा क्षुब्ध लगते हैं। यह क्षोभ है जाति व्यवस्था में सम्मानजनक स्थिति का न होना। निश्चित रूप से ‘मोक्ष’ और ‘पितरों’ की आत्मा की शांति की भाषा बोलनेवाला दलित क्रांतिकारी भूमिका का निर्वाह नहीं कर सकता। संग्रह की एक कविता है ‘दूसरा भगत सिंह’। इसमें एक अत्यंत सामान्य वय-बुद्धि के एक लड़के का वर्णन है जिसका आदर्श शाहरुख खान है। एक खास तरह की अराजकता है उसके जीवन में, लेकिन कोई वैचारिक चेतना जनित नहीं है। वह ‘हथियारों’ की बातचीत में महज शरीक ही नहीं होता बल्कि उसके रखे जाने की आवश्यकता भी महसूस करता है। कवि उसमें भगत सिंह की छवि देखता है और नव-वर्ष की बधाई देता है। कवि-मुख सेः ‘भूखा रह जाता है छौड़ा/पर मन छोटा नहीं करता है छौड़ा/हम सब दिन क्या ऐसे ही रहेंगे/कहता है छौड़ा/मेरे भी दिन घूरेंगे कहता है छौड़ा।’ यह एक अवसरवादी चरित्र है जो एक अकेले व्यक्ति के जीवन की बेहतरी के सपने देखता है। लगभग इसी प्रसंग की एक दूसरी कविता ‘एक तटस्थ दार्शनिक’ है जिसमें कवि ने अपनी कवि-विरादरी का उपहास किया है। यह मध्यवर्गीय चरित्र की गड़बड़ी लगती है।

पंकज ने ‘चोर और चोर’ कविता में चोरों की दो कोटियां निर्मित की हैं। शायद कोई सुविधा का ख्याल रहा हो। प्रथम कोटि का चोर वह प्राणी है जो सामान्य स्तर की चोरी करता है लेकिन पकड़ा जाता है। लात-घूसों का भी ‘शिकार’ होना पड़ता है। कवि को निस्संदेह इस चोर से गहरी सहानुभूति है। सहानुभूति का असर देखिए-‘और उसे बीच चौराहे पर/उस रोड़े और पत्थर बिछी हुई पर/बूटों की नोक पर/फुटबॉल की तरह उछाल दिया जाता था।’ आगे की कुछ पंक्तियां इस तरह हैं; ‘तत्पश्चात उसकी फ्रैक्चर हो चुकी देह पर/बेल्टों की तड़ातड़ बारिश शुरू कर दी जाती थी/उसे लातों, घुस्सों, मुक्कों, तमाचों/रोड़े और पत्थ्रों से पीट-पीटकर /अंधा, बहरा, गूंगा और लूला बना दिया गया था/उसे बांसों और लकड़ियों से भी डंगाया जा रहा था/उसके ऊपर लोहे की रॉडों का ताबड़तोड़ इस्तेमाल करके /उसके दिमाग को सुन्न कर दिया गया था/और उससे भी नहीं हुआ/तो उसके लहूलुहान मगज पर/चार बोल्डरों को पटक दिया गया।’ कवि इतना भाव-विह्वल है कि हड्डी की जगह देह फ्रैक्चर हो रही है। शायद ऐसे ही समय के लिए मुक्तिबोध ने लिखा था कि भावना बच्चा है, अगर उसे आदमी नहीं बना सकते तो उसकी हत्या कर डालो। लेकिन हमारे कवि को यह पसंद नहीं और वे लोकतंत्र व मानवाधिकार की दुहाई देते हैं:‘दुनिया के सबसे बड़े और महान लोकतंत्र में/मानवाधिकार का साक्षात उल्लंघन हो रहा था।’ कवि का सारा गुस्सा दूसरी कोटि के चोर के खाते में जाता है; ‘और ऐन उसी रोज एक चोर और पकड़ाया था/जो राष्ट्र का खरबों रुपया डकार गया था/पर उसके लिए एयर-कंडिशंड जेल का निर्माण हो रहा था।’ प्रथम कोटि के चोर के लिए कवि सहानुभूति का ठोस आधार गढ़ता है। जरा गौर करें-‘पूस का महीना था/और पूरबा सांय-सांय करती हुई/बेमौसम की बरसात झहरा रही थी/जो जीव-जन्तुओं की हड्डियों में छेद कर जाती थी।’
पंकज उपेक्षित लोगों की आवाज उठाना चाहते हैं लेकिन एक खास तरीके से। वर्ण-व्यवस्था में एक खास वर्ग के लिए जगह तलाशता हुआ। लेकिन इन उपेक्षितों में भारतीय स्त्री नहीं है। संभव है कि यह एक संयोग हो। लेकिन है यह दुखद संयोग ही। कबीर की निम्नलिखित पंक्ति पंकज का दूर तक पीछा करेगी-
मोटी जनेऊ ब्राह्मण पेठो,
ब्राह्मणी को नहीं पहनाई। जनम-जनम को भई वो सूदा, उने परस्यो तने खाई।।

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