Monday, August 16, 2010

फिरकापरस्त क्यों भड़कते हैं ‘तमस’ से

भीष्म साहनी एक अच्छे साहित्यकार हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं में सामाजिक समस्याओं से जुड़ने की कोशिश की है। इनकी रचनाओं में हमें विचार या यों कहें कि एक प्रकार के गंभीर दर्शन का आभास होता है। कुछ हिन्दी के आलोचकों द्वारा यह कहे जाने पर कि रचनाओं में विचार से परहेज होना चाहिए, आपने कहा था कि अगर रचनाओं से विचार को निकाल दिया जाये तो शेष बच ही क्या जायेगा। भीष्म साहनी की रचनाओं में इन्हीं विचारों की झलक देखने को मिलती है।
 
ऐसे में साम्प्रदायिकता पर भीष्म साहनी की कलम का चल जाना कोई अनहोनी बात नहीं है। साम्प्रदायिकता पर कुछ भी लिखना इनके लिए एक अनिवार्य शर्त थी। जैसाकि भीष्म साहनी ने इस बात का जिक्र किया है, पंजाबी होने के नाते दंगा पर लिखना इनके लिए जरूरी हो गया था। यह देखकर पाठक यह समझने की भूल न कर बैठें कि पंजाबी अक्सरहां साम्प्रदायिक होते हैं, बल्कि सच्चाई यह है कि पंजाबियों के लिए दंगा करना एक नयी बात है। फिर पंजाब में दंगा हो और भीष्म साहनी की कलम उस पर न चले, एक आश्चर्यजनक बात हो सकती है।
 
भीष्म साहनी ने अपने उपन्यास ‘तमस’ में दंगा की पोल खोलने की कोशिश की है। यह उपन्यास आज से लगभग बारह वर्ष पहले लिखा गया था। इसने एक हद तक दंगा एवं साम्प्रदायिकता को किसी भी प्रकार के पक्षपात तथा पूर्वाग्रह से दूर हटकर दिखाया है। इसमें साम्प्रदायिक सद्भाव स्थापित करने की कोशिश की गई है। ‘तमस’ खासकर स्वतंत्रता प्राप्ति के समय के दंगे को लेकर लिखा गया है। ‘तमस’ को लोगों ने सिर्फ साहित्य तक ही सीमित करके देखने की कोशिश की है। यह एक बहुत बड़ी भूल साबित हो सकती है। ‘तमस’ का आधार कुछ वास्तविक घटनाएं हैं और कुछ भीष्म साहनी के जीवन के सच्चे अनुभव। इसे स्वतंत्रता प्राप्ति के समय के इतिहास से जोड़कर देखना ज्यादा उचित होगा। मेरा तो मानना है कि ‘तमस’ न सिर्फ साहित्य की एक कृति है बल्कि इतिहास भी है।
 
आखिर ‘तमस’ में कौन वैसी चीज है जो सम्प्रदायवादियों को नागवार लगती है। इसकी वजह यह है कि ‘तमस’ तमाम साम्प्रदायिक ताकतों को बेनकाब करता है। ‘तमस’ एक इतिहास भी है। ऐसे इतिहास पर साम्प्रदायिकों का हमला होना स्वाभाविक है।
 
‘तमस’ भारतीय इतिहास की एक सच्ची घटना है। इसमें स्वतंत्रता प्राप्ति के समय के राष्ट्रीय कांग्रेस की समझौतापरस्त नीति को रेखांकित करने की कोशिश की गई है। ‘तमस’ का जनरैल जो सच्चा देशभक्त है जो हिन्दुस्तान की एकता एवं अखंड़ता को अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता है, कहता है कि कांग्रेस पार्टी समझौता में विश्वास करती है। साम्प्रदायिकता के लिए कांग्रेस को भी उसने जिम्मेदार ठहराया। सचमुच अगर इसका सबूत इतिहास के पन्नों से लेने की कोशिश की जाए तो हमें यह मालूम होगा कि स्वतंत्रता के समय की कांग्रेस का चरित्र कुछ इसी तरह का था। कांग्रेस इस समय साम्प्रदायिकता से संघर्ष नहीं समझौता करने की स्थिति में थी। जाहिर है, ‘तमस’ एक इतिहास है।
 
मुख्य रूप से इसमें साम्प्रदायिकता की मूल जड़ को खोजने की कोशिश की गई है। अंग्रेजी राज को भी साम्प्रदायिकता के लिए दोषी साबित किया गया है। अंग्रेजी राज के सरकारी अफसरों ने अनेक जगहों पर दंगा भड़काया। ऐसा देखा गया है कि अंग्रेजी राज में साम्प्रदायिक तनाव बढ़े हैं। यह सच है लेकिन ‘तमस’ का उद्येश्य यहीं आकर समाप्त नहीं हो जाता है। अंग्रेजी राज तो साम्प्रदायिक तनाव का एक अमली उपकरण मात्र है।
 
‘तमस’ को मार्क्सवाद से जोड़कर देखने की जरूरत है। इसमें लेखक ने दंगा के कारणों में सामाजिक-आर्थिक कारण को महत्वपूर्ण बताया है। दंगा का कारण धर्म नहीं है बल्कि सत्य तो यह है कि दंगा शुरू हो जाने पर इसे मुख्य कारण के रूप में भोली जनता के सामने पेश किया जाता है। मसीत के सामने सूअर मरवाकर रखनेवाला कोई हिन्दू नहीं बल्कि वह मुसलमान ही है। जाहिर है, दंगा का आर्थिक कारण होता है, धर्म तो हाथी के सिर्फ दो दिखावटी बड़े दांत है।
 
‘तमस’ का संकेत कुछ और है। इसमें वर्ग संघर्ष है। आम जनता चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान चैन की जिंदगी जीना चाहती है। हर हिन्दुस्तानी मुसलमान अपना घर छोड़ते यही सोच रहा था कि वह इसे सदा के लिए थोड़े ही छोड़ रहा है। जाहिर है, आम जनता साम्प्रदायिक नहीं होती शांति चाहती है।
 
गांव के सारे लोग चाहे वे किसी भी जाति या सम्प्रदाय के क्यों न हों, आपस में सहानुभूति तथा प्रेम के साथ जीना चाहते हैं। उनको भय है तो सिर्फ बाहरी लोगों से। और सच होता भी यही है-जबतक बाहर से दंगाई नहीं आते हैं हरनाम सिंह मजे में अपनी दूकान चला रहा है। गांववालों को उनसे कोई शिकायत नहीं है बल्कि उनके साथ लोगों की सहानुभूति भी है। गांव की जनता उन्हें बार-बार यही कहती है कि तुम्हें खतरा तभी हो सकता है जब बाहरी लोग यहां आ जाएंगे। संक्षेप में, जनता शांति के पक्ष में है।
 
तब यह प्रश्न करना जायज हो जाता है कि दंगा होता क्यों है ? इसका जवाब हमें ‘तमस’ में मिलता है। इसमें यह स्पष्ट दिखाया गया है कि आदमी को कत्ल करने से ज्यादा मकानों को लूटा जाता है। यह सब वैसे लोग करते हैं जिनका एकमात्र उद्येश्य लोगों को लूटना होता है। स्पष्ट है, साम्प्रदायिकता धर्म और सम्प्रदाय का नहीं आर्थिक हितों का सवाल है। संक्षेप में, साम्प्रदायिक दंगा वर्ग संघर्ष का एक विकृत रूप है जिसे रेखांकित करना ‘तमस’ का एकमात्र उद्येश्य है।                         
प्रकाशन: जनशक्ति,  29 फरवरी 1988।

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