Monday, August 23, 2010

आलोचना का विमर्श

महाकवि निराला पर डा. रेवतीरमण की पुस्तक काव्य विमर्श: निराला पढ़मे हुए मुझे कुछ अजीब-सा अहसास हुआ और एक बार फिर मेरी धारणा पुष्ट होती दिखी कि कुछ वैसे लोग होते हैं जिन पर लिखना आसान नहीं होता। कुछ लोग अपने जीवनकाल में ही मिथक का रूप धारण कर लेते हैं। निराला का दौर भारत के इतिहास का कुछ वैसा ही कालखंड रहा जब हमारे नायक यथार्थ की जमीन छोड़ मिथक बनने या बना दिये जाने की ऐतिहासिक नियति जैसी जैसी चीजों के शिकार हुए। गांधी, नेहरु और निराला-सब के साथ यह समस्या जुड़ी है। नेहरु और निराला स्वतंत्रता संग्राम के दो ऐसे महानायक हैं जिन पर हिन्दी में सबसे ज्यादा कविताएं लिखी गईं।
 
किसी सृजनशील व्यक्तित्त्व का अन्वेषण तथा साक्षात्कार या फिर उसकी पुनःसृष्टि बड़ा चुनौती भरा और उत्तेजक कार्य है। और यदि वह व्यक्तित्त्व निराला जैसा प्रखर, उग्र और अंतर्विरोधों से भरपूर हो तो यह कार्य बड़ा कठिन और जोखिम का भी हो सकता है। निराला जिन्दगी भर अपने व्यक्तित्त्व और लेखन दोनों से ही अतिवादी प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करते रहे। निराला की साहित्य साधना के प्रकाशन के बाद तो यह जोखिम और भी बड़ा हो गया है। एक नये आलोचक के लिए निराला के साथ-साथ रामविलास शर्मा भी चुनौती बनकर आते हैं।
 
डा. रेवतीरमण के लिए निराला वैसा मूर्त्तिशिल्पी है जो रोज अपनी मूर्त्ति गढ़ता है और अगले दिन उसे तोड़ डालता है। निराला की यह क्रांतिकारी चेतना है जो परंपरा से दो-दो हाथ लड़ना जानती है। लेकिन आलोचक को माया मिली न राम। न तो वे निराला की कोई मूर्त्ति गढ़ पाये और नहीं किसी मूर्त्ति को तोड़ ही पाये। इसका श्रेय भी डा. रामविलास शर्मा को ही जाता है। उन्हीं की आलोचना में पहली बार निराला एक व्यक्तित्त्व ग्रहण करते हैं। लेकिन दुख कि आलोचक उसमें अपना मन आरोपित कर देता है-एक मार्क्सवादी मन, जो वेदांती की पीड़ा से कलुषित है। निराला के चिंतन में वेदांत कहां प्रतिक्रियावादी भूमिका में है और कहां प्रगतिशील-इसकी खोज-खबर रामविलास जी ने नहीं ली। गुरु-शिष्य परंपरा का शायद यही तकाजा रहा हो। डा. रेवतीरमण के साथ तो रामविलास जी वाली बाध्यता न थी। हां, शायद निराला के जानकीवल्लभ शास्त्री के साथ मधुर संबंध थे और रेवतीरमण निराला निकेतन ‘शिष्यवत्’ आते-जाते रहे हैं। निराला पर लिखने का यह भी एक प्रभावी कारण बनता है।
 
निराला में एक साधारण आदमी के कई दुर्गुण थे। अपनी आलोचना उन्हें भी पसंद न थी। वे बड़बोलापन के भी शिकार थे। कई बार उनकी कविताएं भी बड़बोलेपन की शिकार हुईं। ‘कुकुरमुत्ता’ एक अच्छा उदाहरण है। शुरू से ही निराला में एक कॉम्प्लेक्स था। पंडित नेहरु और रविन्द्रनाथ टैगोर के बारे में उनकी धारणा इसका प्रमाण है। आज की स्थिति में निराला की कविताएं एक विमर्श की मांग करती हैं जो व्यक्ति-पूजा और श्रद्धांजलि की भावना से रहित हो। ज्यादा घर्षण से चंदन की शीतलता भी खो जाती है।
 
पुनश्च, डा. रेवतीरमण की भाषा आलोचना की भाषा न होकर अध्यापक की हो चली है। अलबत्ता इस अगंभीर माहौल में उनकी भाषा की शुद्धता खलने लगती है।                                                                                

स्रोतः लोक दायरा, अंक 4, जून 2002 

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