Friday, August 27, 2010

मेरा विरोध ही मनुष्यता मेरी

समकालीन कविता-जगत में लीलाधर मंडलोई एक अनूठा नाम है। यह अनूठापन इनकी भाषा व कहन की शैली की वजह से है। कविता में न तो अन्य बहुतेरे कवियों की तरह ‘अतिक्रांतिकारी वक्तव्य’ हैं, न ज्ञानेन्द्र पति की तरह  चमत्कारपूर्ण कौंध पैदा करनेवाले शब्द ही हैं। इनकी कविताओं में एक सामान्य आदमी का सुख-दुख है, वह भी सामान्य तरीके से व सामान्य तरीके का। छोटी-छोटी खुशियों को पाकर खुश हो लेना और छोटी-छोटी चीजों से आहत हो जाना इस कवि-मन की आम विशेषता है। शायद इसीलिए इस कवि के पास गूलर से लेकर मक्खी तक पर कविताएं हैं। लेकिन चीजों को अपने तरीके से देखने का, अपने रास्ते चलने का एक आत्मविश्वास-भरा प्रयास है।

मंडलोई की कविता में आम आदमी का जीवन है, एक भरा-पूरा समाज है-जिसमें रुच्चा, कत्वारू, सुक्का, लक्ष्मी, भद्दू, अमर कोली, तोड़ल और चोखेलाल हैं। और भी कितने ही नाम हैं। इनकी कविताओं में इतने लोग हैं कि सिर्फ नामों को लेकर एक स्वतंत्र लेख बन सकता है। समकालीन हिंदी कविता की दुनिया में यह एक विरल किंतु सुखद संयोग की तरह है। यहां हर तरह के अन्याय और विषमता का प्रतिकार करती लड़की ‘कस्तूरी’ है। कविता के ‘वर्जित प्रदेश’ में ‘वीर-घोषणाएं’ (महाराजाधिराज परमभट्टारक चक्रवर्ती सम्राट पधार रहे हैंऽऽ...! की शैली में) करते बहुतेरे जन-कवि आए, लेकिन एक ‘अमूर्त भीड़’ के साथ। ‘व्यक्ति’ और ‘व्यक्ति का जीवन’ फिर भी कविता के दायरे से बाहर ही रहा। आलोक धन्वा के यहां ‘ब्रूनो की बेटियां’ तो आ सकीं, अलबत्ता कोई ‘कस्तूरी’ कविता में दर्ज नहीं होने पाई। ‘कस्तूरी’ की अनुपस्थिति (अनुपस्थिति पर मंडलोई की ‘अनुपस्थिति’ शीर्षक से एक बहुत ही शानदार कविता है) शायद आलोक को ‘चेता’ (खबरदार) गई हो कि उनका, (कवि का) जुड़ाव एक ‘दार्शनिक स्तर’ तक ही क्यों महदूद रहा ? मंडलोई इस लिहाज से भी एक विशिष्ट, और इन्हीं अर्थों में बड़े कवि हैं।

अक्सर कहा और सुना जाता रहा है कि मनुष्य केवल रोटी के सहारे जीवित नहीं रह सकता। इसके बहाने शायद यह कहा जाता रहा हो कि मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो कला और सौंदर्य का सर्जक और प्रेमी है। बहुत पहले प्रेमचंद ने अपनी कहानी ‘कफन’ में संभवतः यही बताने की कोशिश की थी कि पूंजीवादी समाज ने एक मनुष्य को शत-प्रतिशत मनुष्य नहीं रहने दिया है। धूमिल की कविता में ‘मोची के लिए हर आदमी एक जोडा जूता है।’ मंडलोई का ‘गंवई’ कवि-मन हैरान है-
‘मैं कहता हूं बार-बार कोई नहीं आता
मैं पूछता हूं बार-बार-कोई क्यों नहीं आता ?’(क्यों कोई नहीं आता यहां, काल बांका तिरछा, पृष्ठ 75)।
वैसे कवि को इसका उत्तर पता है ‘कि घर और जीवन अब एक बाजार’ है। (‘बाजार और दादी,’ काल बांका तिरछा, पृष्ठ 83)। इसलिए

‘दरबाजे पर जब कोई आता है तो
कभी यूरेका फोब, कभी वीडियोकॉन
यहां तक कि चाकुओं का सेट लिए कोई सेल्समैन।’ (कोई क्यों नहीं आता यहां, काल बांका तिरछा, पृष्ठ 74)। ध्यान रहे कि ये सारे रिश्ते बाजार द्वारा निर्मित/तय किये हैं। लेकिन मनुष्य के अपने जो ‘नैसर्गिक’ और ‘मानवीय’ रिश्ते हैं, वहां एक अजीब सन्नाटा है, एक बड़ा शून्य।
‘कोई नहीं आता वहां
न बाल्कनी में चिड़िया, न ही धूप
न रसोई में बिल्ली
न पत्नी के मैके से कोई रिश्तेदार।’ (‘कोई क्यों नहीं आता यहां,’ पृष्ठ 74)
नव उदारवादी बाजार का दंश झेलता कवि साफ-साफ देखता है या कि दिखाता है कि पूंजी ने मानवीय संबंधों को कैसी पटकनी दी है और उसकी कब्र पर बाजार ने अपने नये रिश्ते-नाते गढ़े हैं। इन रिश्तों को सिक्कों से खरीदा और बेचा जा सकता है। लेखक-बुद्धिजीवि विलाप की मुद्रा में हैं कि हाय! ‘मुझे खरीद लिया एक चमकते सिक्के ने।’ (‘मैं इतना अपढ़ जितनी सरकार,’ काल बांका तिरछा, पृष्ठ 77)। प्रेमचंद विरले थे जिन्होंने बंबई की ‘मायानगरी’ से छलांग लगा दी थी। ठीक जैसे कोई ‘वध-स्थल’ से छलांग लगाता हो।

इस नव उदारवादी किंतु हिंसक बाजार ने उन तमाम चीजों के लिए, जो मनुष्य को मनुष्य बने रहने में मदद कर सकती हैं, बहुत ही कम ‘स्पेस’ छोड़ा है। जनतंत्र का चौथा खंभा कहे जानेवाले अखबार में कला-संस्कृति के लिए क्या कोई जगह बाकी बची है ? कुछेक साल पहले जब स्थानीय अखबारों में लेख छपता तो बड़ा खुश होता। अपने अग्रज (अमरेंद्र कुमार) की टिप्पणी बिल्कुल बेकार-सी और कुण्ठा से उपजी लगती। वे अक्सर कहते कि ‘कभी ऐसा  हुआ है कि तुम्हारे लेख के अभाव में अखबार का कोई पेज सादा चला गया हो ? विज्ञापन से जो जगह बच जाती है उसमें वे तुम्हारा लेख छाप देते हैं। इसमें खुश होने की क्या बात है ?’ आज उनकी बात से असहमत होने की इच्छा रखते हुए भी सहमत होने को विवश हूं। हस्तलिखित दो पृष्ठ के मेरे लेख को एक अखबार के उप-संपादक (सौभाग्य या दुर्भाग्य से वे कथा-लेखक हैं ) ने यह कहकर लौटा दिया कि ‘लेख बहुत बड़ा हो चला है।’ मेरे-आपके लिखे लेख की बात तो रहने ही दीजिए। अखबार का संपादक भी बेचारा बहुत कम ही ‘संपादक’ रह गया है, शायद ‘न से हां भला’ की तर्ज पर। आज हर जगह
‘सम्पादकीय की जगह
हँस रहा है एक बड़ा-सा विज्ञापन।’ (कोई क्यों नहीं आता यहां, पृष्ठ 75)।
याद है कि ‘सहारा समय’ अखबार में सुब्रत बनर्जी के ‘पवित्र-परिवार’ की ‘विज्ञापनी-तस्वीर’ देखकर दिल को कितनी कचोट होती थी। आज संपादकों की ऐसी असहाय स्थिति देख निराला ‘चमरौंधे को तेल में भिंगोने’ की साध भी पूरी न कर पाते !   

सूचना-विस्फोट के इस भयावह समय में आम-जन से जुड़ी घटनाएं खबर नहीं बन पातीं। क्या प्रिंट और क्या दृश्य मीडिया (एक अजीब तालमेल है)-सब जगह ऐसी खबर के विरुद्ध एक ‘अदृश्य-अघोषित’ सेंसर है, एक गजब की ‘सामरिक चुप्पी’ है। कुमार मुकुल को पता है कि
‘खबरों को पाकर
खबरनवीस सन्तुष्ट होता है
उन्हें दबाकर संपादक।’ (सन्तोष ही सुख है!,ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएं, पृष्ठ 18-19)
लीलाधर मंडलोई चूंकि मीडिया के ‘अंदर’ के आदमी हैं, इसलिए उन्हें बेहतर पता है-
‘छुपाता अधिक-से अधिक सच इस हद तक
कि रुदन, कराह, चीखें, अंग-प्रत्यंग, कफन
यहां तक जीवित बचे-खुचे लोगों का आक्रोश
मीडिया की चुस्त नजरों से गायब।’ (‘उन पर न कोई कैमरा’, काल बांका तिरछा, पृष्ठ 79)
और जो दिखाया जाता है वह सच नहीं होता-
‘बस कुछ अवसरपरस्त
एकाएक दृश्य पर काबिज
इधर से उधर नाक पर रूमाल रखे निर्देश पेलते
...हाथ जोड़ अभिवादन से न थकते मन्त्रीगण
सब अपने लिए तय कर ली गई फौरी भूमिका में
जो होना है या कि था से बेपरवाह।’ (उन पर न कोई कैमरा, पृष्ठ 79-80)
मीडिया के लिए खबर एक ‘उत्पाद’ की तरह है, चाहे वह मृत्यु ही की खबर क्यों न हो। बल्कि कहिए कि यहां मौत सबसे ज्यादा बिकती है। मृत्यु से आगे-पीछे की जीवन-स्थितियों के बारे में मीडिया-तंत्र इस कदर एक ‘शालीन चुप्पी’ ओढ़े रहता है जैसे उसका उन चीजों से कोई सरोकार ही न बनता हो।
‘मृत्यु सिर्फ उपभोक्ता खबर है दृश्य में
पहुंचती नहीं उन तक जो कभी भी तोड़ सकते हैं
अपनी आखिरी सांस अटकी जो उम्मीद में कहीं।’ (उन पर न कोई कैमरा, पृष्ठ 80)
नदी में डूबकर या आग लगाकर मरते बच्चे की लाइव तस्वीर वे दिखा सकते हैं, उसे बचाने की कोई ‘नैतिकता’ उनके पास नहीं है।
‘टी. वी. दस्ता मुस्तैद यह दिखाने में कि सबसे बुरा क्या ?
दूर-दूर तक उनकी आंख से मानवीय क्षण गैरहाजिर।’ (‘उन पर न कोई कैमरा,’ पृष्ठ 80)
अलबत्ता, ‘मानवीय’ होने की ‘नैतिकता’ जिसके पास है वह दृश्य से गायब है-
‘उनपर न कोई कैमरा
न किसी अखबार में उनकी तस्वीर
अगर वे कहीं धोखे से रहे भी तो
स्टिल या मूवी कैमरा के एक्सट्रीम लांग शाट में
और जो छपती रहीं क्लोजअप में
वे साफ-सुथरी इतनी मानो किसी आपदा में नहीं
कम्पोज की गई पूरे इत्मीनान से
कि दिखता रहे बनावटी दुःख  भी अधिक यथार्थपूर्ण।’ (उन पर न कोई कैमरा, पृष्ठ 80)

एक अत्यंत सीधा-सादा, ‘गंवई’ बोलनेवाला कवि-मन इन ‘प्रायोजित सक्रियताओं’ में नहीं रमता, इसलिए वह ‘खबर’ का हिस्सा भी नहीं बनता। कभी-कभी तो ‘कुलीनता की हिंसा’ ऐसे व्यक्ति के ‘अस्तित्व’/‘मैं’ तक को लील जाना चाहती है। कभी निराला को ‘बाहर’ करके ‘अंदर’ भर दिया गया था। इतना अधिक कि उनका ‘पीड़ा-बोध’ कभी-कभी ‘व्यर्थता-बोध’ में बदल जाता। ऐसी गहरी पीड़ा। मंडलोई का भी पीड़ा-बोध उतना ही गहरा है किंतु व्यर्थता-बोध की ‘लक्ष्मण-रेखा’ को छूने से बचता-बचाता हुआ। वे कहते हैं,
‘मैं एक छाया दिल्ली की सड़कों पर पागल
मेरा ‘मैं’ तक अनुपस्थ्ति कि मारा गया
जो उपस्थित बहुत हर जगह और जुगाड़ से
विरोध में रहा मैं उनके और इस तरह बाहर।’ (‘अनुपस्थिति’, काल बांका तिरछा, पृष्ठ 70)
इसलिए भी शायद कि ‘मेरा विरोध ही मनुष्यता मेरी।’ (‘मैं इतना अपढ़ जितनी सरकार,’ पृष्ठ 78)

पुनश्चः लीलाधर मंडलोई की कविता पढ़ते हुए मुझे राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह के गद्य की बरबस याद आती रही। संभव है, यह महज संयोग हो। 
                                             

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