Friday, August 6, 2010

कठिन है भगवतशरण पर लिख पाना



डा. खगेन्द्र ठाकु की इस स्वीकारोक्ति से किभगवतशरण उपाध्याय पर लिख पाना एक कठिन काम है’, अधिकतर विद्वान सहमत होंगे। हालांकि खगेन्द जी के लिए, ‘यह आश्चर्यजनक है कि जिस भगवतशरण उपाध्याय ने इतना विशाल साहित्य रचा, उनके बारे में प्रायः नहीं लिखा गया है’, किंतु मेरे लिए इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है। दरअसल, उपाध्याय जी काविशाल साहित्यही उन पर लिखे जाने में बाधा उपस्थित करता है। आज के उत्तर-आधुनिक समय में सब कुछ पढ़ने और विशाल साहित्य रचने को प्रतिभा नहीं माना जाता। इस विशेषीकरण के दौर में ऐसे विद्वानों के लिए कोईखानानहीं बना होता जिसमें उन्हें डालकरखपायाजा सके। आज के समय का पहला सवाल होता है कि आप साहित्यकार हैं, इतिहासकार हैं अथवा कोई समाजशास्त्री हैं। अगर आपका ज्ञान इस तरह के खानों में बंटा है तब तो ठीक वरनाअनुपयोगीऔरअप्रासंगिकहैं। आज के पाठक सुकरात, चाणक्य या मार्क्स के जमाने केपिछड़ेदिमागवाले नहीं हैं कि आप अपना सारा ज्ञान उन्हीं के सम्मुख झाड़ दें। अगर आपहिन्दी साहित्यके विद्यार्थी हैं और अगर संस्कृत एवं अंग्रेजी के लेखकों को पढ़ लिया तो माफी मांगनी पड़ सकती है। खगेन्द्र ठाकुर नेसाहित्य अकादमीके लिए भगवतशरण उपाध्याय पर विनिबंध लिखकर निश्चय ही परंपरा की लीक छोड़ी है। शायद दूसरेधर्मभ्रष्टोंको भी इससे बल मिले।

लेखक ने इस छोटी-सी पुस्तिका (वैसे पुस्तिका छोटी ही होती है!) में भगवतशरण उपाध्याय के विशाल साहित्य को भरसक समेटने की कोशिश की है। मूल्यांकन बहुत ही यथार्थपरक और आलोचकीय दृष्टि से संपन्न है। उपाध्याय जी की जीवनी से लेकर इतिहास, संस्कृति एवं आलोचना के प्रतिमान तक पर रोशनी डाली गई है। यहां तक कि संस्कृत साहित्य में उपाध्याय जी का जो अवदान है, उसकी भी समीक्षा उन्होंने प्रस्तुत की है। कुछ स्थापनाओं को, स्थानाभाव की वजह से छोड़ देना पड़ा होगा। विशेषकर भाषा विज्ञान का क्षेत्र-जिसमें गंभीर काम के लिए रामविलास शर्मा पढ़े और जाने जाते हैं, उपाध्याय जी कई सूत्र छोड़ गए हैं। डा. रामविलास शर्मा को पढ़ते हुए दृष्टि अगर उपाध्याय जी तक फैलाई जाए तो हिन्दी में भाषा-विज्ञान के विकास को समझने में आसानी हो सकती है। खासकर, भाषा-विज्ञान में मार्क्सवाद की जो भूमिका है, उसे पहचानने तथा रेखांकित करने में सहूलियत हो सकती है। संस्कृत और प्राकृत की जो बहस है उसमें उपाध्याय जी पूरी प्रामाणिकता के साथ प्राकृत को मूल भाषा सिद्ध करते हैं और संस्कृत को उसकाविकसितरूप मानते हैं

समाज विज्ञान और विशेषकर इतिहास लेखन के क्षेत्र मेंनीचे से इतिहास’ (हिस्ट्री फ्रॉम बिलो) का जो राग अलापा जाता है, खगेन्द्र ठाकुर ने ठीक ही उसका श्रेय उपाध्याय जी को दिया है। फर्क सिर्फ इतना है कि इतिहासकार स्थितियों का चित्रण कर अपना दायित्व पूरा हुआ मान बैठता है जबकि उपाध्याय जी आज के शोषितों, पीड़ितों एवं दलितों और वंचितों को नया जीवन पाने के लिए संघर्ष करने की चेतना भी देते हैं। इस तरह इतिहास के अध्ययन और साहित्य के लेखन की प्रक्रिया में मानवीय संवेदना को केन्द्र में रखना उपाध्याय जी की विशिष्टता है।
उपाध्याय जी की ही तरह खगेन्द्र ठाकु की द्वन्द्वात्मक इतिहास दृष्टि कहीं-कहीं मलिन हो जाती है। एक जगह वे लिखते हैंमनुष्य अतीत का पुनर्निर्माण नहीं कर सकता है।सच्चाई यह है कि इतिहास दृष्टि में बदलाव के साथ-साथ अतीत के बारे में हमारी धारणाएं भी बदलती हैं और प्रत्येक बार एक दूसरा ही अतीत हमारी आंखों के सामने जीवित होता रहा। अतीत लगातार बदलता रहा, क्योंकि बदले हुए वर्तमान के उद्येश्य दूसरे थे, बिल्कुल नये प्रयोजन थे। कुछ दिनों पहले तक बख्तियार खिल्जी द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय को आग लगाकर जला डालने की बात इतिहास का रटा-रटाया तथ्य थी। आज इसकी निस्सारता से इतिहास का एक सामान्य विद्यार्थी भी परिचित है। इसलिए, बदले हुए वर्तमान में अतीत अपरिवर्तित कैसे रह सकता है।
प्रकाशन: सम्प्रति पथ, दिल्ली, नवंबर-दिसंबर 2005, पृष्ठ 79-80।

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