Sunday, August 15, 2010

टेक्स्ट बुक और साम्प्रदायिकता --डॉ अखिलेश कुमार

डॉ अखिलेश कुमार
भारत में जनतांत्रिक शासन व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर देनेवाली सरकार विरोधी शक्तियों में साम्प्रदायिकता का जहर कितना कड़वा है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। वर्षों से सुरसा के समान मुँह  बाये इन साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ सामाजिक एवं प्रशासनिक धरातल पर कदम उठाये गये हैं किंतु वे ताकतें अब भी भारतीय जनमानस को कुरेद रही हैं। जब भारत अंग्रेजी शासन के अधीन था, और उन दिनों जब साम्प्रदायिक दंगे होते थे तो हम यह कहकर साम्प्रदायिकता की समझ पर पर्दा डाल देते थे कि वह शासकों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का परिणाम है। फ्रांसिस रॉबिंसन ने ठीक ही कहा है कि उन दिनों यह फैशन था कि हर बुराई के पीछे शासक वर्ग की भूमिका प्रमाणित कर इतिहासकार असली स्वरूप से वंचित हो जाते थे। आज तो कोई विदेशी शासक नहीं है, फिर आजादी के बाद लगभग प्रति वर्ष साम्प्रदायिक दंगे क्यों ?

साम्प्रदायिकता के अनेक चेहरे हैं। उन्हें बेनकाब करने के लिए उनके कारणों की सही समझ एक अनिवार्य शर्त है। उन परिस्थितियों की खोज करना नितांत आवश्यक है जिससे साम्प्रदायिक चेतना को फलने-फूलने का अवसर मिलता है।

साम्प्रदायिक भावना के विकास में कई एक कारक सहायक हैं जिनमें स्कूल तथा कॉलेज के छात्रों को पाठ्य पुस्तक के रूप में परोसी गयी चीजें तथा शिक्षकों के अपने पूर्वग्रह और उनके पढ़ाने के अंदाज से जाने या अनजाने एक ऐसी रुझान पैदा हो जाती है जिससे साम्प्रदायिक शक्तियां और मजबूत होती हैं। उनकी जड़ें और भी गहरी उतरती जाती हैं। ध्यातव्य है कि शिक्षा के माध्यम से विकसित हो रहे साम्प्रदायिक दुराग्रहों से समाज के वैसे वर्ग बचे रह जाते हैं जो शिक्षा पाने में असमर्थ हैं। यही कारण है कि साम्प्रदायिक चेतना मध्य वर्ग की विशेषता है किंतु गरीब किसान, मजदूर एवं खोमचे उठानेवालों में साम्प्रदायिकता का सर्वथा अभाव है।
जिस तरह से परिवार तथा समाज में पल-बढ़कर एक बच्चा ‘हिन्दू’, ‘मुसलमान’,  ‘सिख’ या ‘ईसाई’ बन जाता है, ठीक उसी तरह पाठ्य पुस्तकों में वर्णित भ्रामक सामग्रियों से भी। लाला लाजपत राय अपने बचपन के दिनों की याद करके ‘आत्मकथा’ में लिखते हैं, ‘इतिहास की एक पुस्तक ‘‘वक्त-ए-हिन्दू’’ जो उस वक्त सरकारी स्कूलों में पढ़ाई जाती थी, ने मुझमें यह भाव भर दिया कि मुसलमान शासकों ने हिन्दुओं पर काफी सितम ढाये। परिणामतः बचपन के पालन-पोषण से इस्लाम के प्रति जो सद्भाव मैंने हासिल किये थे, वे अब घृणा में परिणत हो रहे थे।’

साम्प्रदायिक चेतना के विकास में ये पाठ्य पुस्तकें जितनी प्रभावी हो रही थीं, उनके खिलाफ लड़ाई छेड़ने के लिए भी यह उतनी ही प्रभावी हो सकती थीं। इसमें विश्वास करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था, ‘भारत में तब तक स्थायी प्रेम धार्मिक समुदायों के संबंध में स्थापित नहीं हो सकता जब तक कि इतिहास की पाठ्य पुस्तकों से इतिहास के विकृत अंश को हटा न दिया जाये।’

बदलते हालात को मद्देनजर रखते हुए हाल के वर्षों में समाज वैज्ञानिकों द्वारा साम्प्रदायिकता को शिकस्त देने के लिए मनोवैज्ञानिक धरातल पर काम हुए हैं। मनोवैज्ञानिक परिस्थितियां किस तरह के भाव पैदा करती हैं, इन बातों से स्पष्ट हो सकता है। एक व्यक्ति से मैंने पूछा-क्या आप हिन्दू और इस्लाम को अलग मानते हैं ? उस व्यक्ति ने बेहिचक जवाब दिया-बिल्कुल !  क्योंकि हिन्दू जो काम करते हैं, मुसलमान सब उसके उल्टा करते हैं। जैसे, हिन्दू सूर्य की पूजा तो मुसलमान चांद की। हिन्दू मुर्दे को जलाते हैं तो मुसलमान गाड़ते हैं, आदि आदि। किंतु वे यह नहीं समझ पाते कि दोनों की भौतिक परिस्थितियां भिन्न रही हैं। आर्य ठंडे प्रदेश से आये, इसलिए वे सूर्य की उपासना करते हैं क्योंकि इससे गर्मी मिलती है। मुसलमान अरब प्रदेश से आये जहां गर्मी अधिक है। उन्हें शीतलता चाहिए थी, लिहाजा उन्होंने चन्द्रमा को अधिक महत्व दिया। हिन्दुओं में शव को गाड़ने, जलाने से लेकर पानी में प्रवाहित कर देने तक की सारी प्रथाएं विद्यमान हैं। अतः दोनों में कोई मौलिक अंतर नहीं है।

इतिहास की अधिकतर पुस्तकों में महमूद गजनी को इस्लाम धर्म के प्रचारक-प्रसारक के रूप में वर्णित किया गया है। किंतु मुख्यतः वह लुटेरा था, उसे अपने साम्राज्य-विस्तार के लिए सम्पत्ति चाहिए थी जो उस वक्त मंदिरों में उपलब्ध थी। उसने विशुद्ध आर्थिक कारणों से मंदिरों को लूटा, तबाह किया-धार्मिक कारणों से नहीं। औरंगजेब के संबंध में यह चर्चा इतिहास की अधिकतर पुस्तकों में है कि उसने हिन्दुओ पर ‘जजिया’ कर लगा दिया किंतु ‘जकात’ की चर्चा नहीं होती जो मुसलमानों पर लगा था। संक्षेप में, यह कहना अधिक तर्कसंगत होगा कि औरंगजेब मूलतः एक शासक था और उसका मकसद था धन प्राप्त करना, प्रजा पर शासन करना आदि।

इतिहास को विकृत करके पेश करने की परंपरा उस औपनिवेशिक शासन व्यवस्था की देन है जो ‘फूट डालो और राज करो’ की नींव पर आधारित थी। आजादी के बाद भी कुछ भारतीय इतिहासकारों के बीच ऐसी धारणा पलती-बढ़ती रही है जो औपनिवेशिक सांस्कृतिक विरासत के रूप में आज भी जीवित है। जनवरी 87 के जनशक्ति में ‘इतिहास में लिखी काल्पनिक कथाएं’ शीर्षक से श्री बी. एन. पांडेय का एक लेख आया था। श्री पांडेय इतिहास की एक पुस्तक का हवाला देते हुए कहते हैं कि मैंने उस किताब का टीपू सुल्तान संबंधी अध्याय खोला जिसमें लिखा था कि ‘तीन हजार ब्राह्मणों ने केवल इसलिए आत्महत्या कर ली कि सुल्तान उन्हें जबरन मुसलमान बनाना चाहता था।’ उक्त पुस्तक के लेखक एक सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा. हरप्रसाद शास्त्री हैं। श्री पांडेय ने शास्त्री जी से इस संबंध में जांच-पड़ताल की तो उत्तर मिला कि यह बात उन्होंने मैसूर गजट से ली है। किंतु मैसूर गजट में ऐसी कोई बात नहीं है। जाहिर है, डा. शास्त्री की किताब पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा तथा उत्तर प्रदेश के दसवें वर्ग के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती है। 1972 में तीन हजार ब्राह्मणों की झूठी कहानी उत्तर प्रदेश में जूनियर हाई स्कूल के पाठ्यक्रम में भी मौजूद थी। ऐसी परिस्थिति में अगर साम्प्रदायिक दुराग्रह बढ़ते हों तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

इन तमाम परिस्थितियों को देखने के बाद यह भी सोचना आवश्यक है कि क्या साम्प्रदायिक चेतना से मुक्त साहित्य एवं इतिहास की पुस्तकें इस समस्या का पूर्णतः सफाया कर देंगी ?

पाठ्य पुस्तकों के साथ-साथ शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। शिक्षक, जो कि पाठ्य पुस्तकों एवं बच्चों के बीच एक आवश्यक माध्यम हैं, उनसे भी जाने-अनजाने में इस तरह की चेतना को बढ़ावा मिल जाता है। यहां मेरा उद्येश्य शिक्षकों की नकारात्मक भूमिका को दिखाना नहीं है और न तो इसके लिए शिक्षक को पूर्णतः जिम्मेवार ठहराना। ध्यान देने की बात है कि एक शिक्षक भी समाज की देन है। समाज के एक अणु के रूप में उनका विकास भी एक ‘हिन्दू’, ‘मुसलमान’, ‘सिख’ या ‘ईसाई’ के रूप में हुआ है। किसी के माथे पर तिलक है तो किसी की लम्बी दाढ़ी। एक हिन्दू हैं तो दूसरे मुसलमान। जब तक यह फर्क नहीं मिट जाता तब तक पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष शिक्षा की कामना हम नहीं कर सकते।

बचपन से जो चीजें घुट्टी के साथ पिलायी जाती हैं, उसका असर जीवन पर्यंत बना रहता है। महज पांच-सात वर्ष के बच्चों को जाति एवं धर्म से परिचय करा दिया जाता है। उन्हें ठोक-पीटकर एक खास जाति और धर्म के घेरे में जकड़ दिया जाता है। जब एक बार रंग चढ़ जाता है तो जीवन पर्यंत उससे उबर पाना मुश्किल सा हो जाता है। एक दिन की घटना याद करूं कि एक मित्र ने मुझसे कहा कि ‘आप बिल्कुल मुसलमान लगते हैं।’ मैंने प्रतिवाद किया। पुनः मेरी चेतना लौटी और मैं इस निष्कर्ष पर पहुचा कि मुसलमान दिखना कोई खराबी नहीं है। ऐसा इसलिए हुआ कि घर, परिवार, समाज सबों ने जाने या अनजाने में कोशिश की थी कि मैं एक खास जाति, एक खास धर्म के सदस्य के रूप में पलूं-बढ़ूं। आज तो दीवारों पर ये नारे भी दिखाई पड़ते हैं-‘गर्व से कहो कि हम हिन्दू हैं।

जब तक यह होता रहेगा साम्प्रदायिक सद्भाव स्थापित नहीं हो सकेगा। अतः साम्प्रदायिकता के खिलाफ बुद्धिजीवियों को एकजूट होकर लड़ाई शुरू करने की आवश्यकता है। प्रशासनिक कदम नाकामयाब रहे हैं। अतः आज इससे मुकाबला करने के लिए, मात देने के लिए बौद्धिक जागरण की जरुरत है। यही मरीज की तीमारदारी है।                                  
प्रकाशन -- जनशक्ति, 19 जून 1989।     

2 comments:

  1. एकदम गलत है आप
    साम्प्रदायिकता सरकार विरोधी नहीं , सरकार में रहते हुए ही कुछ दल फैलाते है वे किसी न किसी बहाने अल्पसंख्यकों को डराकर वोटों का ध्रुवीकरण करने हेतु जो तुष्टिकरण का मार्ग अपनाते है , वही साम्प्रदायिकता का मूल है |
    आपका इशारा जिन शक्तियों की तरफ है वे तो सिर्फ उस तुष्टिकरण की क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया मात्र है |
    यदि मुस्लिम दंगे फसाद नहीं होते तो आज गर्व से कहो हम हिन्दू है का नारा देने वालों को कोई पूछने वाला भी नहीं होता | पर सिर्फ हिन्दू धर्म के खिलाफ गरियाना ही आज धर्मनिरपेक्ष हो गया है | और शायद यही मानसिकता इस लेख के लेखक की है जिससे सहमत नहीं हुआ जा सकता |
    हमारी तरह वामपंथी,कांग्रेसी ,भाजपाई ,सपाई ,बसपाई चश्मा उतारकर देखो सब समझ आ जायेगा कि गलती कहाँ हो रही है |

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  2. साम्‍प्रदायिकता न जाने कितनों की रोजी-रोटी है, आगे क्‍या कहा जाए.

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