Tuesday, August 17, 2010

भारतीय समाज को समृद्ध करती हिंदी

‘देशकाल’ नाम से पहले हिन्दी की एक पत्रिका निकली और अब ‘देशकाल’ प्रकाशन से एक किताब आई है जिसका शीर्षक है ‘हिन्दी नई चाल में ढली’। इसके संपादक हैं-पुरुषोत्तम अग्रवाल एवं संजय कुमार। पुस्तक में विनय कंठ, फ्रंचेस्का ओरसिनी, कृष्ण कुमार, प्रियदर्शन, अनिल चमड़िया, सुधीश पचौरी जैसे दर्जन भर लेखकों के आलेख संकलित हैं।

हिन्दी भाषा के निर्माण के बारे में चलनेवाली बहसें महज भाषा तक ही महदूद नहीं रही हैं, बल्कि ये आलोचना, इतिहास, परंपरा, विज्ञान, शिक्षा एवं मीडिया इत्यादि के सवालों से भी टकराती रही हैं। यह किताब इन्हीं सवालों को उठाने और उनके उत्तर तलाशने की कोशिश करती है। कुछ मौलिक सवालों से दो-चार होती यह पुस्तक हमें हिन्दी भाषा के इतिहास और वर्तमान से परिचित कराती है।

आलोच्य पुस्तक में कुल तेरह लोगों के लेख शामिल हैं। इसकी सबसे महत्त्वपूर्ण और दिलचस्प विशेषता यह है कि पुस्तक में प्रकाशित लेखों के रचनाकार विभिन्न पेशों से संबंधित हैं जिनके विविध अनुभवों से इसके कैनवस को एक खुला विस्तार मिलता है। यह विशुद्ध साहित्य की दृष्टि से लिखी गई किताब नहीं है बल्कि इसमें समाज के विभिन्न तबकों के जीवन को हिन्दी किस रूप में समृद्ध कर रही है, इस लिहाज से भी देखने की कोशिश हुई है।

पुस्तक के प्रथम आलेख ‘1857 और हिन्दी नवजागरण’ में पुरुषोत्तम अग्रवाल ने एक पुराना सवाल उठाया है कि ‘क्या सचमुच हिन्दी नवजागरण 1857 में व्यक्त जागरण की ही अगली ऐतिहासिक अवस्था है ? क्या सचमुच हिन्दी नवजागरण 1857 की राजनीति और उसकी संवेदना से प्रेरणा लेता है ?’ आगे उन्होंने अपने आलेख की दिशा स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ‘साहित्यिक नवजागरण 1857 की राजनैतिक-सांस्कृतिक संभावनाओं के फलीभूत होने को सूचित करता है या 1857 की संभावनाओं के त्रासद विघटन को ?’ अपने इस आलेख में पुरुषोत्तम अग्रवाल, डा. रामविलास शर्मा की मूल स्थापना कि ‘हिन्दी नवजागरण में देशभक्ति एवं राजभक्ति का अंतर्विरोध झलकता है’, से पीछा छुड़ाकर अलग होने की कोशिश करते हैं लेकिन वे इस दिशा में दूर तक नहीं जा पाते। अलबत्ता इस बेचैनी में वे कुछ वैसे नवीन साक्ष्यों की चर्चा करते हैं जिससे अंतर्विरोध वाली बात ज्यादा प्रामाणिक हो उठती है।

हिन्दी निर्माण और राष्ट्र की अवधारणा’ नामक अपने लेख में विनय कंठ की स्थापना है कि जिस वर्ग ने हिन्दी भाषा के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है वह साधारणतः मध्यवर्ग कहला सकता है।’यह वर्ग स्वाधीनता संघर्ष के काल में आन्दोलन की अगली कतार में था। इस वर्ग के कुछ लोग एक ओर सत्ता में अवस्थित थे तो बहुसंख्यक सत्ता विरोधी राजनीति में थे। वे यह भी मानते हैं कि हिंदी के विकास में उनलोगों की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण बनी जिनका राष्ट्रवाद भारतीय परंपरा के अधिक निकट था-चाहे वे तिलक, मालवीय, गांधी सरीखे राजनीतिक व्यक्ति हों या महावीर प्रसाद द्विवेदी, निराला, प्रेमचंद जैसे साहित्यसेवी। पुस्तक में हिन्दी का जोरदार समर्थन करनेवालों के बीच प्रचलित राष्ट्रवाद में हिन्दू राष्ट्रवाद का तेवर भी कभी-कभी दीख जाता है।’ इस मसले पर अगर थोड़ा रूककर विचार किया गया होता तो शायद विनय कंठ और पुरुषोत्तम अग्रवाल दोनों को ही एक नई रोशनी में चीजों को देखने की सुविधा प्राप्त हो जाती। कहना न होगा कि भारत में मध्यवर्ग का स्वतंत्र विकास नहीं हो सका जिस तरह से इंग्लैंड और दूसरे औद्योगिक देशों में संभव हुआ। हमारे देश में मध्यवर्ग जमींदारों-किसानों के बीच से पैदा हुआ। कहिए कि अंग्रेजी पढ़ा-लिखा जमींदार वर्ग ही मध्यवर्ग में तब्दील होता गया, उसका कायांतरण न हुआ। इसलिए भारतीय मध्यवर्ग के संस्कार विशुद्ध किसानी संस्कारों के बहुत पास-पास दीखते हैं। मध्यवर्ग के निर्माण की प्रक्रिया भी अपने देश में बहुत धीरे-धीरे और देर से शुरू हुई इसलिए उसके अंतर्विरोधों को दबाया नहीं जा सका। 1857 के विद्रोह की असफलता के पीछे मध्यवर्ग का ढुलमुल रवैया एक प्रमुख कारक की तरह था। कारण शायद यह था कि साम्राज्यवाद के साथ उसकी अभी सीधी टकराहट न हुई थी, उसका अंतर्विरोध तीखा और उग्र न हुआ था। हिन्दी नवजागरण में देशभक्ति और राजभक्ति का जो अंतर्विरोध झलकता है, उसकी शायद यही पृष्ठभूमि थी।

भारतीय नवजागरण दरअसल अपने यहां हिन्दू नवजागरण और मुस्लिम नवजागरण की शक्ल में हुआ। हिन्दी-उर्दू का विवाद इसका एक आवश्यक प्रतिफल की तरह है। हिन्दी-उर्दू का यह विरोध विशेष रूप् से स्कूली बच्चों के लिए शाश्वत सत्य जैसा है। स्कूलों में पढ़ाई जानेवाली पाठ्य पुस्तकें भी इससे बाहर नहीं हैं। कृष्ण कुमार हिन्दी पाठ्य पुस्तकों की गंभीर छानबीन के आधार पर यह कहने की स्थिति में होते हैं कि ‘भाषा का शिक्षण बिम्ब निर्माण और कल्पित सृष्टि में रमने की सामर्थ्य पैदा करने की जगह आनुष्ठानिक उच्चार की ट्रेनिंग बन जाता है, यही हमारी लाखों कक्षाओं में हिन्दी की घंटी में रोज घटनेवाली सांस्कृतिक दुर्घटना है।’

यह कहना कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दी का शिक्षक अगर वर्ग में उर्दू शब्दों का सहज प्रयोग भी करता है तो छात्र कह उठता है-‘श्रीमान! आप उर्दू शब्दों का इतना अधिक प्रयोग क्यों करते है ?’ कुल मिलाकर पुस्तक हिन्दी के अतीत और भविष्य के कई स्तरों को लेकर सोचने की एक दिशा हमें देती है।                                                                 

प्रकाशन: न्यूजब्रेक, 3 जून 2001.    

1 comment:

  1. पुस्तक उपलब्ध होते ही पढने का प्रयास करुँगी.

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