Thursday, August 12, 2010

अस्मिता की खोज है भाषा

कर्मेन्दु शिशिर
‘दरअसल भाषा का सवाल कभी सिर्फ भाषा का सवाल वहीं होता। वह अपनी बुनियाद में ही किसी राष्ट्र की और उसकी अस्मिता का सवाल होता है।’ कोई भी भाषा कभी अकेले नहीं हुआ करती है। एक भाषा की मुक्ति का अर्थ है उससे जुड़ी लगभग सभी भाषाओं की मुक्ति। यह सिर्फ भाषा का ही नहीं बल्कि जनबोलियों की अस्मिता और सुरक्षा का भी सवाल है। मातृभाषा में राष्ट्र की आकांक्षा की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है। राष्ट्र को पराधीन बनानेवाली अर्थात् साम्राज्यवादी ताकतें सर्वप्रथम मातृभाषा का नाश करती हैं। अतएव साम्राज्यवादी संस्कृति की जड़ें खोदने में मातृभाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।

भारतवर्ष के इतिहास में हिंदी भाषा का आंदोलन हमारे स्वाधीनता आंदोलन से अभिन्न रूप में जुड़ा हुआ है। स्वतंत्रता आंदोलन के लगभग सारे नेताओं ने राष्ट्रीयता के उदय एवं विकास में हिंदी की गौरवपूर्ण भूमिका को समझा था। गांधी से लेकर जगदीशचन्द्र बसु जैसे वैज्ञानिक तक ने हिंदी भाषा को अपनी आत्मा के रूप में स्वीकार किया था। आज जब हम आजाद हैं फिर भी अपनी भाषा को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, लगता है ऐसी ही स्थिति है शायद। हिंदी-उर्दू विवाद को एक गंभीर राष्ट्रीय बहस का रूप दिया जा रहा है। मजे की बात तो ये है कि इस बहस में साहित्यकारों की तुलना में ज्यादा दिलचस्पी राजनीतिज्ञ ले रहे हैं, जिनके लिए भाषा और धर्म महज इस्तेमाल की चीज हैं।

ऐसी विषम परिस्थिति में जब कोई साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिका, जिसका भाषा समस्या से गहरा ताल्लुक है, हस्तक्षेप करती है तो विभ्रम यथार्थ में बदलने को बाध्य होता है। इलाहाबाद जैसे सांस्कृतिक धरोहर वाले शहर से प्रकाशित ‘कथ्य रूप’ ने साहित्यकारों, राजनीतिज्ञों, संस्कृतिकर्मियों एवं वैज्ञानिकों द्वारा समय-समय पर हिंदी के बारे में उद्धृत उनके विचारों को संकलित कर एक महत्त्वपूर्ण काम किया है। इस पुस्तिका के संपादक चर्चित युवा कथाकार कर्मेन्दु शिशिर हैं। कहना न होगा कि कर्मेन्दु शिशिर के लिए भाषा का सवाल एक बुनियादी सवाल है। वे उससे हमेशा टकराते रहे हैं। भाषा समस्या पर इनके विचारों को ‘पहल’ ने भी एक स्वतंत्र पुस्तिका के रूप में जारी की थी, जो साहित्यकारों के बीच इस दौरान चर्चा में रही।

‘निज भाषा’ की महत्ता को भारतेन्दु ने भी गंभीरता से महसूस किया था। उन्होंने कहा-‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।’ इसी ‘निज भाषा’ के नशे में खोकर कभी गांधीजी ने भी कहा था, ‘दुनिया से कह दो कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता।’ गांधीजी भली-भांति समझते थे कि जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की सारी शक्ति नहीं आ जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाये जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया मार्ग नहीं मिल सकता।’ भाषा की एकता को वे राष्ट्रीय एकता के रूप में लेते थे। गांधीजी जोर देकर कहते थे कि ‘जबतक कांग्रेस यह निश्चय न कर ले कि उसका सारा काम-काज हिंदी में और उसकी प्रांतीय संस्थाओं का प्रांतीय भाषाओं में ही होगा, तब तक वास्तविक रूप में हम जनसम्पर्क स्थापित नहीं कर सकते। राष्ट्रीय एकता हासिल करने का यह एक बहुत जबर्दस्त साधन है और जितना दृढ़ आधार होगा, उतनी ही प्रशस्त हमारी एकता होगी।’ दरअसल, रूस में राज्यक्रांति मातृभाषा पर विशेष बल की वजह से ही हुई।

श्रीपाद अमृत डांगे के लिए ‘अंग्रेजी भारतीय संस्कृति के विनाश की भाषा है। अंग्रेजी उत्पीड़न की भाषा है, अंग्रेजी दासता की भाषा है, अंग्रेजी वह भाषा है जिसने अभिव्यक्तशील भारत को नष्ट किया।’ डांगे मानते हैं कि अंग्रेजी ने हम पर हमला न किया होता तो आज हम कहीं बेहतर स्थिति में होते। लोगों की आम धारणा है कि हमारे देश में राष्ट्रीयता के उदय एवं विकास में अंग्रेजी शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। किंतु डांगे हमेशा कहा करते थे कि ‘मुझे अपनी भाषा पर अभिमान है, मुझे अपने देश पर अभिमान है, लेकिन मैं यह नहीं सुनना चाहता कि प्रगतिशील साहित्य अंग्रेजी से आता है।’

क्रांतिकारियों में भगत सिंह ने भाषा समस्या पर विस्तार से विचार किया है। उनके लिए साहित्य की उन्नत्ति देश की उन्नत्ति है। भाषा एवं साहित्य की महत्ता को ध्यान में रखते हुए भगत सिंह ने यहां तक कहा कि रूसो, वॉल्टेयर के साहित्य के बिना फ्रांस की राज्यक्रांति घटित न हो पाती।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. जयंत नार्लीकर विज्ञान हिंदी में पढ़े थे। बच्चे जिस भाषा में विचार करते हैं, उसी भाषा में विज्ञान पढ़ाना चाहिए क्योंकि विज्ञान सोचने-समझने की चीज है, रटने की नहीं।

इसके अलावा इसमें आचार्य बिनोवा भावे, जगदीशचन्द्र बसु, तिलक, राजगोपालाचारी एवं रवीन्द्रनाथ टैगोर के भी विचार संकलित हैं।

इन तमाम लोगों के विचारों को जानने के बाद हिंदी भाषा और साहित्य की समृद्ध परंपरा की याद हो आती है। डा. रामविलास शर्मा का मानना है कि हिंदी भाषा जितने बड़े क्षेत्र में बोली जाती है, उससे बड़े क्षेत्र में केवल अंग्रेजी, चीनी और रूसी बोली जाती है। जनसंख्या की दृष्टि से अंग्रेजी बोलनेवाले अधिक हैं, उनके बाद दूसरा नंबर हिंदी का है। इस प्रकार जातीयता की दृष्टि से हिंदी बोलनेवालों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। इस विशाल हिंदी भाषी के जनसमूह का जातीय गठन, उसका सांस्कृतिक अभ्युत्थान, उसके साहित्य की प्रगति की महत्त्वपूर्ण कड़ी है, वह समूची मानवता के संदर्भ में भी सही है।                                                                                                     
प्रकाशन: हिन्दुस्तान (दैनिक), पटना, 25 जून 1992।  

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